Tuesday, November 17, 2009

दुनिया या प्रेम में खुलती खिड़की

डाकिया आज भी उसे कायदे से नहीं जान पाया था भले ही इस महल्ले में वो पिछले कई सालों से रह रहा था ये बात अलग थी कि आज डाकिया ख़ुद अपनी पहचान के संकट से गुज़र रहा था अपने घर में भी
दोस्त लोग उसके इतने कम थे कि ख़ुद को दिलासा देने के लिए वो दुआ सलाम वालों को भी दोस्तों में शुमार कर लिया करता था उसकी विनम्र-गीता के अनुसार-"वाहनों में साइकल,जानवरों में बकरी,पक्षियों में कबूतर वो ही था भाषाओं में हिन्दी,मुल्कों में फिलिस्तीन,और बाजीगरों में तमाशबीन वो ही था"
कुल मिलाकर इंसानों में बंसीलाल वो ही था उसकी उपस्थिति इस दुनिया में इतनी ही स्थूल थी कि वो था और इतनी सूक्ष्म कि वो था इसका पता लगाना भी मुश्किल था उसे अक्सर लाइनों में पीछे खड़े देखा जा सकता था और उसका नम्बर लाइन के ख़त्म होने से ही पता था


घर में वो चार भाइयों में तीसरा था सबसे बड़ा छोटा इतना छोटा भी नहीं कि सबका लाडला हो सके और इतना बड़ा भी नही कि जिम्मेदार माना जा सके कद उसका दरम्याना था कांस्टेबल जैसे रसूखदार ओहदे के लिहाज़ से छोटा और घर में रखी मिठाई चुराने के लिहाज़ से काफ़ी बड़ा


उसे लगा कि इस दुनिया के माफिक उसे नही बनाया गया है घर में थोडी ऊंची खिड़की की और पीठ करके वो काफ़ी देर ऐसा ही कुछ सोच रहा था इसी सोच में वो घर के पर्यावरण से हो रही बोरियत से ऊबा खिड़की की और घूमा तो उसका मुंह फटा का फटा रह गयाउसके घर की खिड़की को समभाव से देखती सामने वाले घर की खिड़की में उसके सपनों की रानी खड़ी थी मतलब एक बार का उसने ऐसा ही सोचा सोचने पर फिलहाल कोई ख़ास पाबंदी नही थी, कम से कम उसके जैसा निरापद सोचने में उसे लगा लड़की उसकी ओर ही देख रही थी ज़िन्दगी में पहली बार कोई उसे इतनी देर से देख रहा था वरना वो तो लोगों के दृष्टि-परास में ही नहीं आता था

जान तो गया था वो कि लड़की वही है जिस पर महल्ले के लड़के देर तक चर्चाएँ करते थे और कुछ लड़कों के साथ नाम भी उछाला गया था पर बंसीलाल उस लिस्ट में तो क्या उसकी हजारवीं वेटिंग लिस्ट में भी नही हो सकता फ़िर ऐसा क्या था कि वो लड़की जाने कब से उसे ही देखे जा रही थी,उसने सोचा वैसे उसका मन तो हुआ कि वो 'देखे जा रही थी' की जगह 'घूरे जा रही थी' का इस्तेमाल करे पर फिलहाल इतना ठीक थाइस पर आगे और शोध की गुंजाइश थी

उसने फ़िर से खिड़की की तरफ़ देखा, लड़की बदस्तूर उसकी ओर देखे जा रही थी
"जीसस क्राइस्ट" उसके मुंह से निकला. ये उसके किसी चैनल पर विदेशी फिल्मों के देखने का प्रभाव था जो धीरे धीरे उसके रिफ्लेक्स सिस्टम में घुसता जा रहा था परिणामस्वरूप उसकी स्वतः प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट हो रहा था
उसने बड़े से आईने में ख़ुद को देखा क्या उसमें ऐसा हो सकता था जो महल्ले की सबसे सुंदर लड़की को उसकी ओर देखने को बाध्य कर रहा था उसकी नाक कुछ कुछ ग्रीक देवताओं की तरह थी उसने ऐसा मानना शुरू कर दिया उसने कई बार मांसल और पुष्ट मूर्ति शिल्प में ढले ग्रीक देवों के शरीर देखे थे और उसने निष्कर्ष निकाला कि उनकी नाक कुछ कुछ वैसी ही थी जैसी उसकी है बाकी उनकी चट्टानी मांसलता से उसकी देह-यष्टि का कोई साम्य नहीं था
पर्याप्त है एक खूबसूरत नाक जो किसी नवयौवना में देह-राग छेड़ दे वो सोचे जा रहा था अब तक घर में उसका सम्मान जिस एकमात्र गुण के कारण होता था वो था मंडी से कच्ची भिन्डियाँ छाँट लाने का उसका हुनर अब लगता है कि उसके चेहरे पर सजी मूंछे जिस स्टाइल में थी वो अनायास नहीं था, बिल्कुल क्षैतिज रखी दो कच्ची भिन्डियाँ पर यहाँ उसके भिन्डी-विशेषज्ञ और भिन्डी-प्रेमी होने का कोई मूल्य नही था यहाँ उसे उसकी नाक पर गर्व हो रहा था जो, जीव विज्ञान की भाषा में कहें तो,एक मादा को 'वू' करने का सशक्त हथियार बन गया था


