Wednesday, August 31, 2011

बारिश से ठीक पहले


ऊपर आसमान में घने बादलों भीड़ थी.शाम का वक़्त था पर रौशनी बहुत तेज़ भागती कहीं दूर जा पहुंची थी.ये शाम हर रोज़ जैसी नहीं थी.कुछ कुछ ज़िंदगी की शाम की तरह भारी, अवसाद से भरी हुई. अजीब सी घुटन फेफड़ों को मसल डालने में लगी थी. और गर्मी तो ऐसी कि कछुए की खाल तक से पानी निचोड़ दे.हवा में हल्कापन बिलकुल नहीं था.वो सब कुछ को पृथ्वी के गुरुत्व के हवाले करती जा रही थी. बाकी दिनों में गर्व के साथ आकाश बींधती ऊंची ऊंची इमारतें आज ऐंठ कर दोहरी होना चाहती थी.अपनी पीठ न खुजा पाने की बेबसी से भरा दुर्ग अपने शिल्प की तमाम शास्त्रीयताओं को तोडना चाह रहा था.

ये जानलेवा उमस काले, ठोस बादलों के अभेद्य आवरण में एक अजीब सी तड़प भर रही थी जो कुछ कुछ सृजन की इच्छा जैसा था. रोड लाइट से रौशनी के साथ स्लोमोशन में झरते कीट अपने सर्वश्रेष्ठ समय में जी रहे थे.उनके गिरने का अनुमान भौतिकी का कोई भी नियम नहीं लगा सकता था.ये बारिश से ठीक पहले का समय था इसे कोई भी बता सकता था पर साथ ही ये भी बात सही थी कि बारिश के ठीक पहले के इस समय के बाद बारिश होगी ही इसे कोई भी ठीक ठीक नहीं कह सकता था.इस वक्त कहीं भाग छूटा जाय इसकी कतई चाह नहीं थी,जो शिद्दत से महसूस होता था वो ये कि सीधे ऊपर उड़ लिया जाय और बेहतर तो ये कि कोई धरती के पलायन वेग की सीमा से परे जाकर प्रक्षिप्त कर दे आसमान से भी ऊपर कहीं.

पर सब कुछ पृथ्वी के हवाले किया जा चुका था, उसका गुरुत्व असीम था. सतह के साथ बंधे होना ही जैसे पर्याप्त नहीं था, एक तलहीन गड्ढा खींचता था अपनी ओर. और हमारी आँखें देखती थीं स्वप्न अपनी मांद का.



(photo courtesy- dbgg1979)