Sunday, April 15, 2012

कुछ और कवितायेँ



मत आना

बरसों से चुप पड़ी पुरानी खांसी फिर से उभरी है
दिमाग में उठ आया है
हज़ारों दिन पहले का
कोई जंग खा चुका बवंडर


अब जब तुम फिर से आई हो
तो सुनो
तबसे अब तक   
पृथ्वी बहुत फांक चुकी है
सूरज से गिरती आकाशीय धूल
और मेरे मन की जलवायु भी
बदल चुकी है
कमोबेश.
वो पीपल जो युवा था कभी
और हवा के संग मिला लेता था
तुम्हारी आहट से ताल
अब वनैला बरगद हो चुका है
उसकी जड़-शाखाओं से उलटे लटके हैं वेताल
अपने मूर्ख प्रश्नों से जो 
खिल्ली उड़ाते अहर्निश
हमारी समझ की.

मैं तो कहता हूँ मत आओ अब तुम
मेरी देहरी पर इस तरह.


बुदबुदाहट



बुदबुदाता है बूढा
जैसे खुद से ही कह रहा हो
या फिर सीधे ईश्वर से 
किसी तिब्बती मन्त्र की शक्ल में कुछ कुछ 
कि प्रेम में विफल
लड़की को मिलता है कोई
अधेड पति
और
लड़का ले आता है
एक थकी हुई स्त्री
जो खुद
प्रेम से हार कर
पिसती रही है
अफ़सोस की पेषणी में.

प्रेम के खारे समंदर को
मथने के लिए
पर्वत-सी झेरनी चाहिए.   


                    (photo courtesy- alessandra luvisotto)