Saturday, January 31, 2009

स्याही से बाहर छिटकते अर्थ


एक वाग्दत्ता अपने होने वाले पति को विवाह से पहले की अन्तिम चिट्ठी लिखती है। चिट्ठी में वो लग्न की तय हुई तिथि की जानकारी देती है। कई बार कच्चे ड्राफ्ट को फाड़ने के बाद वो आश्वस्त होकर एक साफ़ सुथरे पन्ने पर अपना पत्र पूरा करती है।अंत में' केवल तुम्हारी' के नीचे अपना नाम लिखती है और लरजते हाथों से पत्र को तह कर लिफाफे में डालती है। घर में सबसे छोटे को पास के लैटर बॉक्स में, कई हिदायतों के साथ, पत्र देकर रवाना करती है। हिदायतों में एक ये भी है कि बॉक्स में पत्र डालने के बाद डब्बे को हाथ से अच्छी तरह ज़रूर थपथपाना।
इस आम से क्रियाकलाप में हम सोचते हैं कि भावनाओं को आधार देने के लिए सिर्फ़ शब्द काफ़ी है।पर क्या सच में ऐसा ही होता होगा? क्या चिट्ठी निकालने के बाद लिफाफा पूरा खाली रह जाता है?या उसमे भेजने वाले हाथों की सुगंध और भेजने की व्यग्रता भी कहीं रह जाती है? लिफाफे पर सलीके से चिपकाया स्टाम्प, ठीक ठीक लिखा पता, ये सब क्या बेमानी ही होते है?ख़ास कर तब जब चिट्ठी किसी प्रिय की हो या अपने किसी परिचित ने लिखी हो?

कई बार हममे से शायद हरेक को , लगता है कि शब्द भावो के बोझ को पूरा नही सम्हाल पाते।लिफाफे में चिट्ठी के इतर भी बहुत कुछ बचा रहता है.
खाना खाते समय मैं ऐसी ही सोच की जुगाली कई बार करता हूँ। उस वक्त मुझे ये बहस बेमानी लगती है कि आजकल चिट्ठी कौन तो लिखता है,या गए दिन अब अंतर्देशीय के । क्योंकि चिट्ठी न सही हम आज भी अपने मन को किसी लिपि में ही डीकोड करते है। भाषाओं के छल को कई दार्शनिकों ने पहले ही पहचान रखा है। यहाँ उसकी बात करना एक गैर ज़रूरी व्यायाम हो जायेगा।
ऐसे वक्त में अक्सर
मैं अपने नानाजी की लिखी पुरानी चिट्ठियों के बारे में सोचने लग जाता हूँ। पूरा अंतर्देशीय भर देते थे वे। स्वस्ति श्री शुभ ओपमा लिखी....जैसी औपचारिक शब्दावली से उनकी चिट्ठी शुरू होती थी। चिट्ठी लिखते वक्त वो अपनी कुशलता की सूचना देते थे और भगवान् से हमारी कुशलता की कामना चाहते थे। फ़िर हम सब भाई बहनों को याद करते थे। मुझे उनकी चिट्ठी पढने में हमेशा खीज आती थी। मुश्किल से समझ में आने वाली महाजनी लिपि में लिखी। एक पिता अपनी बेटी को चिट्ठी लिखते समय भाव-संवेदनाओं के हारमोंस में डूबता उतराता होगा,उसके विवाह से पहले की कई छवियाँ साकार हो उठती होंगी पर चिट्ठी में वो कुशलता के समाचार ही लिख पाता है।बहुत कुछ चिट्ठी के बाहर छिटक जाता है।या पंक्तियों के दरम्यान अलिखा ही रह जाता है.सच में तो पत्र लिखने का भाव ही पत्र से बची रह गई संवेदनाओं को कुछ हद तक व्यक्त कर देता है. एक पिता की अपने विवाहिता बेटी को लिखी चिट्ठी सिर्फ़ अलिखित को उदघाटित करने का ऑन बटन है. और माँ यही काम बिना पत्र लिखे, सर्दी में गोंद के लड्डू भेज कर या बच्चो के लिए ऊनी कपड़े भेज कर कर लेती है.
यानी पत्र में या फोन पर'आई केअर यू' कह कर भी आप अपने प्रिय को सब कुछ लिख सकते है या कह सकते है.उसके लिए ज्ञान का बहुत बड़ा महल खड़ा करने कि आवश्यकता नही है।

13 comments:

  1. भावनाओं के सम्प्रेषन में भाषा सहायक हो सकती है, पर भाषा सम्प्रेषक सृजन नहीं कर सकती। बल्कि, पाया गया है कि अच्छी भाषा वाले लोग नैसर्गिक संप्रेषण को तोड़-मरोड़ कर बरबाद करते हैं।
    सुन्दर पोस्ट।

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  2. कथनों प कथन में हम प्रत्यक्ष, अर्धप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का प्रयोग किया करते है किंतु आपने भाष्य के उन अनदेखे तत्वों को भी साकार कर दिया है जो सुगंध की तरह महसूस किए जा सकते है। अच्छा ही है कि भाषा के दार्शनिक विश्लेषण में ना जा कर वक्त के थपेडों के बावजूद हम से चिपके रह गए शब्दों को पहचाना जाए। पोस्ट में एक रवानगी बनी रही, हर बात से स्मृतियों, अपनेपन और संजीदगी की महक पाई मैंने। ख़त और लिफाफे के सम्मान में एक शेर याद आ रहा है "ये ख़त नहीं सदा-ऐ-दिल-ऐ-दर्दमंद है और एक बेवफा का प्यार लिफाफे में बंद है" आपको बधाई।

