Thursday, December 17, 2009

प्रेमी वैम्पायर के बहाने प्रेम पर कुछ बिखरा सा


इन दिनों दो फ़िल्में देखी। सीक्वल।पहली थी ट्वाईलाईट जिसकी डीवीडी मुझे एक सहकर्मी मित्र ने दी जिनका बेटा हाल ही में विदेश से लौटा था। और दूसरी थी न्यू मून जिसे मैंने शहर के सिनेमा हॉल में देखी। मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्में नहीं देखता और हौलीवुड की तो और भी कम पर जब ट्वाईलाईट को देखने का मौका नसीब हो ही गया औरउसके कुछ ही दिन बाद दीवारों पर इसकी सीक्वल 'न्यू मून' के पोस्टर देखे तो मन बना लिया कि इसके लिए हॉल में जाया जाये। कहानी के मूल में प्रेम कथा है पर प्रेमी वैम्पायर है यानी एक पिशाच। इसे कम खौफनाक और गले उतरने लायक बनाने के लिए उसे इंसानी खून से परहेज़ करने वाला बताया गया है और लगभग त्रिकोण बनाता एक वेरवुल्फ भी है जो भेड़िये में कायांतरित हो जाता है। खैर मैं इनकी कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा हूँ पर शायद इतना ज़रूरी था। यहाँ एक लड़की जो नश्वर इंसान है उसे एक पिशाच से प्रेम हो जाता है। इन दोनों फिल्मों का आधार इन्हीं नामों वाली किताबें है जिनकी कथा को लगभग वैसा का वैसा ही इस्तेमाल किया गया है।

इस तरह के पात्रों को लेकर फिल्मे खूब बनी है और बन रही है, पर इन दो फिल्मों के ज़रिये मैं अपने ग्रे मैटर की ताज़ा हलचल को आपके साथ बांटना चाहता हूँ। मामला इन फिल्मों का नहीं प्रेम का है जिसके बारे में इतना पढ़ लिया पर अपनी याद में इसका अक्स शुभ ही बना रहा। पहली बार शायद मनहूसियत के प्रतीकों को इसके साथ जुड़ता देखा है। वैसे तो वैम्पायर को वासना और शाश्वत तृष्णा के 'अशुभंकर' के रूप में लिया गया है पर यहाँ मामला निश्छल प्रेम का है। जिसे हम निर्मल और शुभ मानते आये हैं। इसमें प्रेम सिर्फ प्रेम है किसी चौहद्दी से बंधा नहीं। अपनी सीमाएं खुद बांधता या अपनी सीमाएं खुद लांघता। उन्हें अपने तरीके से विस्तार देता।
पिशाच का लड़की से प्रेम इतना वास्तविक है कि आपका उसके हक़ में बने रहने का मन करता है। वो बेहद सुंदर है जिसने यौवन को अपनी कोशाओं में बाँध लिया है। ११७ साल की उम्र में भी और जाने कितनी शताब्दियाँ और तलक। वो मृत्यु से परे है या कहें कि अमर होने को अभिशप्त है। और पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके। तमाम क्रिस्तानी नैतिकताएं उसे बाँध नहीं पाती। वो नागर से आरण्यक हो जाना चाहती है। जीवन और मृत्यु दोनों उसे नहीं लुभाते और वो हमेशा असमाप्त प्यास का वरण करती है।

यहीं पर हम फिल्मों और उसमें प्रयुक्त मिथकों को छोड़ते हैं। प्रेम की एनौटमी पर एक रौशनी या अँधेरा फेंकती है ये फिल्म। प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है। ये शुभ-अशुभ से उदासीन है, इनके आड़े नहीं आता। असल में ये इसके क्षेत्र में नहीं आते। ये आदिम है। मौल या खोह कहीं भी पनप सकता है।
रात के अंधकार को गाढ़ा करती चमकती आँखों वाले किसी पशु की तरह इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने मौलिक रूप में इसमें मानवीय जैसा कुछ नहीं। बल्कि अपने चरम रूप में समान पाशविक सुख की कौंध इसमें निहित रहती है।
ये कतई ज़रूरी नहीं कि ये विश्लेषण इन दो फिल्मों को देखने का ही नतीज़ा हो पर इनको देखकर कुछ क्षैतिज चिंतन का अवकाश मिला और परवर्ती मंथन से ऊपर तैर आये झाग में इनकी कहानी गंध रूप में शायद विद्यमान हैं।

भूत बचपन के किस्सों का मुख्य पात्र रहा है पर उसमें मानवीय समाज से बाहर जाने की ताकत नहीं थी और अक्सर वो विदूषक की भूमिका में ही अवशिष्ट रह जाता था। जबकि फिल्मों के ये पात्र महासागरों की प्यास और पृथ्वी निगलने की भूख लिए आते हैं। इन्हें देखकर मनहूसियत तारी होने लगती है। पर प्रेम की ऊतक-संरचना को ये एक अजीब सी बैंगनी चमक प्रदान करते है।

(चित्र विकिपीडिया से साभार)

Tuesday, November 17, 2009

दुनिया या प्रेम में खुलती खिड़की

डाकिया आज भी उसे कायदे से नहीं जान पाया था भले ही इस महल्ले में वो पिछले कई सालों से रह रहा था ये बात अलग थी कि आज डाकिया ख़ुद अपनी पहचान के संकट से गुज़र रहा था अपने घर में भी
दोस्त लोग उसके इतने कम थे कि ख़ुद को दिलासा देने के लिए वो दुआ सलाम वालों को भी दोस्तों में शुमार कर लिया करता था उसकी विनम्र-गीता के अनुसार-"वाहनों में साइकल,जानवरों में बकरी,पक्षियों में कबूतर वो ही था भाषाओं में हिन्दी,मुल्कों में फिलिस्तीन,और बाजीगरों में तमाशबीन वो ही था"
कुल मिलाकर इंसानों में बंसीलाल वो ही था उसकी उपस्थिति इस दुनिया में इतनी ही स्थूल थी कि वो था और इतनी सूक्ष्म कि वो था इसका पता लगाना भी मुश्किल था उसे अक्सर लाइनों में पीछे खड़े देखा जा सकता था और उसका नम्बर लाइन के ख़त्म होने से ही पता था


घर में वो चार भाइयों में तीसरा था सबसे बड़ा छोटा इतना छोटा भी नहीं कि सबका लाडला हो सके और इतना बड़ा भी नही कि जिम्मेदार माना जा सके कद उसका दरम्याना था कांस्टेबल जैसे रसूखदार ओहदे के लिहाज़ से छोटा और घर में रखी मिठाई चुराने के लिहाज़ से काफ़ी बड़ा


उसे लगा कि इस दुनिया के माफिक उसे नही बनाया गया है घर में थोडी ऊंची खिड़की की और पीठ करके वो काफ़ी देर ऐसा ही कुछ सोच रहा था इसी सोच में वो घर के पर्यावरण से हो रही बोरियत से ऊबा खिड़की की और घूमा तो उसका मुंह फटा का फटा रह गयाउसके घर की खिड़की को समभाव से देखती सामने वाले घर की खिड़की में उसके सपनों की रानी खड़ी थी मतलब एक बार का उसने ऐसा ही सोचा सोचने पर फिलहाल कोई ख़ास पाबंदी नही थी, कम से कम उसके जैसा निरापद सोचने में उसे लगा लड़की उसकी ओर ही देख रही थी ज़िन्दगी में पहली बार कोई उसे इतनी देर से देख रहा था वरना वो तो लोगों के दृष्टि-परास में ही नहीं आता था

जान तो गया था वो कि लड़की वही है जिस पर महल्ले के लड़के देर तक चर्चाएँ करते थे और कुछ लड़कों के साथ नाम भी उछाला गया था पर बंसीलाल उस लिस्ट में तो क्या उसकी हजारवीं वेटिंग लिस्ट में भी नही हो सकता फ़िर ऐसा क्या था कि वो लड़की जाने कब से उसे ही देखे जा रही थी,उसने सोचा वैसे उसका मन तो हुआ कि वो 'देखे जा रही थी' की जगह 'घूरे जा रही थी' का इस्तेमाल करे पर फिलहाल इतना ठीक थाइस पर आगे और शोध की गुंजाइश थी

उसने फ़िर से खिड़की की तरफ़ देखा, लड़की बदस्तूर उसकी ओर देखे जा रही थी
"जीसस क्राइस्ट" उसके मुंह से निकला. ये उसके किसी चैनल पर विदेशी फिल्मों के देखने का प्रभाव था जो धीरे धीरे उसके रिफ्लेक्स सिस्टम में घुसता जा रहा था परिणामस्वरूप उसकी स्वतः प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट हो रहा था
उसने बड़े से आईने में ख़ुद को देखा क्या उसमें ऐसा हो सकता था जो महल्ले की सबसे सुंदर लड़की को उसकी ओर देखने को बाध्य कर रहा था उसकी नाक कुछ कुछ ग्रीक देवताओं की तरह थी उसने ऐसा मानना शुरू कर दिया उसने कई बार मांसल और पुष्ट मूर्ति शिल्प में ढले ग्रीक देवों के शरीर देखे थे और उसने निष्कर्ष निकाला कि उनकी नाक कुछ कुछ वैसी ही थी जैसी उसकी है बाकी उनकी चट्टानी मांसलता से उसकी देह-यष्टि का कोई साम्य नहीं था
पर्याप्त है एक खूबसूरत नाक जो किसी नवयौवना में देह-राग छेड़ दे वो सोचे जा रहा था अब तक घर में उसका सम्मान जिस एकमात्र गुण के कारण होता था वो था मंडी से कच्ची भिन्डियाँ छाँट लाने का उसका हुनर अब लगता है कि उसके चेहरे पर सजी मूंछे जिस स्टाइल में थी वो अनायास नहीं था, बिल्कुल क्षैतिज रखी दो कच्ची भिन्डियाँ पर यहाँ उसके भिन्डी-विशेषज्ञ और भिन्डी-प्रेमी होने का कोई मूल्य नही था यहाँ उसे उसकी नाक पर गर्व हो रहा था जो, जीव विज्ञान की भाषा में कहें तो,एक मादा को 'वू' करने का सशक्त हथियार बन गया था


