Monday, March 14, 2016

सन्नाटा

कितनी उजाड़ और अकेली थी ये जगह!बरसों का अकेलापन जमा होते होते इतना सघन हो गया था कि यहाँ आते ही आप उसे छू कर बता सकते थे.जैसे यहाँ छूने से कुछ अकेलापन आपकी ऊँगली के पोर पर चिपक जाता हो. ये एकांत बिलकुल विशुद्ध एकांत सा था.अपनी तात्विक रचना में सिर्फ एकांत से बना.बिलकुल भावहीन,निरपेक्ष एकांत.इस जगह के इसी एकांत ने इसे एक बरबाद उजाड़ में तब्दील कर रखा था.यहाँ सब सूना था.सब कुछ ख़त्म हो गया था. बस एक नीरवता पसरी थी,जो किसी आवाज़ या विस्फोट तक से भंग नहीं होती थी.यहाँ आकर कई बार लगता था जैसे आप पूरी तरह से विस्फारित आँख में झाँक रहे हैं. एक ऐसी आँख जो झपकना भूल गयी है.और ऐसी ही भंगिमा में जो अनंत समय से बनी हुई है.

फटी हुई आँख कितना बियाबान समेटे होती है! उसमें झांको तो जगह ही जगह दिखती है.असल में तो वो खालीपन है खाली जगह नहीं.बंद होना भूल चुकी आँख में हमें जो विराट अवकाश दीखता है वो खाली स्थान नहीं स्वयं खालीपन है. जिस आँख में हर छः सेकंड बाद निमेषक-पटल जीवन भरती है.उसमें ये झपक स्थगित हो जाय तो शून्यता जमा होना शुरू हो जाती है.

कुछ ऐसी ही शून्यता इस स्थान में भी थी. ये स्थान न पूरा पूरा हरा ठंडा जंगल था न पूरा पूरा पीला तप्त रेगिस्तान.बीच का था ये भूगोल.यहाँ जीवन की आवाजाही ज़रूर होती थी पर इसमें खुद जीवन नहीं था.जीवन पनपाने के लिए अनुर्वर थी यहाँ की ज़मीन.एक जगह से दूसरी जगह जाने के बीच पड़ता था ये विस्तार.इसीलिए लोगों के लिए ये एक रास्ता था.कुछ खानाबदोश व्यापारियों के लिए यहाँ से होकर जाना मजबूरी थी.वे भी यहाँ से जितना जल्दी हो सकता था निकलने की फिराक में रहते थे.
पर एक दिक्कत थी यहाँ पर.इस विस्तार में दिशाएं टूट टूट कर गिरती थीं.कौन दिस जाना है इसका विवेक ख़त्म हो जाता था.आदमी और ऊँट दोनों यहाँ भटक जाते थे.वो इस विकराल में गोल गोल गोल ही घूमते रहते थे.लोगों को यहां के कंटीले एकांत में न भटकने और किसी तरह सुरक्षित निकल जाने की प्रार्थनाओं का ही सहारा था.

यहाँ कई देवों के थान हैं जो हर ओर दिखाई देते हैं.उनसे रास्ता चलने वाले को दिशाएं तलाशने में थोड़ी बहुत मदद ही मिलती होगी. देवों में से कईयों की प्रतिमाएं समय ने भग्न कर दीं  हैं तो कईयों को ज़मीन में धंसा दिया  हैं.भटकने वाले लोगों के लिए इन सबमें में रूचि बनाएं रखना कठिन है. इस मरू प्रांतर में चलने वाले ये ज़रूर मानते थे कि कोई एक आदमी ऐसा अवश्य है जो इस इलाके का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता है.उसे यहाँ के हर छोटे बड़े रास्ते की जानकारी है.वो यहाँ की जानलेवा भूलभुलैयाँ के छद्म को भंग कर सकता है.उसे ज़मीन पर उगे और ज़मीन में धंसे तमाम कंद मूलों तक की जानकारी है.वो बांबी देखकर सांप की जात पहचान लेता है.वो धरती की शिराओं में बहते पानी की सोते सुन लेता है.वो अकेला यहाँ दिशाओं के छल को समझता है और ज़रुरत पड़ने पर उसे छिन्न भिन्न कर सकता है.और वो ही इस धरती के दंश को खींच कर दूर फेंक सकता है, यहाँ तक कि इधर के जानलेवा वर्तुलों को सुलझाने का काम कर सकता है.है कोई एक ऐसा आदमी.और ये भरोसा ही राहगीरों को इस जाल में कदम रखने का हौसला देता था.यद्यपि ऐसे 'एक'आदमी को किसी ने देखा नहीं था.पर तृतीय पुरुष में किये जाने वाले दावे पर्याप्त संख्या में थे.

निर्गत द्वार तक ले जाने वाले रास्ते का सफ़र उस 'एक'आदमी को नसीब नहीं.पथिकों को ठीक रास्ते का पता बता सकने के बावजूद उस 'एक' के लिए यहाँ से मुक्ति नहीं है.यहाँ के अकेले एकांत में रहने को वो अभिशप्त है.वो यहाँ के अकेलेपन से लड़ नहीं सकता.जब भी वो यहाँ के किसी एक कुए में झांकता है तो गहराई में दूर दूर तक पानी की क्षीण झिलमिल भी नहीं होती.जिसमें वो अपने प्रतिबिम्ब के रूप में ही सही किसी और को तो पा सके. बहुत बेबस है वो 'एक' आदमी जिसे यहाँ से बाहर जाने का रास्ता मालूम है पर वो जानकारी उसके अपने लिए इस्तेमाल में नहीं आ सकती.

असल में वो यहाँ का स्थायी बाशिंदा है.ये बीहड़ उसका घर है.

वो 'एक' आदमी ये बीहड़ खुद है.

3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सुखों की परछाई - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. सच है हर व्यक्ति अपना बीहड़ रखता है और बनता भी जाता है .....

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