Saturday, October 22, 2016

भग्न स्तूप

ये सिल्क रूट पर आया कोई बौद्ध स्तूप था.
सिल्क रूट अगर कोई सड़क थी तो वो इतिहास में चलती थी.
ये बौद्ध स्तूप भी तारीख़ में ज़रूर तन कर, सीधा खड़ा था, आज ध्वस्त, भग्न और बिखरा था. आस पास की ज़मीन से ऊपर उठा पत्थरों का ढेर.  ढूह जैसा कुछ.  कुछ दूरी पर मठ में भिक्षु रहा करते थे.  कभी.  आज यहाँ तीन- चार फीट की चौकोर दीवारें गिरती पड़ती दिखाई दे रही थीं.

आसपास एक सुनसान था. ज़मीन पथरीली और खुली थी.
तिनका मात्र भी दिखाई देना मुश्किल था.
पत्थर के टुकड़े, असंख्य आकारों में.  और धूल पसरी थी. धूल महीन थी. उसके कण इतने बारीक थे कि हल्के थे. किसी हवा में इस धूल के कण उड़ते तो उड़ते रहते. हवा के रुकने पर भी वे कई देर मंडराते रहते.
पत्थर भी बड़े कच्चे थे. उन पर पाँव रखते ही वे धूल में बदल जाते और फिर किसी हवा में अपने बारीक कणों के साथ चक्कर खाते रहते.
लगता था पत्थरों में कण आपस में किसी दूर की रिश्तेदारी से ही बंधे थे. और उनमें बिखरने की प्रतीक्षा भरी थे.
भूदृश्य का रंग मटमैला था. दृष्टि की आखरी हद तक सिर्फ धूसर रंग ही दिखाई पडता था. कोई आवाज़ नहीं.  बस सुनसान. धूसर सुनसान.

सुनसान का रंग जैसे धूसर होता है.

कोई पानी नहीं, कोई घास नहीं. हरा रंग सिर्फ शिराओं में. कोई क्यों आये, पर कोई  यहाँ आये तो उसकी स्पंदित होती शिराओं में. या इन पत्थरों के बीच कहीं कहीं किसी खनिज-शिराओं में.
हरे रंग का कोई महंगा खनिज था.और कहीं होता तो कई चरणों से होकर, लदान और ढुलाई के चक्रों से निकल कर किसी की ऊँगली में पहनी जाने वाली मुद्रिका में धंस चुका होता अब तक.




बौद्ध स्तूप और मठ के ये अवशेष इस उबड़ खाबड़ में मिश्रित भाव जगा रहे थे.




अट्ठारह सौ बरस पहले यहाँ की तेज़ हवा में अपना उत्तरीय सम्हाले भिक्षुओं का चित्र कल्पना में टिमटिमाता है.
वे कुछ नहीं बोलते. चुपचाप रहते हैं. ये चीनांशुक मार्ग कारवाओं से लदा रहता है. खुरों से यहाँ की पथरीली ज़मीन में खरोंचे डालते घोड़े और पैदल चलते यात्रियों में द्रुत और विलंबित की विचित्र संगति है.

स्तूप में बुद्ध के किसी शिष्य के अवशेष है. मठ में कुछ दर्ज़न भिक्षु हर वक्त रहते है. सिल्क रूट यहाँ से कुछ ही दूर चलता है. वहां की अपेक्षाकृत चहल पहल से यहाँ का जीवन अछूता ही है. जैसे पास से गुज़रती  व्यापारियों की प्रसिद्ध सड़क से इसका कोई लेना देना ही नहीं हो. भिक्षु भी उसी रास्ते चलकर आये हैं,पर सड़क छोड़कर यहाँ आने के बाद सड़क उनके मार्ग की बात नहीं रही.

आज ये जगह सुनसान थी.पर कभी यहाँ रह रहे भिक्षुओं के प्राचीन रक्त का ताप अभी भी महसूस हो रहा था.उनकी धमनियों में बहता रुधिर अपने दाब का अहसास अभी भी करा रहा था. जिस महान बौद्ध दार्शनिक के अस्थि-पुष्प यहाँ रखे थे वो अभी भी जीवित था यहाँ जैसे.