विचारों में डूबा बंसीलाल शोध को भूल कर अब ये मान चुका था कि कन्या उसे खिड़की से देख नहीं घूर ही रही थी हर रोज़ अपूर्णता के ख्याल से त्रस्त वो आज पहली बार अपने स्व को प्यार कर रहा था एक अनजानी शक्ति को वो अपने भीतर सोख रहा थापाओले कोएलो उसे देख रहे होते तो समझ जाते कि...पूरे ब्रह्माण्ड को इस वक्त वो उसके समर्थन में षड़यंत्र करते महसूस कर रहा थाभौतिक विज्ञान ने अपने सिद्धांतों को उसके लिए स्थगित कर दिया और अब वो गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाता उड़ सकता था, दीवारों पर स्पाइडर मैन की तरह चिपक सकता था


लड़की अभी भी उसकी ओर देख रही थीवो उड़ा, ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों का आह्वान करताउस लड़की की ओर वो उसके छज्जे पर बैठ गया उसे पूर्णता का अहसास हो
रहा था और वो इस अहसास में अभी और जीना चाहता था कुछ देर और सही लड़की मेरा इंतज़ार और कर लेगी, उसने सोचा दुनियां के तमाम सुखद अहसासों को इकठ्ठा कर कुछ देर यूँ ही छज्जे पर बैठे रहने के बाद वो
खिड़की में अपना चेहरा ले आया। लड़की का ध्यान एक क्षण को भंग हुआ पर अगले ही क्षण लड़की उससे नज़रें हटाकर फिर उसकी खिड़की को देखने लगी. एकटक.



वो अब अपने घर की खिड़की में नहीं था पर लड़की अभी भी खिड़की को ही देख रही थी

photo courtesy- exfordy

Friday, November 6, 2009

कोरस में असंगत


दुःस्वप्न उसकी उम्मीद से ज्यादा वास्तविक थे
वे तमाम हॉलीवुड मूवी चैनलों और
हॉरर धारावाहिकों की तरह रोज़ दीखते
और कुछ फीट के फासले पर
घटित होते थे
जिन्हें देखने के लिए रात और नींद का
इंतज़ार नहीं करना पड़ता था
पर हाँ रात और नींद में
कुछ अधिक तीव्रता से
मायावी प्रभाव के साथ
उपस्थित होते थे
स्कूटर पर लदे दिन में जबकि
देर तक मंद और घातक असर से युक्त।

दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
सुबह की चाय ही रहती थी
या यूँ कहें कि
उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
रहा करती थी
जो प्याली के साथ ही
रीत जाया करती थी

इसके बरक्स
उम्मीद
किसी रेगिस्तानी कसबे में
अरब सागर की
किसी लहर के इंतज़ार की तरह
क्षीण और दूरस्थ थी
या अखबार के परिशिष्ट की
बिना हवाले वाली अपुष्ट ख़बर की तरह अवास्तविक
जो अमेरिका द्वारा
तीसरी दुनिया की भूख के
जादुई डिब्बाबंद समाधान की शोध के
अन्तिम चरण में होने की
बात करती थी

असल में ये एक बीमारी थी
जिसके इलाज़ की ज़रूरत थी
वरना क्या वज़ह थी कि
दुनिया के विज्ञापक नमूने
हर वक्त रौशनी को
परावर्तित करते थे
टीवी के सैकड़ों चैनल
जिनमे न्यूज़ चैनल भी शामिल थे
तत्पर थे उसके मनोरंजन को
शहर के होटल चौबीस घंटे
परोसते थे खाना
और उपभोक्ता सेवा केन्द्र
टेलीफोन की एक घंटी पर
दौड़ पड़ते उसकी ओर।

शोर भी यही है कि
दुनिया बनी हुई है इन दिनों
उम्मीद की राजधानी
फ़िर उसका दम
क्यों घुट रहा है

( photo courtesy- wiros )

Monday, October 26, 2009

फ्रेम


एक भरी पूरी उम्र लेकर
दुनिया से विदा हुई दादी के बारे में
सोचता है उसका पोता
बड़े से फ्रेम में उसके चित्र को देखता।

विस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
बेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार घटने का।

अनगिन बार सुना है जिसने
समाप्त हो चुकी पक्षी प्रजातियों का कलरव
बहुत से ऐसे वाद्यों का संगीत
जो अब धूल खाए संग्रहालय की
कम चर्चित दीर्घा में पड़े हैं
या हैं जो किसी घर की भखारी में
पुराने बर्तनों के पीछे ठुंसे हुए।

देखा है जिसने
शहर के ऐतिहासिक तालाब को
चुनिन्दा अच्छी बारिशों में लबालब होते
फ़िर बेकार किए जाते
अंततः कंक्रीट से पाटे जाते।

देखा
है जिसने
घर के सामने
खेजड़ी को हरा होते और सूखते
अन्तिम बार हुए
किसी लोकनाट्य के रात भर चले मंचन को भी।

कितने ही लोक संस्करण बोले हैं
इसने राम कथा और महाभारत के
जिन्हें उनके शास्त्रीय रूपों में
कभी जगह नहीं दी गई।
बताती थीं वो
कि पांडवों का अज्ञात वास
उसके पीहर के गाँव में ही हुआ था
जहाँ भीम के भरपेट खाने लायक
पीलू उपलब्ध थे
और अर्जुन ने वहीं सीखा था
ऊँट पर सवारी करना।

उसके हाथों ने, जो दिखाई नही दे रहे थे फोटो में
इतना जल सींचा था
जिनसे विश्व की समस्त नदीयों में
आ सकती थी बाढ़
कदम उसके इतनी बार
चल चुके थे इसी घर में
कि जिनसे की जा सकती थी
पृथ्वी की प्रदक्षिणा कई कई बार
इतनी सीढीयाँ वे चढ़ चुके थे घर की
कि जिनसे किए जा सकते थे कई
सफल एवरेस्ट अभियान
और इतनी दफा वे उतर चुके थे
घर के तहखाने में
जो पर्याप्त था
महासागरों के तल खंगालने को।

यद्यपि मृत्यु से पहले
सवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।

photo courtesy- suessmichael

Thursday, October 22, 2009

वे दिन और पहली बार प्रेम जैसा कुछ


वे बेकार पड़े टायरों में उकडू फंस कर
लुढ़कने और दुनिया को
तेज़ गोल घूमते देखने के दिन थे.
किसी दोस्त की एक सक्षम लात से
चोट खाकर लुढ़कता था
किसी ट्रक का बेकार टायर
अपने में कैद एक लड़के को
हर एंगल से दुनिया दिखाता.
और यूँ तय होता था
टीले की ऊंचाई से सम्हालने लायक ढलान का सफ़र

वे खेलने,खेल में अक्सर हारने और
कभी कभी जीतने के दिन थे.
वे दादा टाइप लड़कों से
मार खाने के दिन थे.
सिर्फ एक ही उम्मीद तब बची रहती कि
पराजितों का भी कभी
बेहतर इतिहास ज़रूर लिखा जाएगा.
और एक संतोष इस विचार से मादकता में बदलता कि
ये लोग भी आखिर
खंगार जी,किशन जी या लाल जी माड़साब से
पिटते हैं आये दिन
यहाँ तक कि
शांता बेन्जी भी सख्ती से कान उमेठती है इनके.

वे देर शाम तक
महल्ले में खेलने के सरफिरे दिन थे.
शाम दिया बत्ती के बाद
घर के बंद किवाड़ उन दिनों
बाहर ही रहने का सरल और मज़बूत सन्देश देते
और हमारी विचित्र ढीठता
दीवारें फांद फांद कर हमें घर लौटाती
जेब खर्च के लिए पैसों की
लम्बी जिद भी बेकार नहीं थी
वे दुनिया को दस पैसे में
खरीदने के दिन थे.

वे जटिल और तीव्र संचार से विहीन
किन्तु बेहतर संवाद के दिन थे.
वे गुड़ के,रेडियो के,झडबेरी के,
बड़बोट के,दौड़ने के,सुस्ताने के,
हंसने के,खुश होने के दिन थे.
वे भारत को रेडियो पर
पहला वर्ल्ड चैम्पियन बनते देखने के दिन थे.

और
वे कुछ सरल रेखाओं में
गतिमान लगते समय में
पहली बार गहरे,तेज़ गोल घूमते
और घुमाते
प्यार जैसी तीव्र अनुभूति के वर्तुल में
डूब जाने के दिन थे.
वे ये याद दिलाने के दिन थे कि
बच्चू! हर चीज़ सिर्फ खुश करने वाली नहीं होती.
मिसाल ही समझें इसे कि
ऐसी ही किसी वज़ह से
गुमसुम से घर बैठे होते
जब नज़रें
दूर विस्तार तक छतें लाँघ कर थक चुकी होतीं
और घर वाले सोचते
आज फिर कहीं से
पिट कर आया है.

