पार्क जितना हरा हो सकता था, था। जितना सुंदर हो सकता था, था। एक रंगीन फव्वारा बिल्कुल बीचोबीच। तरह तरह के फूल, मुस्कुराते।झूले,स्लाइड्स,बेंचें, बच्चे,बूढे,युवा,और माली।सब कुछ भरा भरा सा। पार्क शहर की गहमा गहमी के केन्द्र में टापू की तरह था।बाहर निकलते ही इसे सब तरफ़ से सड़कें घेर लेती थीं जिन पर बेहिसाब टैफिक दौड़ता था।पार्क के बाहर सब कुछ बहुत जल्दी में था। कोई नामालूम रेस सबको भगाए जा रही थी। और सब उसे पूरा करने की जल्दी में थे।
पार्क के अन्दर, ठीक विपरीत, बिल्कुल स्लो मोशन में सब कुछ चलता था। अगर कोई बाहर से पार्क में घुसे और झूला झूलते बच्चों को देखे तो उसे झूला अपनी स्वाभाविक लय से भी धीरे...काफ़ी धीरे उतरता दिखेगा।
पार्क के अंदर की दुनिया ईश्वर की डिजाइनर सृष्टि थी। फूलों की छटा एक विन्यास को बनाती थी। घास का कालीन जादुई लोक की राजकुमारी के बागीचे से लाया गया लगता था। कोमल, स्पर्श-संकोची।
सुबह एक बार जागने पर पार्क बुजुर्गों के स्वागत में तैयार रहता था। नौकरी से रिटायर्ड ये बुजुर्ग बेचैनी से रात काट कर कुछ ज़्यादा ही जल्दी सुबह होने की घोषणा कर देते। पार्क में आकर योगाचार्यों द्वारा बताये योग पर परस्पर चर्चा से आरोग्य के बहुत ऊंचे लगे फल को लपकने की कोशिश करते।
दैनिक अखबारों के परिशिष्ट पन्नों पर चिपकी स्वास्थ्य विषयक उलजलूल शोध रिपोर्टों को वेद वाक्यों की तरह सच मानते ये बुजुर्ग ज़िन्दगी की तनी रस्सी पर, प्रकट में बेपरवाह दीखते, भरसक सावधानी से चलते। इस वक्त बच्चों के झूले खाली पड़े रहते, अलबत्ता बेंचें आबाद होतीं। इन बेंचों पर कुछ देर , सच में बुजुर्ग ज़िन्दगी को हसरत भरी निगाहों से देखते और धूप के तीखा होने तक वहीं बैठे रहते। घर वापसी का सफर भारी कदमों से ही तय होता इनका।
दोपहर में पास के दफ्तरों से लंच में भागकर युवा सहकर्मी पार्क के गुमनाम कोनो को गरिमा प्रदान करते। दुनिया से ओट करते जवान लड़के और लडकियां बाहर के ताप से बचते बचाते यहाँ कुछ महफूज की तलाश में रहते। सामने तिरछी तरफ़ बेंच पर बैठा युगल पिछले कई दिनों से यहीं था। उधर पीछे बाएँ तरफ़ बैठा लड़का पुराने रिश्ते को ख़त्म कर नए रिश्ते की डोर मज़बूत कर रहा था। और वो उधर बैठी लड़की २ महीनों से अपनी हमेशा वाली जगह बैठी थी पर नए साथी के साथ। पार्क रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर इन सबकी मेज़बानी में जुटा था।
कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की? सबसे ज़ाहिर तो ये कि अशोक की भाषा मारवाडी लहजे से लदी हुई थी और प्रियांजना अंग्रेज़ी के महानगरीय संस्करण के साथ सहज थी। तो क्या भाषा भी एक वजह हो सकती है? शायद हाँ और शायद नही। बॉबी को गाडियां बदलने का शौक था और वो ऐसा आराम से कर सकता था। उसके पिता शहर के एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। लोग कहते थे हर नई गाड़ी के साथ उसकी दोस्तों की पसंद भी बदल जाती थी, प्रियांजना भी इस बात को जानती थी पर एक साथ जितना निभता रहे क्या बुरा है यही सोच थी उसकी।
रितेश और आनंदिता लंबे अरसे से यहाँ आ रहे थे, पार्क के अन्दर उनकी उम्मीदों के पार्क की तलाश में। फिलहाल पार्क ही उनके इस रिश्ते का घर बना हुआ था। यूँ दोपहर में पार्क अपने चटख रंगों के साथ सूर्य की रौशनी में चमचमाता था। तितलियाँ कुछ और चंचल हो जातीं,गिलहरियाँ पेड़ के कोटरों में लुका छिपी खेलती, परिंदों की आवाज़ गूँज मारती रहती।