Tuesday, August 30, 2016

भय के कोने

भय से निजी कुछ नहीं. कुछ पल हर आदमी के जीवन में लौट लौट कर आते हैं जिनमें वो निष्कवच होता है, नितांत अकेला होता है. और सबसे ज़्यादा निर्बल भी. वो इन पलों में बुरी तरह डरा हुआ होता है.ऐसे पल जीवन के लिए भारी और मृत्यु के लिए उर्वर होते हैं.ये क्षण हमारे नितांत निजी डर के होते हैं. प्रेम से भी अधिक निजी. ये इतने निजी होते हैं कि इन्हें हम सबसे अकेले भोगते हैं. इनमें हम सबसे अकेले होते हैं. रावण को शायद उसके इन्हीं क्षणों में मारा गया था.

शर्तिया भय कोई वनैला जानवर होता है. वो हमारे इन्हीं पलों में चुपचाप हमारे पास और हमारे भीतर आता है. वो करीब आकर हमें वेध कर हमारे भीतर व्याप जाता है.जिस तरह से ये हमारे अन्दर घुसता है, बिलकुल किसी बाण की तरह हमारी मज्जा को भेद कर, उससे लगता है ये प्राणी किसी नुकीले थूथन वाला है और भयानक तीखे दांत से वो हमारे अस्तित्व के तंतुओं को कुतर जाता है.

ऐसे ही भय के कुछ पते-ठिकाने भी होते हैं. इन्हीं पर उसके बैठे होने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती है. वो इन ठिकानों पर दुबक कर नहीं बैठा होता बल्कि घात लगा कर बैठा होता है. एक निर्जन रास्ते को काटता सांप अपने पीछे एक लकीर छोड़ जाता है. एक आदमी सांप को जाते देख ठिठकता है. एक सांप आदमी को जाते देख ठिठकता है. दोनों के लिए वो रास्ता डर का ठिकाना है. अगली बार उसी रास्ते पर जाता आदमी कुछ और ठिठक कर चलता है.अगली बार किसी और समय में जाता सांप उसी रास्ते को काटते वक्त अपने फन के पूरे प्रसार के साथ अंग्रेजी का 'एस' बनाकर चला जाता है. उसका डर उसके फन का फैलाव है. वो डर में और चौड़ा हो जाता है. आदमी डर में खुद को सिकोड़ कर चलता है. पर भय को लेकर दोनों की आतंरिक प्रतिक्रिया एक जैसी ही है.


वो आदमी उस तहखाने के नाम से डरता था. तहखाना घर में था. घरवाले कहते थे इस तहखाने में बरसों से एक मगरमच्छ रहता है. घर के एक सबसे बड़े आदमी को छोड़कर सब उस तहखाने के नाम से डरते थे. कोई उसमें जाने की बात भी नहीं सोचता था. बस उस सबसे बुज़ुर्ग आदमी को ही पता था कि शायद उसमें ऐसा कुछ नहीं है. शायद घर के कुछ राज़ उस तहखाने में दफ़न थे. वो तहखाना रहस्य की किसी कन्दरा जैसा था. उसमें जाना निषिद्ध था. बरसों बीतने के बाद धीरे धीरे उस घर के लोगों को एक एक कर पता चलने लगा कि तहखाने में मांसभक्षी उभयचर के होने की बात ठीक नहीं है. पर आखिर जब सब लोगों को पता चला कि उस तहखाने में ऐसा कुछ नहीं है तब भी वे उसमें जाने से डरते थे. वे जानते थे कि तहखाने में मगरमच्छ नहीं है पर कुछ ज़रूर है जो अप्रिय है और उसे उसकी वाजिब भयावहता प्रदान करने के लिए मगरमच्छ का नाम भर दिया गया है. हो सकता है अन्दर जो कुछ हो वो और भी विकराल हो. और इस तरह उस घर के लोगों के लिए डर का दायरा बढ़ने लगा. भय का वृत्त बढ़ने लगा, जो पहले तहखाने तक था वो फिर उस कमरे तक बढ़ गया जिसमें तहख़ाना था. कुछ अरसे बाद वो फिर बढ़कर घर के चौक, फिर मटकी रखने की जगह और फिर सीढ़ियों तक फ़ैल गया.