(photo courtesy-subharnab)

Monday, October 12, 2009

योद्धा (कविता)


वो एक शानदार योद्धा था।
मिटटी के अखाडे में उसका
दर्प कभी खंडित नहीं हुआ था।
पहलवानों की गुरु शिष्य परम्परा में
अपनी तरह का अकेला ही
आया था वो।

चौंधियाते
क्रिकेट मैदानों से बहुत दूर
अखाडे के धूसर कोनों का लड़ाका
अपनी सत्ता के महज कुछ क़दमों से नापे जा सकने वाले
दंगल-मैदान के अलावा
खानदानी हकीम-वैद्यों के चल- तम्बुओं पर
किसी फोटो में टंगा,भुजाओं के प्रसार में
मांसपेशियों के बल को दिखाता और
छलावे पौरुष की
हिमालयी रामबाण खरीदने का आग्रह करता था।
इतना हीविस्तार था उसका
खेल उसके लिए वो था
जो अखाडे में खेला जाता था
नियमों की मर्यादा से आबद्ध
अनजान था वो कि
बाहर दुनियादारी के खेल
बिना नियमों के ही
खेले जाते थे

अपनी लड़ाई वो अखाडे में ही
समाप्त करना चाहता था
जीत या हार के किसी भी भाव से मुक्त होकर
पर अंततः घर में ही घर की लड़ाई हार बैठा
और यूँ मिटटी के चौकोर अखाडे का सफल योद्धा
एक विफल बाप पति और बेटा साबित हुआ।

पिछले
कुछ समय से
अखाडे में वो घंटों अकेला बैठा रहता
किसी अन्तिम बची शरणस्थली में जैसे कोई बाघ
निरंतर नश्वर होने के बोध से ग्रस्त
एक हारी हुई लड़ाई के
किसी भी क्षण आने वाले
परिणाम की कातर प्रतीक्षा में।

एक शानदार योद्धा की तरह
आखिर वो भी डरता था
मैदान के बाहर
बिना नियमों से लड़ी जाने वाली
लड़ाई में मिलने वाली हार से।

( photo courtesy-wikimedia )

Thursday, September 17, 2009

एक तनाव भरे रोमांच की तलाश में

ठीक वो क्षण, जब बिच्छू अपना डंक शिकार में घोंपने ही वाला हो, या कोई बेस जम्पर किसी ऊंची इमारत से कूदने के लिए अंतिम रूप से तैयार हो, जब प्राचीन यूनान में हजारों की भीड़ के मध्य एक ग्लेडिएटर बस अपना निर्णायक वार करने ही वाला हो, या फिर घात लगाए बैठा प्रेइंग मेंटिस शिकार पर झपटने से ठीक पहले की परम एकाग्रता में हो . चरम उत्तेजना का क्षण. जब एड्रीनलीन मिश्रित रक्त के तीव्र प्रवाह की घडी में शरीर मादक तरीके से ऐंठता है.

ऐसी ही ऐंठन की तलब लिए वो इंटरसिटी के बैठक कम्पार्टमेंट में अपने प्रिय लेखक का जासूसी उपन्यास लिए बैठा था.कल शाम ही बुक स्टाल से खरीदा था ये नया उपन्यास. रात को 'कलर्स' पर 'खतरों के खिलाडी' देखते देखते उसे लगा कि उसके शरीर में नकली उत्तेजना -भर का अहसास ही आ पाया है. तिलचट्टों और टेरेनटूला मकडियों से उसे उबकाई होने लगी और समंदर के नीले पानी में प्रतियोगियों की छलांगे किसी पूल में खराब डाइव को देखने से ज्यादा सुख नहीं दे पाई.बार बार उसका ध्यान सुंदरियों के शरीर सौष्ठव पर जा रहा था. "चैनल बदलो". उसके दिमाग ने हुक्म दिया और वो किसी न्यूज़ चैनल पर अटक गया.यहाँ एक अनसुलझे हत्याकांड पर महीनों बाद आये नए मोड़ पर उत्तेजना से भरा एंकर कुछ बता रहा था.
"हाँ, ये ठीक है". और वो घंटों एक ही खबर के रीसाइकल्ड संस्करण देखता देखता सो गया.

सुबह जल्दी वो अपने प्रिय लेखक के नए जासूसी उपन्यास के साथ इंटरसिटी में था.जयपुर तक का सफ़र पांच घंटों से ज्यादा का था और उसके हाथ में मोटे कलेवर का उपन्यास था. मुख्य पात्र इंस्पेक्टर विनोद शर्लक होम्स का अवतारी था. कोई भी मर्डर मिस्ट्री उसके चमत्कारी हाथों में आकर हमेशा के लिए मिस्ट्री नहीं रह सकती थी.पता नहीं कौन देश से आया था इंस्पेक्टर विनोद! नाम तो भारतीय लगता था. कत्ल के केस को क्रॉस वर्ड पज़ल की तरह हल कर देता था.कई बार तो बस चुटकियों में. पुलिस महकमे में ये आम धारणा थी कि किसी हत्याकांड की जांच का जिम्मा इंस्पेक्टर विनोद के पास आ जाए तो हत्यारा पनाह ढूंढता था जो उसे कहीं मिलने वाली नहीं थी.

पर खैर असली मज़ा अंत में ' कातिल कौन'? का जवाब मिलने में था.पूरे नॉवल में कहानी हिचकोले खाती रोलर कोस्टर राइड का मज़ा देती थी.संभावित कातिल किसी मरहले पर खुद मकतूल बन जाता था. और आखिर में अविश्वसनीय रूप से हत्यारा वही होता जो पूरी किताब में एक विनम्र किरदार की भूमिका में अक्सर हाशिये पर बैठा होता.

उसने इंटरसिटी के रवाना होते ही उपन्यास के कवर नज़र डाली.खून के पूल में एक युवती की लाश, जिसके सीने में खंजर धंसा था. उसकी आँखे फटी हुई थी.ऊपर शीर्षक ड्रैकुला फोंट्स में था.कोने में 'नवीनतम उपन्यास' विशेष तरीके से उभारा गया था. लेखक का नाम कवर चित्र के नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था. उसके हाथों में हलकी झनझनाहट सी होने लगी थी.एक शानदार, 'अश्योर्ड' मिस्ट्री उसके हाथों में थी.उसने पिछले कवर पर लेखक के फोटोग्राफ को चूम लिया.ये उसका प्रिय उपन्यासकार था. सिर्फ वो ही नहीं कई और भी उसके दीवाने थे या रहा चुके थे. हालांकि टीवी के ज़रिये निरंतर लाइव छवियों की बमबारी ने इस तरह के शौक-ऐब के लिए वक़्त और स्पेस काफी कम कर दिया था पर वो कुछ पुरानी पीढी का था.और ख़ास बात ये थी कि उसे उत्तेजना की डोज़ चाहिए थी.

पटरियों पर लुढ़कते लोहे के पहिये लगभग नियमित लय की खटर-पटर के साथ लक्ष्य का फासला तय कर रहे थे.खिड़की से बाहर उसने नज़र डाली, एक अजीब सी शांति में परिदृश्य ठिठुरा हुआ था.एकमात्र गाड़ी ही जीवन की लय में बज रही थी.

उपन्यास में एक युवती की हत्या हो चुकी थी.इंस्पेक्टर विनोद घटना स्थल पर आ चुका था.
"सर, मामला हत्या का लगता है". कांस्टेबल बीरबल ने युवती की खून से सनी लाश देखकर कहा.
"हूँ"!! इंस्पेक्टर विनोद का दिमाग तेजी से पेरामीटर्स लोड कर रहा रहा.उसकी पेशानी पर इस वक़्त गहरी सलवटें पड़ रही थी जो इसी तरफ इशारा कर रही थी. ऐसे पात्रों की स्टीरियो टाइप छवि के मुताबिक ही उसने सिगरेट को विशेष अंदाज़ में सुलगाया और आवश्यक निर्देश देने लग गया.

ट्रेन किसी स्टेशन पर रुक गयी थी.रोजाना के कम्यूटर्स का रेला ट्रेन में वेग के साथ दाखिल हुआ.उसकी नज़र उपन्यास से हटकर सामने बैठे एक यात्री पर रुक गयी. खुरदरे चेहरे वाला ये शख्स उसे ठीक नहीं मालूम हुआ.पता नहीं क्यों वो उपन्यास में हुई हत्या के लिए उसे जिम्मेदार मानने लग गया.मध्यम कद के उस आदमी के चौडे कंधे इस काम के लिये ही बने हो सकते हैं, उसने सोचा. नज़रें मिलते ही उस खुरदरे चेहरे वाले ने एक औपचारिक मुस्कान उसकी तरफ बढा दी और बोला-
"यहाँ चाय अच्छी मिलती है, आप लेंगे?"
"न...नहीं शुक्रिया". वो इस दोस्ताना रवैये के लिए तैयार नहीं था.झेंप गया.

अब उसकी नज़र सामने खिड़की के पास बैठी एक लड़की पर गयी.लड़की कोई पत्रिका पढ़ रही थी. उसका ध्यान फिर से उपन्यास में लग गया.मृतका के पति की हत्या हो गयी थी. उसी पर युवती की हत्या का शक सबसे ज्यादा था.जयपुर अभी थोडा दूर था. उसका प्रिय लेखक फिर रोमांच लुटा रहा था. हत्यारे का सस्पेंस अभी बना हुआ था. ट्रेन के डिब्बे में एक अधेड़ आदमी को दिल का दौरा पड़ा था.उसके रोमांच का सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ था.वो डिब्बे में मची अफरा तफरी से अनजान बना रहा।

(photo courtesy-Roo Reynolds)

Sunday, August 23, 2009

घर गृहस्थी में धंसता एक पुराना प्रेम पत्र


" श्री गोपीवल्लभ विजयते"


बम्बोई
(तिथि अस्पष्ट)


प्यारी सुगना,
मधुर याद.
श्री कृष्ण कृपा से मैं यहाँ ठीक हूँ और तुम भी घर पर प्रभु कृपा से सानंद होंगी.मेरा मन तो बहुत कर रहा है कि पत्र के स्थान पर स्वयं उपस्थित हो जाऊं पर एक सेठ का मुनीम होना कितना ज़िम्मेदारी का काम है ये मैं पिछले देस-प्रवास में तुम्हे बता चुका हूँ. काम गाँव भर का और पगार धेला. वहीं सेठ के पास काम धेले का नहीं और माया अपार. वैसे अन्दर की बात ये है कि इस सेठ की नाव डूब रही है. मैं ये बात सेठजी को बता भी चुका हूँ पर लगता है मामला अब उनके बस का नहीं. देनदारियाँ भारी पड़ रही है.
ये मैं क्या बातें ले बैठा,पर बताना भी ज़रूरी है आखिर मुझे भी नई नौकरी तलाश करनी पड़ सकती है.कभी कभी सोचता हूँ सब छोड़ छाड़ के देस आ जाऊं.

यहाँ तो मैं लाल जिल्द वाली बही के पीले पन्नों में भी तुम्हारी छवि ही देखता हूँ,भगवान् झूठ न बुलवाए. पर दो ननदों, देवर शिवानन्द, सास,ससुर के साथ नैनू बेटे के भरे पूरे घर में रहते तुम्हे क्यों भला मेरी याद आएगी?
नैनू पहाडे सीख रहा होगा. पिताजी उसे डेढे और ढाईये भी अच्छे से याद करवा रहे होंगे. एक कामयाब मुनीम के लिए ये बहुत ज़रूरी है. मैंने भी बचपन में ये सब सीखा था.