शाम के समय बच्चों की फौज पार्क पर धावा बोलती और सभी झूलों पर कब्ज़ा कर लेती। स्लाइड पर बच्चों की फिसलन पार्क को गुदगुदाती मेरी-गो राउंड के साथ पार्क घूम जाता और सी-सा पर ऊपर से नीचे आने पर पार्क को एक मीठी सी झुरझुरी महसूस होती। पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता। उसके अन्दर का बच्चा निकल कर उन बच्चों में शामिल हो जाता। अपने मम्मी-पापा को छकाते बच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बेंच का सहारा ले लेते।
रंगीन फव्वारे और रौशनी रात में पार्क के मिजाज को बदल देते। लोगों के चेहरों पर पीली और दूधिया रौशनी का परावर्तन ऐन्द्रजालिक प्रभाव उत्पन्न करता था। सब कुछ मायावी लगने लगता। लगता जैसे कोई भी सहजता से उड़कर आ सकता था और एक स्पार्कल के साथ गायब भी हो सकता था।
यहाँ लोगों के हाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं।
(painting photo courtesy- catchesthelight)
कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की? सबसे ज़ाहिर तो ये कि अशोक की भाषा मारवाडी लहजे से लदी हुई थी और प्रियांजना अंग्रेज़ी के महानगरीय संस्करण के साथ सहज थी। तो क्या भाषा भी एक वजह हो सकती है? शायद हाँ और शायद नही। बॉबी को गाडियां बदलने का शौक था और वो ऐसा आराम से कर सकता था। उसके पिता शहर के एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। लोग कहते थे हर नई गाड़ी के साथ उसकी दोस्तों की पसंद भी बदल जाती थी, प्रियांजना भी इस बात को जानती थी पर एक साथ जितना निभता रहे क्या बुरा है यही सोच थी उसकी।
रितेश और आनंदिता लंबे अरसे से यहाँ आ रहे थे, पार्क के अन्दर उनकी उम्मीदों के पार्क की तलाश में। फिलहाल पार्क ही उनके इस रिश्ते का घर बना हुआ था। यूँ दोपहर में पार्क अपने चटख रंगों के साथ सूर्य की रौशनी में चमचमाता था। तितलियाँ कुछ और चंचल हो जातीं,गिलहरियाँ पेड़ के कोटरों में लुका छिपी खेलती, परिंदों की आवाज़ गूँज मारती रहती।
शाम के समय बच्चों की फौज पार्क पर धावा बोलती और सभी झूलों पर कब्ज़ा कर लेती। स्लाइड पर बच्चों की फिसलन पार्क को गुदगुदाती मेरी-गो राउंड के साथ पार्क घूम जाता और सी-सा पर ऊपर से नीचे आने पर पार्क को एक मीठी सी झुरझुरी महसूस होती। पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता। उसके अन्दर का बच्चा निकल कर उन बच्चों में शामिल हो जाता। अपने मम्मी-पापा को छकाते बच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बेंच का सहारा ले लेते।
रंगीन फव्वारे और रौशनी रात में पार्क के मिजाज को बदल देते। लोगों के चेहरों पर पीली और दूधिया रौशनी का परावर्तन ऐन्द्रजालिक प्रभाव उत्पन्न करता था। सब कुछ मायावी लगने लगता। लगता जैसे कोई भी सहजता से उड़कर आ सकता था और एक स्पार्कल के साथ गायब भी हो सकता था।
यहाँ लोगों के हाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं।
(painting photo courtesy- catchesthelight)
सुन्दर प्रस्तुति. सभी बागीचों की यही कहानी है. चाहे वे शहर के अन्दर हों या बाहर. आभार.