इस तरह भय को रहने के लिए किसी कोटर, बांबी या तहखाने की ज़रुरत नहीं होती, वो अपने रहने की शुरुआत इन जगहों से कर सकता है पर वो आसानी से घर-महल्ले तक आ सकता है. उसके जबड़े शक्तिशाली और दांत धारदार होते हैं. 

वो समय की कई परतों को चीरता आया हैं.

Sunday, July 31, 2016

निशान

रूस में खुलेपन और पुनर्निर्माण के अग्रदूत मिखाइल गोर्बच्यौफ़ के गंजे सर पर एक दाग़ नुमाया होता था.ये दाग़ उनके नज़र आने से पहले ही नज़र आता था. मैंने पहली बार तो यही सोचा था कि किसी कबूतर ने बीट कर दी है. अगली बार फिर नज़र आने पर यही सोचा, टीवी में कुछ गड़बड़ है. फिर जब अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके फोटो पर भी वो निशान नज़र आने लगा तब जाकर लगा कि कुछ चमड़ी की बीमारी से सम्बंधित बात होगी. अरसे तक मैं ये बात भूल गया था.

दुनिया तो खैर गोर्बच्योफ़ को ही भूल गयी थी.


फिर ये बात कहाँ से फिर उठ गयी ?

अभी हान कांग की किताब 'द वेजीटेरियन' पढ़ रहा था. तीन भागों में बंटी ये छोटी सी किताब एक  दुःस्वप्न के कारण शाकाहारी बनी एक विवाहिता युवती 'योंग हाई' के हाथ से इस दुनिया के धीरे धीरे छूटते जाने की कहानी है. सैनिटी से निकल कर इन्सेन होने का रास्ता कितना छोटा होता है ! जैसे बस एक कमरे से निकल कर दूसरे कमरे में ही जाना हो.कभी कभी तो जैसे सिर्फ एक देहरी से बाहर कदम भर रखना हो.इस तरफ से उस तरफ का शिफ्ट.

उपन्यास के दूसरे अध्याय 'मंगोलियन मार्क' में ज़िक्र आता है कि योंग हाई का बहनोई अपनी साली के नितम्ब पर बने जन्मजात मंगोलियन मार्क के बारे में सोच कर उत्तेजना से भर जाता है. योंग हाइ की देह के ढंके हिस्से पर बना एक नीला सा निशान उस आदमी के मन में होरमोंस का प्रपात ट्रिगर कर देता है.सौंदर्य के प्रचलित और पारंपरिक व्याकरणों में इस तरह के नियम बहुत आम है कि चेहरे पर बना कोई तिल या मस्सा खूबसूरती को बढ़ा या घटा देते है.पर क्या वो सब जो उत्तेजक और मादक है उनके लिए भी कुछ इसी तरह का कसा हुआ व्याकरण है? या फिर, योंग हाइ का बहनोई अपने नियमों की किताब खुद लिख रहा था? किताब का पहला भाग योंग और उसके पति के बारे में है. उसके पति को योंग एक बेहद औसत युवती ही लगती थी.त्वचा से बीमार, उभरी हुई दिखती गालों की हड्डियां.कुल मिलाकर एक अनाकर्षक व्यक्तित्व था उसके पति की नज़र में योंग का. उसके लिए वो पत्नी थी.उसकी इच्छाओं का साथ देने वाली.वो इच्छाएं उपजाती नहीं थीं. बस पति जब प्रोविज़ंस से भरे कैरी बैग्स के साथ अपनी लालसाओं से भी लदा रात को घर आता था तो वो उसका तमाम बोझ उतार देती थी. सवाल ये है कि योंग का पति जब उसके साथ ज्वार में डूबता उतराता था तब क्या उसने उस मंगोलियन मार्क पर अपनी नज़रें नहीं टांकी थी? पति की नज़र में योंग हाइ का औसतपन उसके नितम्ब पर बने निशान के साथ ही था. यानि वो निशान अगर हट जाए
तब भी वो औसत ही थी. और रख लें तब भी वो एक आम, साधारण, 'कुछ ख़ास नहीं' टाइप युवती थी. उसके लिए उसका निशान भी अस्तित्व ही नहीं रखता था.