इस बार यहाँ मेह इतना बरसा कि कांकरिया सेठ की पेढी डूबने के नौबत आ गयी थी पर वहां देस में छींटे-छिड्पर भी कहाँ!आदमी तो जैसे तैसे गुज़ारा कर ले पर गउओं का क्या होगा? भगवान् भलीस करेंगे.
पिताजी के मस्से ने उन्हें खूब परेशान कर रखा है. यहाँ एक आयुर्वेदिक दवा जानकारी में आई है, समय रहते भेज दूंगा. मां का स्वभाव थोडा तेज़ है पर तुम जानती हो वो शिवानन्द की चिंता में आधी हुई जाती है.मैं स्वयं शिवानन्द को लेकर बहुत आशंकित हूँ. भगवान् भलीस करेंगे, अगर वो पिताजी से विवाह-संस्कार विधि ही सीख लेता तो कोई संस्कारी परिवार अपनी कन्या देने आगे आ सकता था. आगे मर्ज़ी साँवलिए की.
बहनों की ज़्यादा चिंता फिकर नहीं है. गाय दुहना सीख गयी हैं,पापड बनाना भी सीख जायेंगी. तुम स्वयं इस विद्या में पारंगत होकर आई हो सो तुम्हारा ज्ञान उन्हें यहाँ उपलब्ध हो सकेगा.
और यहाँ सब ठीक है वहां मोहल्ले में भी सब बढ़िया ही चल रहा होगा.प्रभुलाल की औरतों के बीच पंचायती की आदत गयी नहीं होगी.क्या आदमी है! दिन रात औरतों के बीच. अब बुद्धि कहाँ से आएगी, बारह ही नहीं आई तो बत्तीस क्या आएगी.राह चलते औरतें भी दूसरी के बारे में उसी से पूछती है. महिलाओं का मुखबिर. और... वो दामोदर, वो आज भी लोगों के घरों में तांका झांकी करता होगा. सुबह हुई नहीं और घर की छत से लोगों के आँगन में झाँकने लग जाएगा. कुछ कहो तो झगडे पर उतारू. अब उससे कौन झगडा और निवेडा करे.खैर इन लोगों के बारे में बात न ही की जाय तो अच्छा. मंदिर में अपने घर की ओर से मनोरथ करवाया होगा इन दिनों. पुजारी वैसे तो कंजूस है प्रसाद देने में पर उसका तो क्या किया जा सकता है?उसको खाने दो.

और घर में काम ठीक ही चल रहा होगा अभी यहाँ भी पगार तीन महीनों की बाकी है.गोरकी गाय दूध ठीक दे रही होगी.मां की तरह उसका भी स्वभाव तेज़ है पर है तो गऊमाता ही.
चलो बहुत बातें हो गयी अब चिट्ठी यहीं समाप्त करता हूँ.और हाँ वो चित्रित किताब तुम्हारी शादी के वेश वाले बक्से में ही है न? किसी के हाथ न लग जाय. यहाँ बम्बोई में चारों तरफ पानी है देखता हूँ तुम्हे दिखा पाता हूँ कि नहीं.
सबको यथाजोग.

तुम्हारा
दीपचंद


( photo courtesy-Landahlauts )

Monday, August 10, 2009

पार्क


पार्क जितना हरा हो सकता था, था। जितना सुंदर हो सकता था, था। एक रंगीन फव्वारा बिल्कुल बीचोबीच। तरह तरह के फूल, मुस्कुराते।झूले,स्लाइड्स,बेंचें, बच्चे,बूढे,युवा,और माली।सब कुछ भरा भरा सा। पार्क शहर की गहमा गहमी के केन्द्र में टापू की तरह था।बाहर निकलते ही इसे सब तरफ़ से सड़कें घेर लेती थीं जिन पर बेहिसाब टैफिक दौड़ता था।पार्क के बाहर सब कुछ बहुत जल्दी में था। कोई नामालूम रेस सबको भगाए जा रही थी। और सब उसे पूरा करने की जल्दी में थे।

पार्क के अन्दर, ठीक विपरीत, बिल्कुल स्लो मोशन में सब कुछ चलता था। अगर कोई बाहर से पार्क में घुसे और झूला झूलते बच्चों को देखे तो उसे झूला अपनी स्वाभाविक लय से भी धीरे...काफ़ी धीरे उतरता दिखेगा।

पार्क के अंदर की दुनिया ईश्वर की डिजाइनर सृष्टि थी। फूलों की छटा एक विन्यास को बनाती थी। घास का कालीन जादुई लोक की राजकुमारी के बागीचे से लाया गया लगता था। कोमल, स्पर्श-संकोची।

सुबह एक बार जागने पर पार्क बुजुर्गों के स्वागत में तैयार रहता था। नौकरी से रिटायर्ड ये बुजुर्ग बेचैनी से रात काट कर कुछ ज़्यादा ही जल्दी सुबह होने की घोषणा कर देते। पार्क में आकर योगाचार्यों द्वारा बताये योग पर परस्पर चर्चा से आरोग्य के बहुत ऊंचे लगे फल को लपकने की कोशिश करते।

दैनिक अखबारों के परिशिष्ट पन्नों पर चिपकी स्वास्थ्य विषयक उलजलूल शोध रिपोर्टों को वेद वाक्यों की तरह सच मानते ये बुजुर्ग ज़िन्दगी की तनी रस्सी पर, प्रकट में बेपरवाह दीखते, भरसक सावधानी से चलते। इस वक्त बच्चों के झूले खाली पड़े रहते, अलबत्ता बेंचें आबाद होतीं। इन बेंचों पर कुछ देर , सच में बुजुर्ग ज़िन्दगी को हसरत भरी निगाहों से देखते और धूप के तीखा होने तक वहीं बैठे रहते। घर वापसी का सफर भारी कदमों से ही तय होता इनका।

दोपहर में पास के दफ्तरों से लंच में भागकर युवा सहकर्मी पार्क के गुमनाम कोनो को गरिमा प्रदान करते। दुनिया से ओट करते जवान लड़के और लडकियां बाहर के ताप से बचते बचाते यहाँ कुछ महफूज की तलाश में रहते। सामने तिरछी तरफ़ बेंच पर बैठा युगल पिछले कई दिनों से यहीं था। उधर पीछे बाएँ तरफ़ बैठा लड़का पुराने रिश्ते को ख़त्म कर नए रिश्ते की डोर मज़बूत कर रहा था। और वो उधर बैठी लड़की २ महीनों से अपनी हमेशा वाली जगह बैठी थी पर नए साथी के साथ। पार्क रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर इन सबकी मेज़बानी में जुटा था।

कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की? सबसे ज़ाहिर तो ये कि अशोक की भाषा मारवाडी लहजे से लदी हुई थी और प्रियांजना अंग्रेज़ी के महानगरीय संस्करण के साथ सहज थी। तो क्या भाषा भी एक वजह हो सकती है? शायद हाँ और शायद नही। बॉबी को गाडियां बदलने का शौक था और वो ऐसा आराम से कर सकता था। उसके पिता शहर के एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। लोग कहते थे हर नई गाड़ी के साथ उसकी दोस्तों की पसंद भी बदल जाती थी, प्रियांजना भी इस बात को जानती थी पर एक साथ जितना निभता रहे क्या बुरा है यही सोच थी उसकी।
रितेश और आनंदिता लंबे अरसे से यहाँ आ रहे थे, पार्क के अन्दर उनकी उम्मीदों के पार्क की तलाश में। फिलहाल पार्क ही उनके इस रिश्ते का घर बना हुआ था। यूँ दोपहर में पार्क अपने चटख रंगों के साथ सूर्य की रौशनी में चमचमाता था। तितलियाँ कुछ और चंचल हो जातीं,गिलहरियाँ पेड़ के कोटरों में लुका छिपी खेलती, परिंदों की आवाज़ गूँज मारती रहती।
शाम के समय बच्चों की फौज पार्क पर धावा बोलती और सभी झूलों पर कब्ज़ा कर लेती। स्लाइड पर बच्चों की फिसलन पार्क को गुदगुदाती मेरी-गो राउंड के साथ पार्क घूम जाता और सी-सा पर ऊपर से नीचे आने पर पार्क को एक मीठी सी झुरझुरी महसूस होती। पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता। उसके अन्दर का बच्चा निकल कर उन बच्चों में शामिल हो जाता। अपने मम्मी-पापा को छकाते बच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बेंच का सहारा ले लेते
रंगीन फव्वारे और रौशनी रात में पार्क के मिजाज को बदल देते। लोगों के चेहरों पर पीली और दूधिया रौशनी का परावर्तन ऐन्द्रजालिक प्रभाव उत्पन्न करता था। सब कुछ मायावी लगने लगता। लगता जैसे कोई भी सहजता से उड़कर आ सकता था और एक स्पार्कल के साथ गायब भी हो सकता था।
यहाँ लोगों के हाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं
(painting photo courtesy- catchesthelight)
Justify Full