विचारों में डूबा बंसीलाल शोध को भूल कर अब ये मान चुका था कि कन्या उसे खिड़की से देख नहीं घूर ही रही थी हर रोज़ अपूर्णता के ख्याल से त्रस्त वो आज पहली बार अपने स्व को प्यार कर रहा था एक अनजानी शक्ति को वो अपने भीतर सोख रहा थापाओले कोएलो उसे देख रहे होते तो समझ जाते कि...पूरे ब्रह्माण्ड को इस वक्त वो उसके समर्थन में षड़यंत्र करते महसूस कर रहा थाभौतिक विज्ञान ने अपने सिद्धांतों को उसके लिए स्थगित कर दिया और अब वो गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाता उड़ सकता था, दीवारों पर स्पाइडर मैन की तरह चिपक सकता था


लड़की अभी भी उसकी ओर देख रही थीवो उड़ा, ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों का आह्वान करताउस लड़की की ओर वो उसके छज्जे पर बैठ गया उसे पूर्णता का अहसास हो
रहा था और वो इस अहसास में अभी और जीना चाहता था कुछ देर और सही लड़की मेरा इंतज़ार और कर लेगी, उसने सोचा दुनियां के तमाम सुखद अहसासों को इकठ्ठा कर कुछ देर यूँ ही छज्जे पर बैठे रहने के बाद वो
खिड़की में अपना चेहरा ले आया। लड़की का ध्यान एक क्षण को भंग हुआ पर अगले ही क्षण लड़की उससे नज़रें हटाकर फिर उसकी खिड़की को देखने लगी. एकटक.



वो अब अपने घर की खिड़की में नहीं था पर लड़की अभी भी खिड़की को ही देख रही थी

photo courtesy- exfordy

Friday, November 6, 2009

कोरस में असंगत


दुःस्वप्न उसकी उम्मीद से ज्यादा वास्तविक थे
वे तमाम हॉलीवुड मूवी चैनलों और
हॉरर धारावाहिकों की तरह रोज़ दीखते
और कुछ फीट के फासले पर
घटित होते थे
जिन्हें देखने के लिए रात और नींद का
इंतज़ार नहीं करना पड़ता था
पर हाँ रात और नींद में
कुछ अधिक तीव्रता से
मायावी प्रभाव के साथ
उपस्थित होते थे
स्कूटर पर लदे दिन में जबकि
देर तक मंद और घातक असर से युक्त।

दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
सुबह की चाय ही रहती थी
या यूँ कहें कि
उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
रहा करती थी
जो प्याली के साथ ही
रीत जाया करती थी

इसके बरक्स
उम्मीद
किसी रेगिस्तानी कसबे में
अरब सागर की
किसी लहर के इंतज़ार की तरह
क्षीण और दूरस्थ थी
या अखबार के परिशिष्ट की
बिना हवाले वाली अपुष्ट ख़बर की तरह अवास्तविक
जो अमेरिका द्वारा
तीसरी दुनिया की भूख के
जादुई डिब्बाबंद समाधान की शोध के
अन्तिम चरण में होने की
बात करती थी

असल में ये एक बीमारी थी
जिसके इलाज़ की ज़रूरत थी
वरना क्या वज़ह थी कि
दुनिया के विज्ञापक नमूने
हर वक्त रौशनी को
परावर्तित करते थे
टीवी के सैकड़ों चैनल
जिनमे न्यूज़ चैनल भी शामिल थे
तत्पर थे उसके मनोरंजन को
शहर के होटल चौबीस घंटे
परोसते थे खाना
और उपभोक्ता सेवा केन्द्र
टेलीफोन की एक घंटी पर
दौड़ पड़ते उसकी ओर।

शोर भी यही है कि
दुनिया बनी हुई है इन दिनों
उम्मीद की राजधानी
फ़िर उसका दम
क्यों घुट रहा है

( photo courtesy- wiros )