एक तरफ़ योंग हाइ लगातार अपनी देह को लेकर बेपरवाह हो रही थी दूसरी ओर उसका निशान किसी के लिए एक वेगवान न्यौता बनता जा रहा था.एक गुप्त निमंत्रण.एक चोर निमंत्रण. क्योंकि एक चोर निमंत्रण ही ताकतवर निमंत्रण होता है. ये बेहद निजी और बुलावे की वास्तविक इच्छा पर आधारित होता है.
ऐसा आवेगों से भरा न्यौता जो उसके जीजा के लिए एक ऐसा दंश बन गया था जिसे उतार फेंकना था, किसी भी तरह. कम से कम एक बार.



शरीर पर बने ये निशान दैहिक भाषा की जटिल अभिव्यक्तियाँ हैं.


इस तरह के निशान जितना भी कुछ कहते हैं उसका अनुवाद आदमी अपनी समझ की भाषा में अपने उपकरणों से करता है.हर अनुवाद में कुछ न कुछ छीजत ही होती है, ज़रूरी नहीं. कभी कभी मूल से व्यापक जोड़ लिया जाता है. पर ज़ाहिर है, ये काम पेचीदा बहुत है.

जब हरेक का अपना अनुवाद है तो इस तरह के निशान हर आदमी में एक जैसी प्रतिक्रिया तो नहीं ही पैदा करते होंगे, और ऐसे देह चिन्हों की भौगोलिक स्थिति भी रिस्पोंसेज़ की भिन्नता का कारक होतीं होंगी, पर जिन लोगों को भी इस तरह के 'मार्क' में कुछ ख़ास नज़र आता है,क्या वो लोग एक जैसी होती दुनिया में कुछ ख़ास को देखकर उसे एक अलग दर्ज़ा देना चाहते है? ये क्या औसत के प्रति विद्रोह है? या साधारण को असाधारण गरिमा प्रदान करना है?

हम शक्ल से भले दूसरे लोगों से अलग दिखते हों पर गणित के लिहाज़ से हम अपने सजातीय लोगों से सिर्फ रंग और अनुपात में ही कुछ अलग होते है.क्या ऐसे में इस तरह के निशान ही ख़ास पहचान का अहसास कराते हैं?

इस तरह का टेढ़ा चिंतन जोख़िम भरा है. और गोर्बच्यौफ़ और योंग हाई को साथ रखना और भी जोखिम भरा. इन दोनों में समानता सिर्फ एक दाग़ भर है,पर असमानता की खाई शायद बहुत बड़ी है. 

Sunday, July 24, 2016

इकतरफा यात्राएं


यात्राओं में घर लौटने का सुकून भी शामिल होता है.हमारी यात्राओं में घर भी हमारे साथ चलता है, अपनी तमाम सम्पूर्णता के साथ. किताबें चिट्ठियाँ नौकरी लोन दोस्तियाँ प्रेम सब कुछ शामिल रहता है हमारी यात्राओं में.और जो कुछ, जितना कुछ छूट जाता है उसे लौटते ही फिर से पा लेने का भरोसा बना रहता है यात्राओं में.

यात्राओं में असल में हम जितना कहीं जा रहे होते हैं उतना ही लौट भी रहे होते है.यात्रा में हम घूमने ही तो जाते है.यानी घूम कर वापस आने के लिए.

