Saturday, January 14, 2012

जैसे किताब के कवर पर लड़की का अधूरा चित्र




इस पंक्ति के बाद से एक वादे की पवित्रता भंग होती है.
उसने कहा था कि तुम खुद से भी कभी ज़िक्र मत करना
उन पलों का
जो साझा हैं हमारे बीच
पल जो हिसाब की किसी बही में दर्ज़ नहीं
दिन रात के दरम्यां कहीं नहीं
नहीं आते जो
घड़ी के किसी भी कांटे के
रास्ते में .
इनकी बनावट संभवतः
समय की मांस मज्जा से न होकर
किसी नितांत आदिम से है
अजानी, इस लोक के किसी भी ज्ञात सन्दर्भ से.

एक दिव्य पारितोषिक की तरह मिले हैं
साझा मिल्कियत के ये पल
देशज पाठ में कहें तो
नाप के बाद दूधिये से मिले
दूध के कुछ अतिरिक्त मुफ्त छलकाव.

तय हुआ था
कि जो कुछ भी है
संयुक्त अधिकार में
जिसमें इस अधिकार का ज्ञान भी शामिल है
उसके सूक्ष्मांश को भी किसी से
बांटा नहीं जायेगा
और यहाँ मैं सिर्फ इतना कहकर भी
तोड़ रहा हूँ वो अहद जैसा कुछ
कि
बहुत हसीन हैं गोपनीयता के ये द्वीप
बनते जिन्हें देख नहीं पायी
झपकी लेते ईश्वर तक की उनींदी आँखें
जो अब तक इस दुनिया के
बेहतरीन नक़्शे में भी चिन्हित नहीं किये जा सके
और जिन्हें अकेले देख पाना
खुद मेरे लिए
किसी परम विकट भूलभुलैया में
हाइड एंड सीक खेलने जैसा है.
ऐसे ही कैटाकौम्स में फंसा मैं
रास्तों की पहचान कुछ नाकाफी सूत्रों से करने की
कोशिश करता हूँ
जैसे इस किताब के कवर पर
देखता हूँ किसी मुलात्तो लड़की का
अधूरा छपा चित्र
जिसमें
आधे ही दिखते चेहरे में
चुनौती देती है उसकी आँख
(दूसरी चित्र में दिखती नहीं)
और आग के फूल की तरह रखे
हैं तप्त होंठ
जिनके आगे मैं भूल जाता हूँ
अपने प्रिय लेखक के नाम में विन्यस्त
बड़े बड़े अक्षर.
मैं किसी बीते साथ की
अलाव सी आंच महसूस करता हूँ

ऐसे ही हर अपूर्ण के
रह गए किसी बाकी में
ढूँढता हूँ मैं
उसे
और उस साझा
सम्पदा को.
जैसे फुसफुसाहटों के ज़रिये
पीछे छूट गए वाक्यों को
इशारों में मूक रह गयी कामनाओं को
और झूठ में गठरी बने बैठे हां को.




(image courtesy- jeffb123)


Wednesday, January 11, 2012

बुखार में और उससे बाहर


नाक में घूमता है तमतमाई भीतरी झिल्ली से रिसता श्लेष्मा का गरम पानी. किसी नामालूम द्रव से भरी आँखों की झील उफनती है. मस्तिष्क गाढे लावे सा बहता है धमनियों में. चाहता हूँ कि इस धधकती देह से निष्कासित कर दिया जाकर हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की मानिंद ऊपर छत से टिका रहूँ.

सपने एक बहुत तेज़ भागती रील हो गयी है जिनके चित्रों को किसी मसखरे ने बेतरतीब जोड़ रखा है.एक बहुत ऊंचा शिखर दिखाई देता है.नोकदार. जिसके दूसरी ओर सिर्फ जानलेवा ढलानें हैं.पृथ्वी अपनी कील पर लट्टू सी घूमती है.लगता है उसका भी घूर्णन काल गडबडा गया है, एक डर सा लगता है,कहीं कील से ये फिरकनी दूर न जा गिरे.खगोलीय नियमों की गणितीय सटीकता एक भ्रम लगने लगती है.पूरे ब्रह्माण्ड की यांत्रिक गडबड़ी की शुरुआत यहीं से हुई महसूस होती है. कितनी देर विभ्रम बना रहता है कुछ पता नहीं.कितना समय इस बीच निकल जाता है बिना चिन्हित हुए, याद नहीं.

फिर..कहीं एक जद्दोजहद चलती है शरीर के भीतर.बिगड़ी हुई हार्मनी को किसी तरह उसकी रोज़ाना की लय पर लाने की कोशिशें चलतीं हैं. शरीर खुद जैसे लय में आना चाहता है. ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता इतना सब कुछ अनियंत्रित, नियमों से बाहर.चरम पर पहुंचे तनाव के बाद शैथिल्य की ओर ही लौटना है इस बार भी शायद...

हां लगता है..अब लौटने का रास्ता यहीं कहीं था.

