
ढाबे पर बस रूकती है. ये रात की बस है जो एक छोटे शहर से लगभग महानगर को जोडती है. ढाबे की चारपाई पर बैठकर खाई गयी रोटियाँ और तीखी सब्ज़ी बेस्वादी लगती है.शायद असमय या 'कुवेला' इसका कारण हो. बहुत कम लोग उतरे हैं यहाँ. ज़्यादातर बस में और नींद में हैं. जो लोग उतरे हैं वे भी किसी ट्रांस में चलते हुए लगते हैं.सबसे सजग ढाबे का मालिक है जो अपने चरम साहूकार रूप में नज़र आता है. काम करने वाले लड़के नींद से बीमारी से और ज़िन्दगी से लड़ते हैं. नींद तब भी उनके पास मंडराती है उनके लिए कुछ सपने शायद साथ लाई है. पर बच्चे उसे परे झटकते हैं.ढाबे की सिस्टर कंसर्न एक पान की दूकान है.जिसमें एक गोविंदा पर फिल्माया गाना फुल वोल्यूम पर चल रहा है.रात के इस वक्त यहाँ सवारियों में कई तो इसलिए उतरी है कि पेशाब का मौका अब आगे नहीं मिलेगा और लगे हाथ चाय भी पी लें.
इस उमस और ढाबे की तेज़ रौशनी में बड़े बड़े टिड्डे प्रणय- उड़ान भर रहे हैं। उनकी एकमात्र इच्छा सब कुछ हैरत अंगेज़ करवा रही है.इससे बिलकुल अप्रभावित लोग चाय पी रहे हैं.
एक युवती क्यों अपने शयन को छोड़ यहाँ उतरी है? हमारे श्रीमान जी को इस कुसमय में कुछ नहीं सुहा रहा पर दिमाग में हार्मोन का वेग टिड्डों से टक्कर लेने लग गया है. युवती वापस बस में चढ़ गयी है.
श्रीमान जी की प्रणय उड़ान की भी इसके साथ ही क्रेश लेंडिंग होगयी.
कुछ ही देर में बस ढाबे की आक्रामक रौशनी को छोड़ फिर से मखमली अँधेरे में घुसी जा रही थी. नींद फिर सभी सीटों पर पसर रही थी।ऐसे में धीमी धीमी आवाज़ में ' ओ गाडी वाले गाडी धीरे हांकना ' सुनना सुकून भरा था.लगता है ये ढाबे वाला स्टॉप कोई बुरा सपना था. बस में सोये यात्री कितने मासूम लग रहे थे ! विश्वास करना मुश्किल है कि सुबह ये नींद और मासूमियत की केंचुल यहीं छोड़ जायेंगे.
पर शायद कुछ इनमें भी बचे रहेंगे इसी चेहरे के साथ. कल सबसे ज्यादा ठोकरें इन्हीं के खाते में लिखी है.
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