किसी यात्रा में जितनी अनिवार्यता कहीं जाने की होती है उतनी ही वापस लौटने की भी होती है.बल्कि मुझे लगता है लौट आने की कुछ ज्यादा.

यात्रा असल में वापस लौटना ही है.
फिर हम किसी ऐसी जगह जाने को जहां से हम पुनः लौटने वाले नहीं,क्या कहेंगे?

चाँद पर जाना यात्रा है.हम वहां से वापस लौटते है.
मंगल पर जाना यात्रा है.वहां से हमारा लौटना संभावित है.

पर सबसे नज़दीकी तारे पर जाने को क्या कहेंगे? जहां तक पहुँचने में प्रकाश को भी कुछ बरस कम से कम लग जाते है.

सुविधा के लिए इसे भी यात्रा कह लेते है.

पूरी पृथ्वी पर कई साल घूमने के बाद भी मार्को पोलो आखिर घर पहुँचता है.
वो जब रवाना हुआ तभी से उसके पास लौटने का नक्शा था.
इतालो काल्विनो की 'इनविजिबल सिटीज़'में किस तरह से वो कुबलई खान को सुदूर बसे किन्हीं असंभव शहरों के बारे में बताता है.पर असल में तो वो हर बार सिर्फ वेनिस के बारे में बारे में ही बता रहा होता है.वो किसी भी हालत में घर लौटने के विकल्प को खोना नहीं चाहता.

क्या हम यात्राओं में किसी शहर में अपने क़स्बे को ही तलाश रहे होते है?

मुग़ल फौजों का नेतृत्व कर रहे जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को अफ़ग़ानिस्तान में भी अपने देस की झाड़ी 'फोग' दिख गयी थी.या शायद वो उस भूगोल में फोग को ही ढूंढ रहे थे.

हमें अपनी जगह,शहर,गाँव या क़स्बे का गुरुत्व खींचता है.
अपने क़स्बे के गुरुत्व से छूटने का पलायन वेग हमें जब धकेलता है तो हम अनजान भूमि पर भागते ख़ुद को पाते है.

एक सपने में मैंने ठण्ड से जमे एक गाँव के शराबघर में ख़ुद को पाया.
वहां कोई पांचेक एस्किमोज़ भी थे.मैं समझ गया कि ये इकतरफा यात्रा है.यहाँ से लौटना तो संभव नहीं ही है, यहाँ कहीं टिकना भी सोच से परे है.इन 'यात्राओं' में कहीं स्लेज पर भागता हूँ तो पता रहता है इस बर्फ का कोई अंत नहीं.

और..गर्म हवाओं में लिपटे किसी देश में महीनों रेत पर सरकते ऊँटों के काफिले में हूँ तो पता है कि रेत धरती के अंतिम छोर तक है और चलते जाना है.

नमक बेचने वाले बंजारे का सुकून अपनी परछाई को अपने साथ भागते देखने में है. वो शायद ही कभी दुबारा नमक बेचने इस गाँव आएगा.अगर कोई आएगा तो वो दूसरा बंजारा होगा.इस धरती पर वो बरसों से घूमता फिर रहा है, उसके लिए पृथ्वी कभी गोल नहीं थी. वो पृथ्वी को एक सीधी सड़क मानता रहा है. उसके लिए जाना परिक्रमा नहीं है.

सब उस सड़क पर नहीं जाते जिस पर जिप्सी चलता है. बल्कि कोई उस सड़क पर नहीं चलता जिस पर जिप्सी चलता है.

जिस सड़क पर जिप्सी चलता है उस सड़क पर दूसरा कोई भी जिप्सी ही चलता है.

Monday, March 21, 2016

मुलाक़ात

उन दोनों के बीच शब्दों का ढेर था. दोनों के मुंह से कुछ देर पहले तक शब्द गिर रहे थे. कुछ थोड़े से जिनमें अपने गंतव्य तक पहुँच रहे थे, बाकी सब बीच में ढेर हो रहे थे.ढेर अब काफी बड़ा हो गया था.ढेर लगातार बड़ा होता गया था.पर कुछ देर से वो ढेर ज्यों का त्यों पडा था.कोई नया इक्का दुक्का शब्द ही इस ढेर पर जब तब गिर रहा था.और ऐसा भी नहीं था कि इस 'कुछ देर' से सारे शब्द अपने गंतव्य तक ही पहुँच रहे थे.शब्दों का आवागमन ही बंद हो गया था.