अब तक देह से निरपेक्ष रही चेतना धीरे धीरे भारी होकर नीचे बैठती है. कोई दौड़ खत्म होने के बाद की हांफ, जिसमें अब तक तीक्ष्ण नोक पर टिके रहे प्राण पसरना शुरू होते हैं, भरने लगतें हैं धीरे धीरे.देह के भीतर ताप सिकुड रहा है.विश्रान्ति लाती छोटी छोटी तन्द्राएं आने लगती हैं. छाती में भारी हो चुके कफ की आवाज़ में अब गुरुता है. आँखें बाहर देखती है.पेड़ों का झूलना, लोगोंका चलना, पक्षियों का उड़ना, भागना कुत्तों का,सब धीरे होता जा रहा है,लगातार.परिदृश्य मानो किसी चिपचिपे द्रव में डूबा है जो लगातार और ज्यादा गाढा होता जा रहा है.क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया में जैसे अंततः एक बिंदु पर आकर सब कुछ किरचों में बिखर जाएगा और तैरने लग जाएगा बाहर स्फूर्त हवा में.

Friday, January 6, 2012

सुबहें


पीपल के पत्तों से झर कर आती सुबह बहुत उजली लग रही थी.एक दम साफ़ झक.शफ्फाक.बिलकुल सुबह जैसी सुबह.न कोहरे में लिपटी न धूल से सनी.और अगर वक्त की बात की जाय तो समझिए सूरज क्षितिज से अब कभी भी नमूदार होकर पीला रंग फेंक सकता था.मंदिर में भगवान को जगाया जा चुका था पर उनकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं.आस्थावानों का अभी जमघट नहीं लगा था बस इक्का दुक्का ही मंदिर में आ रहे थे जिसका अंदाज़ अच्छे खासे अंतरालों में बजती घंटियों से लगता था.

ये बरसों पहले की बात है जब हममें काफी बचपन बाकी था. और दिखने मैं तो सच में ही बच्चे थे. इस सुबह के तो खैर ठाठ कुछ निराले ही थे.मैं अपने घर की छत पर एक कोने में पानी वाली डायन किताब हाथ में लिए था.घर की छतें भी छोटा मोटा अजायबघर होती हैं.कहीं मटकी में डलियों वाला नमक है तो किसी में पिछली दीवाली पर की गयी सफेदी का बचा हुआ चूने का पानी है.पतंग और चरखी भी इसी छत पर हैं.पर सबसे बड़ी चीज़ है, छत पर रखा रहता है वो दुर्लभ एकांत जिसमें सुरक्षित है वह इंतज़ार जो सामने की किसी छत पर आने वाली प्रेयसी के लिए किया जाता है.

इन दिनों चूँकि गर्मियों के दिन थे तो पड़ौस की छतों पर कई अघोरी अभी भी सोये पड़े थे.वैसे अभी सोये जा सकने जैसा समय भी था.पर हां औरतें घरों के कामों में लग चुकी थी.

कुल मिलाकर मैं इस अनूठी और जादुई सुबह में छत पर, दुनिया की अभी अभी शुरू हुई गहमा गहमी से दस फुट ऊपर किताब पढ़ने के सच्चे आनंद को नितांत अकेला भोग रहा था.कुछ कुछ वैसा ही जब घर में आपके अलावा और कोई न हो और आपके हाथ मां का छिपाया मिठाई का डिब्बा लग जाय.हां यह किसी गोपन सुख का ही आनंद था जो बिना किसी की जानकारी में आये मेरे सामने प्रकट था. और बड़ी बात ये भी थी कि कम से कम इस वक्त तो पास में कोई ईर्ष्या करने वाला भी नहीं था.

किताब में पुखराज की चट्टानें,भीमकाय दोस्त,बौने दुश्मन,जलपरी, नदियाँ सब थे.और उस उम्र का ये विश्वास भी कि फंतासी घटने से सिर्फ थोड़ी ही दूर होती है.

ऐसे ही कुछ यादगार सुबहें अपने पूरे आकार प्रकार में, लगभग भौतिक रूप में हमारे भीतर बनी रहतीं है. अगर आपको बताऊँ तो ऐसी ही एक सुबह कुछ साल पहले की है जब ऑस्ट्रेलिया में भारत क्रिकेट सीरीज खेल रहा था.यहाँ मैच सुबह के पांच बजे के आसपास टीवी पर आते थे.भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच एक अलग रोमांच लिए होता था और उसे घटते हुए देखना,वो भी सुबह जब घर के लोग किसी और कमरे में सो रहे हो और आपके हाथ में चाय का कप और सामने लाइव मैच हो तो वो आनंद अवर्णनीय सा होता है....और सुबह एकदम से यादगार वाली.

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नए साल पर आप सबके मन में ऐसे बहुत सी सुबहें हों,और हर आने वाली सुबह ऐसी ही सुबह बनकर आये यही कामना करता हूँ.

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ब्लॉगर एक ऐसा रेडियोधर्मी पदार्थ होता है जिसकी अर्ध आयु काफी लंबी होती है.वो रचनात्मक रूप से हमेशा विकिरित होता रहता है.हां जब उसका फील्ड बदल जाए तो उसे भूतकालिक ब्लॉगर कहा जा सकता है.ऐसे ही भूतकाल के ब्लॉगर और हमारे परम मित्र, जिगरी प्रकाश पाखी के लिखे राजस्थानी भजनों का अल्बम अर्पण मार्केट में आया है.प्रकाश को बहुत बहुत बधाई.इसमें से एक रचना बहता पाणी इस समय आपको सुनवा रहा हूँ.इसमें एक अलग ही कशिश है.और सबसे गज़ब बात है कि इसके ज़रिये प्रकाश ने बोलियों के बीच जो संत-फकीराना किस्म की आवाजाही की है, बिलकुल रमता जोगी अंदाज़ में, वो अद्भुत है. तो मज़ा लीजिए आप भी इसका.


(photo courtesy- cowgirl111)