ReplyDeleteकिसी गुप्त और निर्जीव कैमरे की तरह कैद करने के बावजूद सब रिश्तों की फीलिंग्स भी समा गयी है पोस्ट में. यथासंभव पार्क उतने ही सजीव होते हैं जितनी आपकी दृष्टि है. बदलते परिवेश को भली भांति रेखांकित किया है जहाँ समय का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है.
ReplyDeleteसंजय जी हमारे भी कुछ रिश्ते ऐसे हो ही गए हैं, जो चले तब तक ठीक की परिभाषा में फिट होते हैं. शब्दों ने बाँध के रखा है, बधाई
इसे कहते है स्मार्ट क्लिक.. अच्छी प्रस्तुति रही..
ReplyDeleteहर खोल के भीतर कि दुनिया दूसरे से न्यारी है, मौसम ऐसे ही बदलते हैं जैसे आप पार्क की किसी पुरानी वस्तु की आँखों से देखते हैं. इन सभी किरदारों का यूं सजीव हो उठाना ही आपके लेखन का प्राण है. ज़िन्दगी भी कमोबेश झूलों, सी-सा और मेरी गो राउंड का ही साउंड देती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. क्या चित्रण किया है बदलाव का..
ReplyDeleteहरा रंग शायद आपका फेवरेट है......नहीं जानता आपने प्रतीकों को जान बूझ के चुना या वे स्वयं इस फ्रेम का हिस्सा हो गये..... हम सभी के भीतर एक नन्हा बच्चा है छिपा हुआ है जिसे खिलखिलाए जमाना बीत चूका है ....जिंदगी का एक ओर शॉट....लॉन्ग शोट...
ReplyDeleteहर पार्क बहुत कुछ यही कहानी कहता है उसे शब्दों में हमारे लिए बाँधने की कोशिस अच्छी रही।
ReplyDeleteपार्क के सूत्र से कितनी बातें बाँध दी है आपने.एक एक पत्ता जीवन के कालखंड से साँसे लेता महसूस हुआ.सुबह से शाम तक इन्द्रधनुषी बदलाव...पाठक आपकी कहानी में अपने आप को जीवंत पार्क के रूप में महसूस करता है...सम्पूर्ण दृश्यावली सजीव हो उठती है...और धीरे धीरे कई मानसिक संवेदनाएं अलग अलग वर्गों को छूकर आती महसूस होती है...पढ़कर बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteहाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं।
ReplyDeleteथ्योरी ऑफ रिलेटिविटी का एक रूप दिखा दिया। तेज भागती सड़कों के बीच ठहरा हुआ बगीचा। कंट्रास्ट, वह भी गजब का। कहां से खींच लाते हैं इसे।
"रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर पार्क" में जीवन है ..पार्क के बाहर जीवन की रेस भर है ...बहुत अच्छी सोच !!
ReplyDeleteJab bhi main koi aitihasik jagah jaati hoon, mujhe baar baar yeh hi khayal aata hai ki is imarat me kitni saari kahaniya chchupi hui hain.
ReplyDeleteToday I felt for the first time even a park has so many stories to narrate.
You really are a master story teller.
कहानी प्रिंट से ज़्यादा विज़ुअल लगी जो आसान काम नही है.अच्छा लेखन. बधाई.
ReplyDeleteव्यास जी,
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी से प्रमुदित हुआ ! लिहाज़ा, आप और किशोरजी एक ही भूमि के रत्न हैं; कहना न होगा कि मेवाड़ से लेकर मारवाड़ तक की भूमि रत्नगर्भा भूमि है.