ये सब दो लोगों के बीच का मामला था.और इस वक्त,जब उनके बीच का ढेर जस का तस पड़ा था, उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी.कह सकते हैं कि लगभग सन्नाटे जैसा ही उन दोनों के बीच इस वक्त पसरा था.

वे दोनों दोस्त थे या नहीं कह पाना मुश्किल था.क्योंकि उनकी मुलाकातें अक्सर होतीं तो थीं पर वे तुरत- फुरत में ख़त्म हो जातीं थी.वे मिलते और कुछ ही देर में विदा हो लेते.वे जब भी मिलते,एक और मुलाकात अपने रिश्ते के साथ जोड़ देते.अब इस रिश्ते के साथ ढेरों छोटी छोटी मुलाकातें थीं.ये मुलाकातें भले ही छोटी होती थीं,पर बड़ी अच्छी होती थीं. इनसे वे दोनों आपस में मिलने को उत्सुक बने रहते थे.वे जब भी मिलते,एक सिगरेट भर देर में विदा हो जाते.उनकी इस चुस्त और संक्षिप्त मुलाकातों में उनके बीच सब कुछ स्फूर्त बना रहता. वे एक दुसरे को अधिकार पूर्वक कोई भी काम कह देते थे.दोनों एक दुसरे के काम को पूरी  गंभीरता से पूरा करते थे,या करने की कोशिश करते थे.वे एक दूसरे से मिलने के बहाने नहीं ढूंढते थे पर हर दूसरे दिन एक दूसरे से मिल ही जाते थे.शायद इसलिए उन्हें मिलने के लिए बहाने ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं थीं.क्या दोस्ती में ऐसा ही होता है? अगर हां तो फिर दोनों दोस्त थे.उन्होने कभी एक दूसरे के बारे में किसी तीसरे से किसी तरह की कोई  नकारात्मक बात नहीं कही थी.असल में उन दोनों का कोई साझा मित्र था ही नहीं.उनके बीच का जितना साझा सरमाया था,उनकी बीवियां भी उसके बहुत थोड़े की ही साझेदार होती थीं.पर हां उन दोनों की मुलाकातों में अक्सर या कभी कभार उनेक घर परिवार का ज़िक्र भी आ ही जाता था.और उनकी बातें भी क्या थी?वे किसी तरह के सिनेमा के शौकीन नहीं थे.किताबों से उनका रिश्ता इतना भर था कि वे दिन में एक बार सर्वोदय बुक स्टाल के आगे से निकल जाते थे.जिसका पता न तो सर्वोदय के मालिक को चलता था न ही खुद उन्हें.दोनों में से सिर्फ एक खाने का शौक़ीन था.दूसरे को तो लौकी और कद्दू की सब्जी का अंतर भी न पता था.एक अखबार का तीसरा पन्ना ध्यान से पढता तो दूसरा आखिरी.
फिर भी वे अक्सर मिलते थे. और एक सिगरेट भर देर जीवंत बातें कर विदा हो जाते.

पिछले कुछ समय से दोनों हर मुलाकात में एक दूसरे के परिवारों को मिलाने की बात भी करने लगे थे.इसमें शायद उनकी आपस में तवील मुलाकात की इच्छा भी रही होगी जो महज एक सिगरेट जितनी लम्बी  न हो.इस तरह की लम्बी मुलाकात की इच्छा एक दूसरे के लिए कोई गहरी तलब का परिणाम थी या लम्बे अरसे तक थोड़ी थोड़ी देर भर मिलते रहने से एक औपचारिक शिष्टाचार के तहत परिवारों को मिलाने की बात जैसा कुछ था. पता नहीं.जो भी हो असल में इस तरह की पारिवारिक मुलाकातें कभी हुई ही नही थीं. 