Sunday, July 26, 2009

सुबह शाम की किताब


एक

आबादी यहाँ कई सालों से थी पीछे की पहाडियां ही इससे ज्यादा पुरानी थी बाकी कुँआ, पेड़, मन्दिर सब धीरे धीरे बनते रहे आदमी के पैर यहाँ सबसे पहले पड़े फ़िर कुआँ खुदा,घर बने पेड़ उगे और मन्दिर बना भगवान् तो हमेशा उनके बीच रहा होगा पर उसकी ज़रूरत सबसे बाद में महसूस हुई होगी यूँ मन्दिर भी अब तो खासा पुराना हो गया था उसकी पठियाल में कई लोगों ने अपने दिवंगतों की याद में राशि दान करने का सगर्व विवरण प्रस्तरों पर अंकित करवा रखा था
आबादी के इस घर के अन्दर अभी अभी एक दुल्हन आई है और दूल्हे के साथ उसकी पहली 'जात्रा'की तैयारियां चल रही है जात्रा सामने के चबूतरे पर ऊर्ध्व गडी शिला पर उत्कीर्ण एक मानव प्रतिमा की हो रही है जिसका रक्त वर के कुटुंब में दौड़ रहा है इस पूर्वज की मृत्यु का उल्लेख शिला पर पूरे विवरण के साथ अंकित है...घटि, पल, नक्षत्र, वार, संवत सहित कुटुंब के हर नवविवाहित को वधु के साथ उसके सम्मान में फेरी देनी होती है
पचास सौ सवा सौ या दो सौ सालों के गुज़र जाने के बाद भी पूर्वज की मृत्यु- उसके देवलोक गमन- की स्मृतियाँ आज भी प्रगाढ़ रूप में अपनी उपस्थिति को अंकित करवाती है
मृत्यु के कारणों में ज़्यादा संभावना तो चेचक की लगती है, पर शायद प्लेग भी हो सकता है कुछ कम संभावना गायों के लिए डकैतों से संघर्ष में जान गंवाने की भी है परिवार के लिए कारण की प्रकृति स्मृति को धुंधलाने में बाधा नही बनती यह पूर्वज पौरुष का प्रतीक हो चुका हैं उसकी मृत्यु तिथि वार नक्षत्रों की सटीकताओं के साथ रह रह कर स्मृति में प्रकट होती हैं वह कुटुंब की महिलाओं के करुणगान में लौटती है वह सम्मान में झुके नव दंपत्ति के लिए आशीष बन कर व्यापती है
उस पूर्वज की स्मृति अनिष्ट की आशंकाओं में, कुछ कुछ भय के साथ भी दबे पाँव प्रवेश करती है

दो

चबूतरे के सामने अपने घर में, अधिकांशतः बाहर ही बैठे, समय को निरपेक्ष- निरर्थक भाव से गुज़रते देखती है एक वृद्धा अपने ही घर में निरी अकेली सी कभी जिसके सदानीरा वात्सल्य में तीन बेटों की माँ होने का दर्प दौड़ता था, आज, कभी उस वात्सल्य का सगर्व भार उठाती, उसकी छातियाँ सूखे काष्ठ में बदल चुकी हैं
दो बेटे परदेस में हैं जहाँ उसके लिए जगह नहीं है, तीसरा नशे और ऊटपटांग दवाईयों के बीच अपना अस्तित्व ही खो चुका है बुढिया की ज़िन्दगी की शाम तो कब की ढल चुकी, आज सुबह की शाम अब आई हैमुहल्ले की ही एक और गली में उसका पीहर है यूँ इस उम्र में तो पीहर लोकगीतों में भी याद नहीं आता पर वृद्धा को सिर्फ़ वही याद आता है जहाँ उसका उससे भी उम्रदराज़ सगा भाई शाम होते होते एक बार फ़िर बेचैन है वह रसोई की टोकरी से कुछ टमाटर अपने कमीज़ में छुपाता, बहुओं के कोप से बचता, अपने कमज़ोर क़दमों को मजबूती से बढाता बहन के घर को रवाना होता है सोचते हुए कि शायद कुछ सब्जी जैसा बना लेगी इन क़दमों में कमजोरी तो थी,भटकाव कहीं नुमाया नहीं था
मृत्यु की प्रगाढ़ स्मृतियों में भी जीवन का ये चरम उत्सव था

( photo courtesy-freeparking )

Saturday, July 18, 2009

एक छलाँग भर दूर है ये फासला

मेरा इनसे रिश्ता तेरह साल पहले कहीं जाकर जुड़ता था। उसके बाद के इन सालों में इस रिश्ते को कई मुलाकातों से होकर और बड़ा होना था ख़ास कर तब जबकि पिछले आठ सालों से मैं इन्हीं के शहर में था। पता नहीं ऐसा क्या था कि आज से पहले मेरा इनसे सिर्फ़ एक ही बार मिलना हुआ था और ये आंकडा एक पर ही अटक गया।
१९९५ में मैं जैसलमेर में नौकरी कर रहा था। नई नई ही थी नौकरी। लगभग घर जैसा ही था जैसलमेर। भाषा, माहौल और लोग। एक जैसे। घर था बाड़मेर में और मैं था जैसलमेर में। फासला भी बहुत ज़्यादा नहीं। एक सुस्ताते शहर से दूसरे अलसाए में। इन की निद्राएं सदियों में टूटती थी।उन दिनों भी जागने को तैयार नहीं थे ये शहर।
उन्ही दिनों एक कहानी लिखने की कोशिश की थी। और आख़िर कुछ पन्नों में उसे समेट कर पहले हंस पत्रिका को भिजवाया।वापसी का लिफाफा इतना जल्द वापस आया कि लगा जैसे डाक विभाग ने ही अपने स्तर पर उस कहानी को खारिज कर दिया था। हार नहीं मान कर, उस कहानी को फ़िर से छोट मोटे परिवर्तनों के साथ फ़िर लिखकर इस बार 'चर्चा' पत्रिका के लिए सम्पादक योगेन्द्र दवे को भेज दिया। कुछ दिन बाद डाक से एक पत्र आया जिसमे योगेन्द्र जी ने कहानी की तारीफ करते हुए इसे 'चर्चा' के अगले ही अंक में छापने की बात कही। मेरे लिए ये उत्सव मनाने का अवसर था। चर्चा पत्रिका उन दिनों जोधपुर से छपने वाली एक प्रतिष्टित पत्रिका थी जिसे योगेन्द्र दवे अपने नितांत निजी प्रयासों से अनियमित रूप से निकालते थे।
इस बात को छः महीने गुज़र गए। पत्रिका का अंक आ नहीं रहा था। एक दिन जोधपुर पहुँच ही गया और अपने भाई साहब जो जोधपुर में ही रहते थे को लेकर योगेन्द्र जी के घर दरवाजा खटखटाने लगा। योगेन्द्र जी से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी।
एक दूसरे शहर से जोधपुर की इस कदीम, भूल भुलैयानुमा बसाहट में मिलने आए, इस छोरे से दिखने वाले युवक से योगेन्द्र जी जिस आत्मीयता से मिले उसका प्रभाव स्थाई था। योगेन्द्र जी का व्यक्तित्व सरल और सहज था। कोई भी उनसे दोस्ती कर सकता था। ख़ुद उनकी कई किताबे आ चुकी थी और बच्चो के लिए उनका अपना मौलिक- काम था। एक लेखक के तौर पर उनका अवदान महत्वपूर्ण गिना जा चुका था।
जब मैंने पत्रिका के प्रकाशन में देरी के विषय में पूछा तो उन्होंने उन्ही कुछ दिक्कतों के बारे में बताया जो लघुपत्रिका चलाने में आमतौर पर आती आई हैं। कुल मिलाकर पत्रिका अब सिर्फ़ योगेन्द्र दवे के एकल प्रयासों पर ही टिकी थी।
खैर, पत्रिका का वो अंक असंख्य पन्नों के रूप में उनके घर में ही पड़ा था जिसे बाईंड होना था।
मैं वहाँ से लौटा तो फ़िर से उत्साहित था। हालांकि अंक अंततः मेरे हाथ में कोई महीने दो महीने बाद ही आ पाया था।
सन २००१ में मैं जोधपुर आ गया था और अभी तक यहीं टिका हुआ हूँ। इस बीच चर्चा पत्रिका बंद हो चुकी थी। एक लेखक के रूप में अभी भी मेरे पास चर्चा में छपी कहानी ही एक बड़ी पूँजी है। ब्लॉग में लिखने से इस पूँजी का विस्तार हुआ है ऐसा भी मानता हूँ। जोधपुर आने के इन आठ सालों में मैं योगेन्द्र जी से कभी नहीं मिला। उनके बारे में भी सुना था कि आजकल वे लिखते नहीं। रेडियो में, जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ भी इन सालों वे कभी आए नही अन्यथा यहाँ उनके पहले के लिखे कई नाटक आज भी टेप्स में सुरक्षित है। कई बार उनसे मिलने के बारे में सोचा पर आख़िर अनिच्छा हावी हो जाती। एक ही शहर में रहते हुए न मिलना शायद आज उतना आर्श्चय न लगे पर इसे दोष मेरा ही माना जाएगा। उनका पता उनके नाम के अलावा सिर्फ़ दो शब्दों का था। फ़ोन भी किया जा सकता था। शहर अभी भी बहुत बड़ा हुआ नही था। फ़िर भी.....
पर एक दिन, इन्हीं दिनों
हंस पत्रिका के जुलाई अंक में उनकी लघुकथा देखी तो महसूस हुआ कि समय चाहे जितना च्युंग गम की तरह खिंच जाय इसकी आरंभिक मिठास होठों पर बनी रहती है। मुझे लगा मैं आज भी योगेन्द्र जी से उतनी ही सहजता से मिल सकता हूँ।पर अभी भी शायद, मिलने की उम्मीद से ज्यादा, ये खुशी उन्हें एक लेखक के रूप में वापस देखने की थी।