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  3. इस बात से बिल्कुल सहमत हूँ की हाथ से लिखकर भेजी गई चिट्ठी में न सिर्फ़ शब्द बल्कि कुछ अंश भेजने वाले के भी रह जाते हें। ई मेल वगैरह में तो बस 'बिल गेट्स' के अंश दीखते हें! इसीलिए हमने अपने पुराने पत्र सहेज कर रखे हें।

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  4. आप ने बहुत ही गहराईयों में गोते लगाये. लिफाफे के साथ बी बहुत सारी भावनाएं जुड़ी होती हैं. आधुनिकता के चक्कर में हमने बहुत कुछ खो दिया. 'आई केअर यू' की अभिव्यक्ति इमेल या टेलीफोन से उस तरह कह पाना हमें तो असंभव लगता है. लेख बहुत ही सजीव है. आभार.

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  5. सच में तो पत्र लिखने का भाव ही पत्र से बची रह गई संवेदनाओं को कुछ हद तक व्यक्त कर देता है. एक पिता की अपने विवाहिता बेटी को लिखी चिट्ठी सिर्फ़ अलिखित को उदघाटित करने का ऑन बटन है. और माँ यही काम बिना पत्र लिखे, सर्दी में गोंद के लड्डू भेज कर या बच्चो के लिए ऊनी कपड़े भेज कर कर लेती है.
    यानी पत्र में या फोन पर'आई केअर यू' कह कर भी आप अपने प्रिय को सब कुछ लिख सकते है या कह सकते है.उसके लिए ज्ञान का बहुत बड़ा महल खड़ा करने कि आवश्यकता नही ....bhot sahi bat kahi aapne.....!

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  6. पांडे जी, किशोर जी, विनय जी, वर्षाजी,सुब्रमनियन साहब और हरकीरत जी आप सबका बहुत शुक्रिया.यहाँ मैं भाषाई वाग्जाल और शब्दों के घटाटोप से बचते हुए अंतर्मन से आपका धन्यवाद करता हूँ जो आपने इसे पढने के लिए समय निकाला.

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  7. भाषा और संवाद के माध्यम तो समय के साथ बदलते रहते हैं पर सुकुमार मानवीय रिश्तों से जुड़ी भावनाएं नहीं बदलतीं। वे तो शाश्वत हैं।

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  8. सटीक बात को बहुत ही बढ़िया तरीके से उठाया आपने वाकई......

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  9. khat kya aanand deta hai, is baare me wahi janta hai jisane khat likhe or paye hain. narayan narayan

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  10. हमारे आने वाली पीढियां अपने बच्चों से कहा करेगी चिठ्ठी लिखने के बारे में, जब वो सिर्फ़ संग्राहलय में नज़र नज़र आएँगी...बहूत सही कहा आपने और सुंदर तरीके से....

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  11. शुक्रिया नीरा जी एक अपेक्षाकृत पुरानी पोस्ट पर अपने विचार देने के लिए.चिट्ठियों के सौंदर्य शास्त्र को शायद इसी तरह फ़िर कभी किसी अन्य मंच पर विमर्श का विषय बनाया जाय!

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  12. ज भी अपने मन को किसी लिपि में ही डीकोड करते है

    पत्र में या फोन पर'आई केअर यू' कह कर भी आप अपने प्रिय को सब कुछ लिख सकते है या कह सकते है.उसके लिए ज्ञान का बहुत बड़ा महल खड़ा करने कि आवश्यकता नही है

    again the punches you have added give this post a tag of readable entity.

    I must again say that its you who can carve out something extraordinary from the ordinary.

    My maternal grandfather also wrote letters which could be read only by my mother, we could only read the date and place. I always wondered howcome the postal dept read the address. ha ha..

    regards,
    Manoj Khatri

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  13. चिट्ठियों से मेरा भी अजीब जुड़ाव है...बचपन में जब तक नानाजी थे, बहुत सी चिट्ठियां लिखते थे..मम्मी को, हम दोनों भाई बहनों को...और हम भी उन्हें खूब सारी चिट्ठियां लिखते थे, कार्ड्स बना कर भेजते थे.
    उनके गुजर जाने के बाद सिलसिला कुछ दिन टूटा...फिर कुछ दोस्तों को साथ आठ साल तक चिट्ठियां लिखीं...इधर नवंबर के आसपास फिर से चिट्ठियां लिख रही हूँ एक मित्र को :)

    इत्तिफाकन आज पापा का एक कुरियर आया है...चार साल बाद उनकी हैंडराइटिंग देख रही हूँ...अंदर चिट्ठी नहीं है...बस काम के कागज़ हैं...तो मेरे सहेजने के लिए तो बस वही लिफाफा बचता है.

    पोस्ट को पढ़ना अच्छा लगा. पुराने खत को पढ़ने जैसा.

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