यह अजीब संयोग ही है कि मेरे पितामह १९०० के प्रारंभिक वर्षों में किसी राजवाडे के संस्कृत शिक्षक नियुक्त हुए थे. यह बात और है कि उनके ऐसे स्वाभिमानी व्यक्ति से नौकरी हो न सकी. राजवाडे से लौटकर उन्होंने आजीवन नौकरी न करने का व्रत ले लिया १९३४ में पितामह द्वारा अनूदित महाभारत के प्रचार-प्रसार के लिए मेरे पिताजी ने राजस्थान का भ्रमण किया था और लौटकर एक पुस्तक लिखी थी--'यात्री की आँखें'. बाल्य-काल में पढ़ी उस पुस्तक का प्रभाव मन पर था. सोचा, पितामह और पिताजी ने इस भूमि की सेवा की, गाथा गई, मैं कम-से-कम एक भ्रमण कथा-काव्य ही लिखूं ! उस भूमि से कुछ लेना-देना ज़रूर है.
फिर, बलोत्तरा और जालोर का आकाश इतना स्वच्छ रहता है कि लगता है आकाश में तारे नहीं, लाखों फ्लोरोसेंट बल्ब जल उठे हैं ! है न ?
अभी इ़तना ही, अन्यथा बात लम्बी हो जायेगी. भाई किशोरजी के माध्यम से संपर्क हुआ है तो 'बात दूर तलक जायेगी ...' पार्क' देखूंगा तो उसके बारे में भी लिखूंगा, अभी सिर्फ आना हुआ.
कविता और नागार्जुन जी के संस्मरण पर आपकी टिपण्णी के लिए आभारी हूँ. सप्रीत...
bahut sjeev chitran hare rang ke park me jeeti hui indradhnushi rango se range jindgiyo ka .
ReplyDeleteisme ak aisi aaya bhi hai jis par is park ka koi prbhav nhi use to bas apni duty khatm hone ka intjar hai .
पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता।
ReplyDeleteडाक्यूमेंट्री सा प्रभाव था...ये, और ऐसे ही कुछ और वाक्यांश इसकी खासियत हैं। बहुत खूब। लेखनी में चमक बढ़ती जा रही है।
अद्भुत समा बँधता है, एकदम सजीव...
ReplyDeleteआप सबका आभार. आपका आगमन,कुछ कहना, लगातार प्रेरित करता है.
ReplyDeleteइससे आगे के कमेंट्स बंद नहीं है:)
ReplyDeleteयहाँ आभार व्यक्त करने हेतु हस्तक्षेप किया है.
Park me to puri duniya basti hai.Bahut khub likha hai.Badhai.
ReplyDeleteभाई व्यासजी,
ReplyDeleteउम्र की जिस दहलीज़ पर खडा हूँ, वहां से पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि बारहां 'पार्क' में टहल-घूम आया होऊंगा बच्च्चों के साथ और पार्क की रंगीनियाँ मैंने भी देखी हैं, वहाँ की स्थितियों से साक्षात्कार मेरा भी हुआ है; लेकिन आपके आलेख के आलोक में 'पार्क' में टहलना अतीव सुखदायक है. आपने न केवल पार्क की हर हरकत को 'ऑब्जर्व' किया है, बल्कि उन्हें बहुत ही चित्ताकर्षक वाक्य-रचनाओं में बंधा भी है : 'पार्क रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर इन सबकी मेज़बानी में जुटा था।'... 'उसके (पार्क के) अंदर का बच्चा निकलकर उन बच्चों में शामिल हो जाता....' बहुत ही दिलचस्प बयान है, मज़ा आ गया. बधाई लें...
आपके तत्व-संग्रही मस्तिष्क का कायल हुआ जाता हूँ.... सप्रीत--आ.
"कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की?"
ReplyDeleteपार्क हस्तक्षेप तो नही कर सकता. वह तो निरीह सा बस देखता ही रहेगा.
बहुत खूबसूरती है इस पोस्ट मे
पार्क को आपने जीता - जागता गृह बना दिया... आपने सैर कराई है उसकी दुनिया, उसके रंग, ख़ुशी और गम की.. ...वो हमेशा से ऐसा ही है किन्तु उसके आस पास के लोग किस रफ़्तार से बदल रहे हैं वो भी हेरान होता होगा ...
ReplyDeleteHar park kuchh kahta hai..nice one !!