Thursday, July 2, 2009

क़स्बे में प्रेम- कुछ चित्र

एक
जटा शंकर जी का घर क़स्बे के इस पुराने मोहल्ले में सबसे ग़लत जगह पर था। एक अत्यन्त जटिल ज्यामितीय संरचना में बसे पुराने घरों की जमावट असंख्य वीथीयों की दुरूह प्रणाली का निर्माण करती थी। कोई गली खूब अन्दर तक जाकर किसी घर में गुम हो जाती तो कोई किसी चबूतरे पर तमाखू से दांत रगड़ती वृद्धा के पैरों तले विलीन हो जाती, और कोई अंततःक़स्बे के किसी मुख्य चौराहे पर दम तोड़ती।
जटाशंकर जी का घर इस मोहल्ले में ग़लत जगह फंसा हुआ था जिसने उनके प्रेम के आरम्भ को ही असंभव बना डाला था। उनके घर में कोई वास्तु दोष नहीं था बल्कि गृह-स्थिति और सामाजिक नियमों की संगति उनके प्रेम को असंभव बना रही थी। उनके घर से लगते और उसके पीछे के सारे मकान सगोत्रियों के थे,घर से आगे बाएँ तरफ समाज का सामुदायिक भवन था जहाँ पंचों का डेरा रहता था,आगे दाएँ तरफ़ के तीन घरों में प्रेम संभव था क्योंकि यहाँ अलग गोत्र वाले बिराजते थे पर यहाँ उनकी हम उम्र कन्या का जन्म ही नहीं हुआ और घर के ठीक सामने की गली में जटा शंकर जी का ननिहाल था जहाँ वे पैदा हुए थे।
तो यों इस मोहल्ले में भू-सामाजिक कारणों से जटाशंकर जी प्रेम ही नहीं कर पाये। उनके कदम इस मोहल्ले से बाहर उनकी २० की उम्र में पड़े जो रोज़गार की तलाश में किसी सेठ की पेढी पर सर टेकने पर ही रुके। सर, उसके बाद, उनके बुढापे तक उस पेढी से ऊंचा ही नहीं उठ पाया।
दो
बाहर से नौकरी करने इस क़स्बे में आए उस युवक ने मोहल्ले की तरफ़ जाने वाली गली के नुक्कड़ और मुख्य सड़क पर स्थित 'पुरोहित भोजनालय' के बाहर उस लड़की का इंतज़ार शुरू कर दिया जो टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से उधर आने वाली थी,हमेशा की तरह। लड़की के आते ही वो उसे कनखियों से देखता था ताकि लोग उसके मन की थाह न ले सके। लड़की भी नहीं। पुरोहित की दाल आज अतिरिक्त तीखी थी जिसे वो प्रतीक्षा के कारण भरसक नज़रंदाज़ कर रहा था। पानी पीने के चक्कर में लड़की वहाँ से गुज़र कर गली में चली गई तो....
उसके आने की धमक वो कोसों दूर से सुन सकता था। ये एक अजीब बेचैनी थी। तभी दो चीज़ें एक साथ हुई। लड़की उसे आती दिखी और सड़क पर विदेशी युगल भी उस ओर बढ़ते दिखे। उस युगल ने माहौल को एक exotic touch दे दिया। उस युवक का ध्यान लड़की पर ही एकाग्र होता पर अचानक उस युगल ने बीच सड़क पर एक दूसरे को चूमना शुरू कर दिया। इसे देख लड़की भी हलके से ठिठकी। युवक ने लड़की की ओर देखा तो लड़की के होंठों पर अत्यन्त सूक्ष्म डिग्री की मुस्कान आ गई। लड़की उसके वहाँ खड़े होने के मंतव्य को समझती थी शायद।
तीन
पिचासीवें साल की उम्र में जटाशंकर जी उसी क़स्बे में, उसी मोहल्ले में, उसी घर में दुबारा थे। आज वे मृत्यु शैया पर थे। कई दिनों से खाना बंद था। प्राण उनके शरीर से सिर्फ़ क्षीण पकड़ द्वारा ही चिपका था। शायद प्राण बाहर निकलने का कोई मुहूर्त ही ढूंढ रहा था। वे इस जन्म में प्रेम नहीं कर पाये थे। घर के लोग कई बार उन्हें खाट से नीचे भूमि पर सुला चुके थे पर चेतना का दिया बुझने में ज़रूरत से ज्यादा समय लगा रहा था।
कोई घर में बात कर रहा था कि मोहल्ले का लड़का क़स्बे की किसी लड़की के साथ भाग गया था, अब दोनों के घरवाले राज़ी होकर उनकी शादी की तैयारियां कर रहे थे।
जटा शंकर जी के प्राण ठीक इसी वक्त मुक्त हुए।
चार
सदियों पहले जिस लड़की के लिए सिंध का राजकुमार अपने ऊँट पर यहाँ आता था। वो शादीशुदा था पर उस लड़की की एक झलक ने उसके मस्तिष्क में जो तूफ़ान खड़ा किया उससे गृहस्थी के सारे धर्म पानी मांगने लगे। उस कथा के अंत से ज़्यादा महत्व पूर्ण उस कथा के घटने में था।
आज भी इसी क़स्बे में उस लड़की के घर के खंडहर मौजूद थे। कोई पगडण्डी , कोई सड़क, कोई गली उस तरफ़ नहीं जाती थी पर कहते है क़स्बे के प्रेमी किसी तरह वहाँ पहुँच कर एक दूसरे से वादे करते थे।
तमाम असहमतियों के बावजूद लोग इस बात पर एकमत थे कि आजकल समय ठीक नहीं है।

Saturday, June 20, 2009

कायांतरण


क़स्बे के व्यक्तित्व में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था। रात में मुस्कुराते तारे निर्जीव होकर टंगे लगते थे। सबने जैसे सामूहिक रूप से फांसी खा ली थी। आसमान की प्रांजलता समाप्त हो गई थी। एक पीपल का पेड़ जो क़स्बे में सबसे बूढा था अब सूखने लग गया था। ये उसकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी क्योंकि नज़दीक समय में कभी उसने वैद को बुलाया नहीं था। असल में वो क़स्बे में इन्हीं दिनों उग आए एक चार मंजिला मॉल के परिसर में रात को जगमगाते रौशनी के पेड़ से खौफज़दा था। मॉल इतना भव्य था जैसे इसका निर्माण ब्रह्माण्ड के किसी दूसरे ही कोने से आए शिल्पियों ने किया था। क़स्बे के सारे घडीसाज़ पहले ही भाग चुके थे उनके अनुसार सृष्टि की घड़ी में ही खोट आ गई थी तो अब उनका कोई काम बचता नहीं था। मॉल में दुनिया की हर चीज़ पेकेट में बंद मिलती थी। जो नहीं चाहिए वो भी मिलता था। चीन के संतरे और ऑस्ट्रेलियाई सेब मिलते थे। पीछे झूलने वाली कुर्सीयों पर सिनेमा दिखाया जाता था।
क़स्बे के लोगों ने मारे डर के उसके पास फटकना बंद किया तो वो दुगनी तीव्रता से चमकने लगा। इस मॉल का खौफ सिर्फ़ पीपल को ही नहीं ले डूबा बल्कि क़स्बे के अपने सात आर्श्चय भी देह त्यागने लग गए थे। पहाडी के कपालेश्वर मन्दिर का पाताल तोड़ कुआ जिसका पानी अर्जुन के बाण से निकला था ,पहली बार सूख गया। श्री पद की सनातन जल धार भाप बन कर उड़ गई। जिन पुरातन पत्थरों से होकर वह गुज़रती थी उन पर अब सिर्फ़ उसके निशान भर बचे थे। पांडवों की १३ वें वर्ष के वनवास की आश्रय कुटी अंधड़ में उड़ गई थी।छोटे किले के झरोखे झूल कर ज़मीन चाट गए थे।
और
ऐसे ही क़स्बा अपनी देह में परिवर्तन होता देख रहा था। ये कायांतरण उसकी समझ से परे था।
एक लेखक इन परिवर्तनों को अपनी डायरी में दर्ज कर रहा था। वो क़स्बे का नामचीन साहित्यकार था। उसके कई आलोचना के पोथे छप चुके थे।नवोदित लेखकों की कविताओं की मात्राएँ वो ठीक किया करता था। सर उठा कर उसने अपने प्रिय क़स्बे के परिदृश्य पर नज़र डाली। उसे फौरन कोई कबिता याद नहीं आई। पर तुंरत उसे याद आया कि उसे थैला पकडाया था श्रीमती जी ने ।उसने काफ़ी देर से निचले होठ और दांतों के बीच पड़े ज़र्दे को जिह्वाग्र से एकत्र कर प्रक्षेपास्त्र की तरह फेंका और मॉल की तरफ बढ़ गया।
लेखक की इस ज़ल्दबाजी में एक महत्वपूर्ण घटना क्रम उसके बही खाते में दर्ज होने से रह गया। उसी सूखते पीपल के नीचे राजू टायर ट्यूब पेचिंग वाला चिंतन में व्यस्त था। ये चिंता युक्त चिंतन था क्योंकि हेमी, उसकी प्रेमिका, उसे लगातार सुनाए जा रही थी-
"आज शाम को मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ, हम कही भाग जाते हैं।"
"आज कैसे होगा, अब तक तो सिर्फ़ दो ही पंचर निकले है,घर से भागने के लिए पैसे भी तो चाहिए।"
"मैं कुछ नहीं जानती मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ"


मॉल से चुंधियाते क़स्बे में जीवन के ऐसे ही स्फुरण को लेखक दर्ज नहीं कर पा रहा था, उसके उपकरण इन सूक्ष्म हरकतों की रीडिंग लेने में असमर्थ भी थे। पर सवाल ये भी था कि इनका क़स्बे की जीवन मृत्यु से कोई लेना देना था भी या नहीं।


(photo courtesy- wikimedia)

