Friday, March 13, 2009

प्यास सिर्फ़ पानी से नहीं बुझती


इस जगह बस्ती होने का कोई तुक नही था। यहाँ दुनिया से कोई सड़क नहीं आती थी,और यहाँ मौजूद लोगों ने बाहर जाने के जो भी मार्ग खोजे वो अंततः आपस में ही मिल गए। सूरज यहाँ से हमेशा सर पर ही सवार दिखाई देता था। चमकता, आग फेंकता। पर कहतें हैं जीवन कहीं भी पाँव टिका लेता है और जहाँ जीवन नहीं टिकता वहाँ भी आदमी बस्ती बना लेता है। तो इस जगह बस्ती थी और एक पुरानी बस्ती थी,क्योंकि यहाँ के लोग और जानवर जिस कुए पर जिंदा थे वो एक पुराना कुआ था।
उस बाहरी आदमी का इस जगह आना कैसे हुआ ये हम नहीं जानते पर मान लेते है कि वो भी वैसे ही यहाँ आया होगा जैसे बीकानेरी भुजिया का पैकेट यहाँ आया था। इस वक्त ऊपर सूरज अपनी और से लोगों के धैर्य की परीक्षा ले रहा था। आते ही उसे प्यास लगने लगी। अब तक अपने साथ जितना पानी लाया था, तकरीबन ख़त्म हो गया था। उसने पानी का स्रोत ढूंढ़ना शुरू कर दिया। यहाँ पानी कहाँ होगा, उसने सोचा। पर तुंरत हलकी सी राहत इस बात से भी हुई की जिस तरह यहाँ बस्ती होने का कोई तुक नहीं है फ़िर भी बस्ती है वैसे ही यहाँ पानी होने का कोई तुक तो नही है पर पानी हो सकता है।
वो बकरियों के एक रेवड़ के पीछे हो लिए। और सच में कुछ देर बाद वो एक कुए के पास खड़ा था। यहाँ और कुआ?उसने मन ही मन इस आश्चर्य के घटने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया पर साथ ही ये भी कहा कि भगवान् जा अब अंटार्कटिका में एक अदद खेजडी भी उगा आ।
तुंरत उसे प्यास सताने लगी पर थोड़ा काइयां होकर सोचने लगा-अब क्या डर,कुआ सामने है। एक विजयी मुस्कान लेकर वो कुए की और बढ़ा। एक मोटा रस्सा अपने साथ चमड़े का पात्र लेकर कुए की अतल गहराइयों में गिरता जा रहा था। कुछ देर बाद अपने साथ जल लेकर वापस आया। उसने अपनी हथेलियों को पात्र बनाकर जल लिया और तुंरत गले में उड़ेल दिया,पर ये क्या? पानी बेहद खारा था। थू..... उसने सारा पानी उगल दिया। पानी इतना खारा था कि कि इसे कोई पी ही नही सकता था। उसने पास खड़े आदमी से पूछा कि इतना खारा पानी लोग कैसे पी लेते है? जवाब में उसने जो कहा वो घोर विस्मयकारी था।जवाब था-पानी खारा नही बहुत मीठा है। उस आदमी ने एक बार और कोशिश की। पर नतीजा वाही था। पानी बेहद खारा था। पर उस जगह के सब लोग प्राणी मज़े से पानी पी रही थे।
उसने इधर उधर बेबसी में नज़र घुमाई। पास ही एक पत्थर पर किसी ज़माने में लिखा गया शिलालेख कह रहा था-
"इस कुए का निर्माण इस बस्ती के सभी लोगों ,जानवरों ने मिल कर किया। साठ पुरस खोदने पर भी इसमे एक बूँद पानी नही मिला पर तब तक जो पसीना बह चुका था वो इस कुए को भरने के लिए काफ़ी था।"

Wednesday, March 4, 2009

आँख के जल में याद


एक सुंदर सी लगने वाली छतरी के पास खडा टूरिस्ट उसे मुग्ध भाव से देखता है।पत्थरों पर नक्काशी करते वक्त कारीगर के मन में ज़रूर कोई कोमल भाव उपजा होगा।पत्नी का स्पर्श शायद उसने फ़िर से महसूस किया होगा जो सृष्टि के एक और मामूली दिन को उसके लिए विशिष्ट बना गया था।
ये किसी रानी की छतरी है,गाइड टूरिस्ट को बताता है। एक राजा ने अपनी पत्नी के शोक को स्थायी करने के लिए इसे बनवाया था। पत्नी की मृत्यु पर राजा उस दिन अकेले में बहुत रोया होगा। एक स्मृति लेख रानी के मरने के दिन,वार, घटी, पल, योग, नक्षत्र इत्यादि के बारे में जानकारी देता है। जानकारी देता है कि उसके स्वर्गारोहण पर कितना हिरण्य दान किया गया पर वह इस पर मौन है कि राजा की आँखों से कितना जल चुपचाप उस दिन बह गया।
गाइड कैमरे का बड़ी दक्षता से उपयोग करता है,छतरी में हिंदू इस्लामिक स्थापत्य ढूंढता है। पास में पड़ी अंकल चिप्स की खाली थैलिया इस पूरे भाव-लोक को निस्पृह अंदाज़ में देख रही है। शायद वो कह रही है कि शोक भी स्थाई नही होता। इस लगभग वीराने में नव प्रसूता कुतिया अपने शिशुओं के प्रति चिंतित है। वो हर आने वाले को संभावित शिशु- श्वान हन्ता के रूप में देखती है।पर बस्ती से दूर, इस जगह शोक बार बार मुखर हो उठता है। इस मूर्त शोक की परतें सदियों बाद अब धीरे धीरे आज़ाद होना चाहती है। समाधि लेख भी किसी दिन अपठनीय हो जायेगा। मैं, इस मेरे लिए अनाम, आत्मा को श्रद्धांजलि देता हूँ और सोचता हूँ कि क्या कोई आँख है जिसके जल में इसकी स्मृति आज भी तैरती है?