आज उन दोनों के बीच शब्दों का ये ढेर पड़ा था.और फिलहाल दोनों चुप थे.वे एक दुसरे को जल्दी से विदा कह देते तो ये मुलाकात भी पहले की तरह कमाल की मुलाकात हो जाती पर आज उनको ज्यादा देर तक एक दूसरे के साथ रहना था.ये जगह 'एक' का दफ्तर थी और 'दूसरा' आज उधर फील्ड में कहीं अपना काम ख़त्म कर इसी 'एक'के दफ्तर में, उसी के सामने बैठा, अपने बिज़नेस पार्टनर का इंतज़ार कर रहा था जो'तीसरा' था और वहां किसी और जगह से आने वाला था.पार्टनर को आने में देर हो रही थी.पहले तो इस देर का पूर्वानुमान एक मौके की तरह किया गया था कि संक्षिप्त मुलाकातों वाले दोस्त के साथ उसी के दफ्तर में आज लम्बी बातें ख़ूब वक्त तक होंगी. और हुआ भी ऐसा ही कुछ देर तक तो.शुरू में चाय की चुस्कियों के साथ बातों के सूत से कताई होने लगीं.कातते कातते अभी कुछ ही देर हुई थी कि कताई से बुनाई का सफ़र उबाऊ होने लगा.वक्त लम्बा लगने लगा.वे फिर भी बोलते रहे पर उनके बीच बहुत सारा निरर्थक जमा होने लगा.

फिर उनका बोलना रुक गया.वो 'तीसरा'यानी बिज़नेस पार्टनर अब तक नहीं आया था.अब वे दोनों एक दुसरे के सामने नहीं देख रहे थे.कोई कैलेंडर पर बेवजह नज़रें गड़ाए था तो कोई एक तरह लम्बे अरसे से कोने में पड़ी धूल खायी ट्राफी देख रहा था.वे एक दूसरे के सामने थे पर एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह.हद तो ये थी कि वे अब ऐसे बैठे थे जैसे एक दुसरे से अनजान हों.

बिजनेस पार्टनर अभी तक नहीं आया था. 

Monday, March 14, 2016

सन्नाटा

कितनी उजाड़ और अकेली थी ये जगह!बरसों का अकेलापन जमा होते होते इतना सघन हो गया था कि यहाँ आते ही आप उसे छू कर बता सकते थे.जैसे यहाँ छूने से कुछ अकेलापन आपकी ऊँगली के पोर पर चिपक जाता हो. ये एकांत बिलकुल विशुद्ध एकांत सा था.अपनी तात्विक रचना में सिर्फ एकांत से बना.बिलकुल भावहीन,निरपेक्ष एकांत.इस जगह के इसी एकांत ने इसे एक बरबाद उजाड़ में तब्दील कर रखा था.यहाँ सब सूना था.सब कुछ ख़त्म हो गया था. बस एक नीरवता पसरी थी,जो किसी आवाज़ या विस्फोट तक से भंग नहीं होती थी.यहाँ आकर कई बार लगता था जैसे आप पूरी तरह से विस्फारित आँख में झाँक रहे हैं. एक ऐसी आँख जो झपकना भूल गयी है.और ऐसी ही भंगिमा में जो अनंत समय से बनी हुई है.

फटी हुई आँख कितना बियाबान समेटे होती है! उसमें झांको तो जगह ही जगह दिखती है.असल में तो वो खालीपन है खाली जगह नहीं.बंद होना भूल चुकी आँख में हमें जो विराट अवकाश दीखता है वो खाली स्थान नहीं स्वयं खालीपन है. जिस आँख में हर छः सेकंड बाद निमेषक-पटल जीवन भरती है.उसमें ये झपक स्थगित हो जाय तो शून्यता जमा होना शुरू हो जाती है.