Thursday, June 11, 2009

दुनिया के तापमान से एक डिग्री ज़्यादा में जीते हुए

हर रोज़ बिना पढ़े वो उस लड़की के मेसेजेज़ 'इन बॉक्स' से डिलीट कर देता था जिनमे ज़िन्दगी के गूढ़ भावों को सरलीकृत अंदाज़ में लिखा होता था। जिनमे प्यार को किसी बेरोजगार कवि या शायर की चार पंक्तियों में परिभाषित किया होता था। संदेश जो सरल हास्य से लेकर भीषण अश्लील चुटकुलों से भरे होते थे। एक तरह से वे सारे संदेश उस लड़की की तरफ़ से प्रणय निवेदन थे इन्हे वो रोजाना कई कई बार ठुकरा देता था। ये शायद उसकी उदासीनता थी या धूर्तता, हद बाँधने का काम आप ही करें, उसने कभी संदेशों की आमद रोकने की कोशिश नहीं की। वो दो साल से और ही एक लड़की के इंतज़ार में था। अन्तिम कॉल उसने की थी, उसके बाद सामने से लड़की ने कहा था कि वो उसे फ़ोन करेगी। भौगोलिक दूरियों के लंबे और भयावह फासलों के साथ रूखे और बेजान मौसमों की लम्बाइयां उनके बीच की दूरियों को प्रकाश वर्षों में बदल रही थी....
इस बार गर्मी तो ऐसी थी कि जैसे नर्क की आग धरती के हिस्से में आ गई हो।
एक कॉल...... सिर्फ़ एक कॉल इस दूरी को ऐसे पाट देती जैसे हॉकिंग की समय में सूराख की अवधारणा!
किसी अच्छे मौसम में उनका मिलना हुआ था जो अपरिचय से औपचारिक परिचय तक ही बढ़ पाया था। अलग होते वक्त वे फ़िर से दुनियावी प्राणी होते अगर उस समय उनके बीच पैदा हुई कुछ कैलोरी की ऊष्मा जाते समय वे साथ न ले गए होते।
ये क्या था पता नहीं। शायद कोई नया ही रसायन जन्म ले गया था। वे टाइटेनिक के मुख्य पात्रों की तरह सुंदर नहीं थे न उनमे कोई जादुई शक्तियां थी। आम इंसानों की तरह उनके अपने निजी भय थे। उनके वेतन उन्हें तमाम चमकीले विज्ञापन देखने से रोकते थे। दफ्तर में समय पर जाना उनकी मजबूरी थी और यूँ उनकी कई मजबूरियां थी।
उनकी औपचारिक मुलाक़ात, जो अन्तिम थी, के समाप्त होने से ठीक पहले कोई ऐसा कमज़ोर सा पुल उनके बीच बना जो एक को दूसरे तक ले जाने का भरोसा देता था। एक कम ताप की लौ जो जलाने के बजाय कोई सूक्ष्म कोना प्रदीप्त करती थी....इतनी जो किसी सूखे बर्फ को ज़बान फेरने लायक बनाती थी। एक क्षीण उत्तेजना, जो ह्रदय की धडकनों को एक मिनट में ७२ से ७३ ही करती थी। ये समझ और नासमझी के बीच कुछ था....थोड़ा लौकिक थोड़ा अतीन्द्रीय।
उसकी कई बार इच्छा हुई कि क्यों न वो ही दुबारा कॉल करे पर दो साल पुराना वादा याद आते ही उसके हाथ रुक जाते।
उसने अपने सीने के बाँई ओर हाथ से महसूस करने की कोशिश की....धड़कने अभी भी ७३ ही थी।

Sunday, May 31, 2009

लॉन्ग शॉट में एक आदमी को देखते हुए

डिस्क्लेमर- मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इस आदमी को नज़दीक से मैं नहीं जानता। हाय-हेलो के अलावा शायद ही कभी मैंने उससे बातचीत की है और मुझसे उम्र में बड़ा होने के कारण मैंने अपनी समझ आने पर उसे हमेशा बड़ा ही देखा है। फ़िर भी, कई सालों से उसे अलग अलग भूमिकाओं में देखने और उसके बारे में जानने वालों के किस्सों से मैं उसके बारे में लिखने, उसका शब्दचित्र बनाने का जोखिम उठा रहा हूँ। मेरी तमाम ईमानदारी के बावजूद इसमे सूक्ष्म डिटेल्स का अभाव रहेगा और अपने सर्वोत्तम रूप में भी, ज़्यादा से ज़्यादा ये उसके दूर से खींचे गए फोटो से अधिक कुछ नहीं होगा। कहीं अगर मेरा प्रयास उसे और स्पष्ट करता लगता है तो कृपया इसे मेरा लेखकीय कांइयापन माना जाय।
वो-
उसका नाम प्रवीण है ज़ाहिर है इस नाम का व्यक्ति आज की पीढी का नहीं होगा....आजकल प्रवीण नाम रखना कहाँ फैशन रह गया है ? हाँ प्रणय नाम होता तो शायद उसे बाद की पीढी का माना जा सकता था।
क़स्बे के क्रिकेट क्लब में वो ओपनिंग बैट्समैन था। उसका काम नई गेंद की शाइन को ख़त्म करना था और तीसरे नम्बर के बल्लेबाज़ के लिए कुशन प्रदान करना था। कई मैच खेलने के बाद भी उसने गिनती के ही चौके लगाए थे। उसे टुकटुकिया मास्टर कहा जाता था। अपने दम पर सिर्फ़ एक बार उसने मैच बचाया था जब वो अंत तक आउट नही हुआ और दूसरे एंड पर बल्लेबाज़ रन बनाते रहे,आउट होते रहे। और जब १०वें नम्बर पर बैटिंग करने आए फास्ट बॉलर ने सिक्सर लगाकर मैच टीम के कब्जे में कर लिया उस वक्त भी शीट एंकर बने प्रवीण के खाते में कम ही तालियाँ आई। वो फास्ट बॉलर ही सारी तारीफ बटोर ले गया। उस बॉलर को लोगों ने गुटखे के पाउचों से लाद दिया जबकि प्रवीण को गुटखा भी जेब से खर्च कर खाना पड़ा। वो इस शानदार प्रयास के बावजूद unsung हीरो ही बना रहा।
एक क्रिकेटर के तौर पर लड़कियों की पसंद वो कभी नहीं रहा क्योंकि अजय जडेजा ६ नम्बर पर बल्लेबाजी करने आता था लिहाजा जो ग्लैमर ६ नम्बर के साथ जुदा था वो ओपनिंग स्लॉट के साथ हरगिज़ नही हो सकता था।
एक क्रिकेटर के तौर पर बेहद संक्षिप्त और नाकामयाब कैरियर के समाप्त हो जाने के बाद उसका एक बेरोजगार के रूप में अन्तराल लंबा चला। इस दौर में उसके बारे में जो किस्सा चल पडा था वो ये था कि वो सामूहिक भोज में बढ़िया बैटिंग करता था, बिल्कुल जडेजा की तरह। जीमने का कपिलदेव!कहते हैं कि वो जीम चुकने के बाद ५ लड्डू खा सकता था।
हर साल आसपास उड़ती बाल विवाह की ख़बरों के बीच वो ज़िन्दगी के ३५ साल पार कर चुका था। एक क्रिकेटर के तौर पर तो वो संन्यास ले ही चुका था, एलिजिबल बैचलर के लिहाज़ से भी उम्र पार कर चुका था।
अपने दोस्तों में अक्सर वो जी एस का ज़िक्र करता था। जी एस यानी गीता शर्मा। गीता शर्मा से रिश्ते को लेकर उसमे हमेशा उम्मीद धड़कती रहती थी। वो कहता कि जी एस से उसकी शादी का रिसेप्शन ज़बरदस्त भव्य होगा। क़स्बे के सबसे बड़े टेंट वाले को कह रखा है कि कभी भी काम पड़ सकता है, तैयार रहना!
एक दिन जी एस की शादी किसी और के साथ हो गई।
प्रवीण ने उस रात कफ सीरप की पूरी बोतल पी ली। सुबह उसकी आंखों में कफ सीरप से बलात् लाई गई खुमारी में उस एकतरफा रिश्ते का अंत भी नुमाया था।
यूँ ज़िन्दगी के मामूलीपन और उसमें भी उसके साथ घटे हादसों ने प्रवीण को घर में भी बाँझ गाय की तरह अवांछित बना दिया। "स्साले ज़िन्दगी के बहीखाते में उसके हिस्से 'बरकत' लिखा कभी आया क्यों नहीं?" ये सवाल उसे परेशान करता रहता। इसी वाहियात समय में उसके दोस्त पहले शादीशुदा फ़िर बाल बच्चेदार होते रहे और वो ऐसा किरदार बना रहा जिसका भगवान् की बनाई कहानी में कोई रोल ही नहीं था।
उसे लगता उसमे छटांक भर भी काबिलियत नहीं है जिसके ज़रिये वो कुछ भी साबित कर सके।
मैं-
सड़क पर पड़े हजारों लावारिस फोटो वक्त के जूतों तले दबते रहे। मेरी नज़र में प्रवीण भी समय के भारी बूटों तले पददलित हो चुका था। मैं उसके बारे में इतना कुछ लिखने वाला भी नहीं था पर एक दिन......
एक दिन जैसे सड़क पर बरसों से फडफडाते ,महत्वहीन फोटोग्राफ्स में से एक उसका फोटो उड़कर मेरे चेहरे से चिपक गया। मुझे किसी ने बड़े लापरवाह अंदाज़ में बताया कि प्रवीण की आजकल बड़ी पूछ है। वो highly sought after हो गया है। लोग दूर दराज़ के गाँवों तक से उसे वाहन भेज कर बुलाते है और बासम्मान वापस घर छोड़ते है।
"क्यों ऐसा क्या कर दिया उसने?"मैंने पूछा।
"अरे वो बिच्छू उतारने का मन्त्र सीख गया है"।
अब बारी मुझे बिच्छू काटने की थी। मैंने चिहुँकते हुए पूछा -"बिच्छू उतारने का मन्त्र?"
" हाँ, प्राथमिक योग्यता तो उसकी बिच्छू उतारने में है। लोग मानते है कि कैसा भी ज़हरीला क्यों न हो, "प्रवीण महाराज" मिनटों में उतार देते है। और द्वितीयक योग्यता ये कि वो छोटे मोटे कर्मकांड भी करवा लेता है।
मैं चकरी की तरह घूमने लग गया। मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक के चरित्र विमल उर्फ़ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल का ऐसे वक्त में बोलने वाला वाक्य याद आया-
"धन्न करतार"

( फोटो जोधपुर के युवा चित्रकार मनीष सोलंकी की एक पेंटिंग का है, साभार)