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें. "शब्द सृजन की ओर" पर इस बार-"समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को"
भावुक और सहज अभिव्यक्ति ...मन किया इसे बार बार पढूँ ...और पढूंगी! ..उतनाही सुंदर चित्र ..हम ना जाने किस जहाँ में खो गए ..! यही कह सकती हूँ !
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस अमर रहे ! हम सब मिलके हमारी माँ को सजाएँ ,संवारें !
सब लोग इतना कह दिए हैं कि समझ में नहीं आता क्या कहूँ ?
ReplyDeleteशहर की पूरी रूमानियत लिए पोस्ट। बधाई।
लण्ठ को एक ही पक्ष मिस हुआ लगता है। पार्क में घुस आए गाय, सांढ़, आवारा और पालतू कुत्ते, कोनें में निठ्ठल्ले पड़े नशेड़ी। अमिताभ की कोई फिल्म थी शायद जिसमें डल झील के सौन्दर्य वर्णन का वह एंटी थिसिस प्रस्तुत करता है।
बुरा न मानिएगा। यह भी सराहना ही है। एण्टी थिसिस को रचने के लिए थिसिस तो चाहिए ही।
गिरिजेश जी
ReplyDeleteशुक्रिया यहाँ आने के लिए.
'पार्क' में जितना कहा गया है उससे कहीं जटिल संरचना लिए होता है पार्क. मैंने बहुत सी बातें सायास-अनायास छोड़ दी है. इसकी एंटी-थीसिस शायद एक अलग पोस्ट बनती.मेरे लिखने की भी सीमाएं है.
यत्र तत्र आपकी टिप्पणिया बताती रहीं है कि हर पोस्ट का एक वैकल्पिक पाठ, जो उस पोस्ट में नहीं होता, आपके पास रहता है.
आभार.
sunder post... liked the objectivity dat u maintained as u shifted from one subject to the other... aapki iss post mein jaise mujhe ek visual film si chalti nazar aayi... a long shot, gradually zooming in... a mid shot followed by a close up nd then gradual panning... nd towards d end the frame is fades away slowly...
ReplyDeleteaur aapne apni aakhiri pankti "यहाँ लोगों के हाथ में बंधी घडियां थोडी धीरे हो जाती थीं।" ke zariye jis tarah shuruaat (पार्क के अन्दर, ठीक विपरीत, बिल्कुल स्लो मोशन में सब कुछ चलता था।) aur ant ko jodaa hai veh poori rachnaa ko ekdam intactly package kar deti hai...
s-aabhar...
वाह व्यास जी वाह... संयमित व भावपूर्ण रचना.. बधाई..
ReplyDeleteपार्क के अंदर की दुनिया ईश्वर की डिजाइनर सृष्टि थी। फूलों की छटा एक विन्यास को बनाती थी। घास का कालीन जादुई लोक की राजकुमारी के बागीचे से लाया गया लगता था। कोमल, स्पर्श-संकोची।
ReplyDeleteबच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बेंच का सहारा ले लेते।
सुन्दर शब्द संयोजन...समृद्ध शब्दकोष, अच्छा अनुभव रहा आपके ब्लॉग पर आना !!
मेरे घर के सामने भी एक पार्क है ,हर मौसम मे उसकी चहलकदमी बदलती रहती है---गर्मी के मौसम मे दिन भर अकेला रहता है और शाम को इतने मिलने वाले आते है जैसे बिमार का हाल-चाल पूछने आये हों,बारिश के मौसम मे वो बहुत खिलखिलाता रहता है क्योकि उसके कालीन पर तब कोई पैर नही रख पाता,और ठंड के मौसम मे वो सिर्फ़ अपने करीबी लोगॊ से ही मिलता है जो उससे नियमित मिलने आते है.....
ReplyDeleteआपका observation कमाल का है. खुली आँख के साथ खुला दिमाग भी होना चाहिए, जो आपको दिखा सके.
ReplyDeleteसंजय जी आप इसका एक उदहारण है की कैसे व्यक्ति जीवन की आपधापी से ऊपर उठकर कुछ सोच सकें.
रिगार्ड्स,
मनोज खत्री