कुछ ऐसी ही शून्यता इस स्थान में भी थी. ये स्थान न पूरा पूरा हरा ठंडा जंगल था न पूरा पूरा पीला तप्त रेगिस्तान.बीच का था ये भूगोल.यहाँ जीवन की आवाजाही ज़रूर होती थी पर इसमें खुद जीवन नहीं था.जीवन पनपाने के लिए अनुर्वर थी यहाँ की ज़मीन.एक जगह से दूसरी जगह जाने के बीच पड़ता था ये विस्तार.इसीलिए लोगों के लिए ये एक रास्ता था.कुछ खानाबदोश व्यापारियों के लिए यहाँ से होकर जाना मजबूरी थी.वे भी यहाँ से जितना जल्दी हो सकता था निकलने की फिराक में रहते थे.
पर एक दिक्कत थी यहाँ पर.इस विस्तार में दिशाएं टूट टूट कर गिरती थीं.कौन दिस जाना है इसका विवेक ख़त्म हो जाता था.आदमी और ऊँट दोनों यहाँ भटक जाते थे.वो इस विकराल में गोल गोल गोल ही घूमते रहते थे.लोगों को यहां के कंटीले एकांत में न भटकने और किसी तरह सुरक्षित निकल जाने की प्रार्थनाओं का ही सहारा था.

यहाँ कई देवों के थान हैं जो हर ओर दिखाई देते हैं.उनसे रास्ता चलने वाले को दिशाएं तलाशने में थोड़ी बहुत मदद ही मिलती होगी. देवों में से कईयों की प्रतिमाएं समय ने भग्न कर दीं  हैं तो कईयों को ज़मीन में धंसा दिया  हैं.भटकने वाले लोगों के लिए इन सबमें में रूचि बनाएं रखना कठिन है. इस मरू प्रांतर में चलने वाले ये ज़रूर मानते थे कि कोई एक आदमी ऐसा अवश्य है जो इस इलाके का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता है.उसे यहाँ के हर छोटे बड़े रास्ते की जानकारी है.वो यहाँ की जानलेवा भूलभुलैयाँ के छद्म को भंग कर सकता है.उसे ज़मीन पर उगे और ज़मीन में धंसे तमाम कंद मूलों तक की जानकारी है.वो बांबी देखकर सांप की जात पहचान लेता है.वो धरती की शिराओं में बहते पानी की सोते सुन लेता है.वो अकेला यहाँ दिशाओं के छल को समझता है और ज़रुरत पड़ने पर उसे छिन्न भिन्न कर सकता है.और वो ही इस धरती के दंश को खींच कर दूर फेंक सकता है, यहाँ तक कि इधर के जानलेवा वर्तुलों को सुलझाने का काम कर सकता है.है कोई एक ऐसा आदमी.और ये भरोसा ही राहगीरों को इस जाल में कदम रखने का हौसला देता था.यद्यपि ऐसे 'एक'आदमी को किसी ने देखा नहीं था.पर तृतीय पुरुष में किये जाने वाले दावे पर्याप्त संख्या में थे.

निर्गत द्वार तक ले जाने वाले रास्ते का सफ़र उस 'एक'आदमी को नसीब नहीं.पथिकों को ठीक रास्ते का पता बता सकने के बावजूद उस 'एक' के लिए यहाँ से मुक्ति नहीं है.यहाँ के अकेले एकांत में रहने को वो अभिशप्त है.वो यहाँ के अकेलेपन से लड़ नहीं सकता.जब भी वो यहाँ के किसी एक कुए में झांकता है तो गहराई में दूर दूर तक पानी की क्षीण झिलमिल भी नहीं होती.जिसमें वो अपने प्रतिबिम्ब के रूप में ही सही किसी और को तो पा सके. बहुत बेबस है वो 'एक' आदमी जिसे यहाँ से बाहर जाने का रास्ता मालूम है पर वो जानकारी उसके अपने लिए इस्तेमाल में नहीं आ सकती.

असल में वो यहाँ का स्थायी बाशिंदा है.ये बीहड़ उसका घर है.

वो 'एक' आदमी ये बीहड़ खुद है.