Tuesday, May 12, 2009

अभिशप्त क़स्बे से आरम्भ



क़स्बे की जन्मपत्री में कोई भयानक गड़बडी थी। आजकल इसकी पुष्टि कम्प्यूटरीकृत कुंडली से सूक्ष्म विवेचन करने वाले प्रख्यात ज्योतिषी भी कर रहे थे। इन दिनों ख्याति अर्जित कर रहे क़स्बे के ही एक वास्तु शास्त्री के अनुसार क़स्बे की बसावट में ही बहुत भारी त्रुटि थी, इस कारण सारे देवता यहाँ से भाग छूटे थे और पितर अत्यधिक बेचैनी का अनुभव कर रहे थे। अब उनका आर्शीवाद यहाँ के कुटुंब ले नहीं पा रहे थे। हर मन्दिर के विग्रह उलटी दिशाओं में घूम गए थे और पंडित वैदिक कर्म भूल कर गैर सनातनी परम्पराओं में रत हो गए थे।
ऐसे ही विचित्र माहौल में क़स्बे की उस लड़की का विवाह सम्बन्ध कहीं निश्चित नहीं हो पा रहा था। सनातनी परम्पराओं की क्षीण स्मृति से युक्त एक विद्वान् ने सुझाया कि विवाह अगर शातातप गोत्र के लड़के से हो तभी कुल- कुटुंब के लिए शुभ होगा और पितर किंचित शान्ति का अनुभव कर सकेंगे।
ये एक बड़ी समस्या थी। उस टोले में ये गोत्र ख़त्म हो चुका था। इस गोत्र से पितृ-पक्ष की ओर से सम्बन्ध रखने वाली एकमात्र वृद्धा भी हरि-शरण हो चुकी थी।अब इस गोत्र का कोई भी, वहाँ या आसपास, नहीं था।
जाति-प्रजाति के मसलों को भी ध्यान में रखते हुए गूगल सर्च की गयी तो पता चला कि कच्छ के रन में बसे एक गाँव में इस गोत्र के परिवार रहतें हैं। वे अपने को चातुर्वेदज्ञाता कहतें हैं पर उनसे चारों वेदों के नाम पूछे जाएँ तो वे एक दो के ही बता पाएंगे। एक अड़चन उनके साथ सम्बन्ध करने में और थी, वे बकरी पालते थे जो इधर के लोगों के लिए अस्वीकार्य था भले ही स्वयं इनकी स्मृति में वेद और पुराण की जगह नरेंद्र चंचल के जगराते गूंजते रहते थे।
पर उपचार तो यही था अतः ऐसे विकट योग के निराकरण के लिए लड़की का भाई सम्बन्ध निश्चित करने के उद्देश्य से शातातप गोत्र धारी लोगों के गाँव रवाना हुआ। उसने साथ किसी भी अनिष्ट का सामना करने लिए भूतोपचार पुस्तिकाएं भी ले ली। एक बड़ी समस्या उस गंतव्य तक जाने के लिए उपलब्ध संसाधनों की भी थी। इक्का दुक्का बस वहाँ जाती थी जिसकी जानकारी उसको जुटानी थी। और last but not the least समस्या के रूप में था देवशोक गाँव जो उसके गंतव्य से ५ किलो मीटर पहले पड़ता था। बस इस गाँव से होकर ही जाती थी इसका उसे पता था।उसने सुन रखा था कि ये गाँव कुछ 'ठीक' नहीं था। यही वो जगह थी जहाँ देवासुर संग्राम में देवता असुरों से हार गए थे। उनके भाग छूटने के निशान आज भी उस गाँव में मौजूद बताये जाते थे। कहतें हैं गाँव के ज़्यादातर लोग आसुरी प्रभाव से ख़ुद को बचाने के लिए 'शैतान आत्माओं'की चापलूसी करते थे। एक प्रभावी असुर 'देवजयी' की प्रशस्ति में ६०० साल पहले वहीं के कवि 'असुरदास' ने देवजयी को देवताओं के पाचन की सबसे बड़ी बाधा 'काचर का बीज' बता डाला था। ६१ पंक्तियों की इस प्रशस्ति में देवजयी के बारे में कहा गया कि एक प्रेमासक्त देव के मस्तक पर उसने ऐसा प्रहार किया कि वो देव आजीवन अपनी प्रेमिका का नाम भूल बैठा।
देवशोक गाँव में चापलूसी की इस परम्परा का निर्वाह आज तक हो रहा था। शैतान की चापलूसी में कई चालीसाएं लिखी गयीं थी।
विवाह योग्य बहन के उस भाई ने अंततः उचित बस को खोज लिया जो उसे गंतव्य तक ले जाने वाली थी। सब कुछ समयानुसार होने पर शाम को चली वो बस रात के पौने बारह बजे भावी समधियों के गाँव पहुँचती जहाँ वे लोग सामने उसके इंतज़ार में खड़े मिलते।
कई जगह बस रूकती रही और यात्री उतारते रहे। चढ़ने वाला को नहीं था। फ़िर एक स्थिति ऐसी आयी जब वो उस बस में ड्राईवर और परिचालक के अलावा अकेला रह गया था। देवशोक अभी आया नहीं था पर उसकी बढती समीपता से उसके सीने में बाँई और कुछ बेहद गति से धड़कने लगा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि बस यू- टर्न ले ले, वापस चली जाय, रास्ता भटक जाए पर यूँ सामान्य रूप से न चलती रहे।
और ऐसा ही हुआ...... उसकी इच्छा का तो नहीं पर हाँ बस एक जगह रुक गई।
"कहाँ रुक गई भाई साब?"
उसने परिचालक से इतना पूछने के लिए हलक से कुछ शब्द मुश्किल से बाहर फेंके।
"देवशोक! खराबी आ गई है बस में, इसलिए यहीं से बस वापस रवाना हो रही है, आगे नहीं जायेगी, आप यहीं उतरिये।"
परिचालक ने इतना सब बड़ी आसानी से बोल दिया।
रात के साढे ग्यारह बजे देवशोक में उतरना पड़ेगा! जिस जगह से होकर गुजरने मात्र से उसका रक्त द्रव नाइट्रोजन में रखे खून की तरह जम रहा था उसे वहाँ उतरना होगा!!!
" हे भगवान्!ये कौनसे पाप का प्रतिफल मिल रहा है मुझे?" उसने ज़ोर ज़ोर से सोचा।
और उसे अनमना पाकर परिचालक ने उसे ज़बरदस्ती बस से बाहर धकेल दिया।
नीचे उतरने पर उसे ये भूमि साक्षात असुरों की राजधानी लग रही थी। उसने उल्लू की भांति गर्दन घुमाई तो एक उम्मीद की लालटेन कहीं जलती नज़र आई। जी हाँ एक चाय की दूकान पर टंगी लालटेन उस समय भी दूकान के आबाद होने की घोषणा कर रही थी। उसके कदम वहीं खिंच गए।
"एक चाय देना!"उसने चाय वाले को आदेश दिया। उसे इस समय ये पेय डेरे में सबसे सात्विक लग रहा था।
दुकानदार चुपचाप चाय बनाने में व्यस्त हो गया। उसे लगा चाय वाला उससे बात नहीं करना चाहता। उसने ऊपर देखा, काले आसमान में चाँद बड़ा मलिन नज़र आ रहा था। हजारों अपराध होते देख चुका चाँद हर अपराध में मूक समर्थक की भूमिका में था।
उसने चाय का घूँट भरा। चाय बड़ी खट्टी स्वाद दे रही थी।
"क्या दूध ख़राब हो गया है?"
"यहाँ गाय का दूध काम नहीं आता, जरख के दूध से चाय बनती है। इससे काटने के दांत मज़बूत होते है।"
उसने बिना चाय पिए पैसे देना बेहतर समझा। उसके कदम जड़ हो रहे थे जैसे शरीर धीरे धीर लोहे में बदल रहा हो।
तभी दूर से दो हेड लाइट्स से रौशनी फेंकती एक जीप पास आकर रुकी। उसके आर्श्चय का पारावार न रहा, होने वाले समधी उसे लेने आए थे।
"आपको परेशानी हुई इसका खेद है....चलिए हमारे साथ। बस अड्डे पर खूब इंतज़ार किया बाद में पता चला बस यहीं से वापस लौट गई।"
"पंडित जी पाय लागूं"। चाय वाले ने भी अपनी जान पहचान को दोहराया।
"क्यों भाई , फटे दूध की चाय तो नही पिलाई मेहमान को? और बाद में हमेशा वाला बहाना बना दिया , हें?हा हा ॥"
इस हृष्ट पुष्ट हँसी में लड़की के भाई ने भी अपनी फीकी हँसी मिला ली।

Wednesday, April 29, 2009

अपनों को खोने पर


इन दिनों के आसपास ही शायद
उसने अपने भीतर
प्रेम की पहली कौंध
महसूस की होगी
यही दिन रहे होंगे
जब उसने सोचा होगा
कि इंतज़ार हमेशा उबाऊ नहीं होता
और नोट बुक में गणित के सूत्रों के अलावा भी
बहुत कुछ लिखा जा सकता है
मसलन कविता या पत्र।
इन्हीं दिनों मां की डांट भी
ज्यादा सुनी होगी
और उतनी ही ज्यादा
अनसुनी की होगी
पहली बार
शायद इन्हीं दिनों
दुनिया में अपने लिए
एक निजी आकाश की
कल्पना में रही होगी वो
वो उछल कर आसमान छू लेती थी
और रुई के फाहों की तरह
तैरते हवा में
उतर आती थी धरती पर.
इस जवान होती लड़की को लेकर
घर में अब उसके बारे
सोचा जाने लगा था
कि किस घर में वो आगे
सुखी रह सकती है
और पढाई कहाँ तक
करवाई जाय
क्या इतनी काफी है
या रिश्ता पक्का होने तक
कोई हर्ज़ नहीं, वगैरह वगैरह
इस तरह उसकी ज़िन्दगी में आम
और ख़ास सब चल रहा था
पर इन्हीं दिनों एक दिन
सपनों की बारीक बुनाई में
व्यस्त उसके हाथ
सहसा रुक गए
एक अखबार या पुलिस या डॉक्टर के लिए
ये रोज़ होने वाली आम दुर्घटना थी
पर उस घर के लिए
ये बार बार आकर खरोंचने वाली
स्मृति थी
उस स्वर का बीच में ही
टूट जाना था
जिसके बिना पूरा नहीं हो सकता था कोरस।
करोडो प्रकाशवर्ष की लम्बाईयों
और समय के भयाक्रांत करते विस्तार तक जीते
तारों के इसी ब्रह्माण्ड में
कोई सिर्फ उन्नीस वर्ष में शेष हो जाए
सड़क पर टक्कर के बाद
भौतिकीय नियमों से परास्त हो जाय
क्या कोई भी दिलासा तर्कपूर्ण हो सकती है
मैं फोन पर अपने मित्र को
संवेदना प्रकट करने से पहले
खोजता हूँ
सम भार के वे शब्द
जो अपनों को खोने से
उपजी पीड़ा को समझते हों
पर
आख़िर नियति के चक्र,
अविनाशी आत्मा, पुनर्जन्म, हौसला, हिम्मत जैसे
काम चलाऊ शब्दों से आगे नहीं बढ पाता
हो सकता है
कुछ सघन अनुभव
नितांत निजी होते हों
जिनका परस्पर व्यवहार
संभव नहीं