Sunday, September 18, 2011

साईकल की घंटी


वो मानता था कि नामों का भी भूगोल होता है.

हनुमान जी का ये मंदिर उसे प्रिय था क्योंकि पूरी पृथ्वी पर यही एक जगह थी जहां उसे वो पहली बार मिली थी.धीरे धीरे उसकी आस्था हनुमान जी में भी बढती गयी, पर उसे हनुमान नाम काफी सुदूर सा लगता था.उसके परिचित भूगोल के आसपास का नहीं. इसी वज़ह से उसने हनुमान जी को 'हडुराम जी' कहना शुरू किया था. ये नाम पडौस का ही लगता था. इस तक पहुंचा जा सकता था. उसका सोचना था कि इसमें खासा तर्क भी था. आप सिल्विया की बजाय सीमा तक अधिक आसानी से पहुँच सकते है.या मार्था की बजाय मीरा तक.अपने अपने तर्क हैं. और हर तर्क अंततः अब्सर्ड ही होता है.

इस मंदिर में खासी भीड़ रहती थी.खास कर मंगलवार को.उसे बाद में पता चला की शनिवार को भी वीर बजरंगी अपना दरबार लगाते हैं. इस दिन भी भीड़ कोई कम नहीं होती. ऐसे ही एक भीड़ भरे वार को उसने उसे देखा था.मंदिर के पास. हालांकि परिचय थोडा अधिक पुराना था पर इस जगह उस दिन उसे देखना एक अलग ही अनुभव था उसके लिए.परिचय इतना भर था कि दोनों इस धरती पर उनके देखी किसी जगह पर रहतें है,बस! चौमासे के दिनों में बादल कई दिनों के छलावे के बाद सच में उस दिन कुछ करने पर उतारू थे .शाम कुछ पहले ही अँधेरी हो गयी थी.और इतने लोगों के साथ मंदिर, उसकी ध्वजा और ड्योढ़ी पर गेरुए में बैठे भिखारियों के साथ प्रसाद बेचने वाले सौदागरों की अन्यथा रंगीन दिखने वाली छवियों को श्वेत श्याम चित्रावली में बदल दे रही थी.ये उसे पता नहीं था कि उसका, उसे, यहाँ मिलना कितना आकस्मिक था और कितना सुचिंतित.या शायद दोनों में से कुछ भी नहीं.मंदिर और महात्माओं के साथ चौमासे का ये सुरमई पल सबसे बड़ा उद्दीपक था जिसने उनके बीच के तार में विद्युत धारा बहा दी थी. कोई ख़ास क्षण उत्प्रेरक बन बैठता है.कुछ कुछ वैसे ही जैसे ट्रेन के डिब्बे में सामने बैठी कोई अनजानी लड़की कभी कभी सबसे करीब हो सकने की लालसा से भर देती है. इसमें भी पटरियों पर भीषण गतिमान, बीहड़ के बीच फिसलते वक्त में सब कुछ बेहद कीमती और जीवन से भरा लगने लगता है.ऐसे ही सर्वथा उचित पल को लपकने का मन करता है.पर ये अक्सर अनायास ही, बिलकुल अनपेक्षित रूप से उपस्थित हो जाया करता है.

प्रेम सबके जीवन में आता है.इसके आगमन को समझने के लिए किसी महान किताब को पढ़ना ज़रूरी नहीं है,किसी क्लासिक फिल्म को देखा होना भी अनिवार्यता नहीं. कान नाक या नेत्र खुले रखना भी कतई शर्त नहीं.चाय के ढाबे पर या नाई की दुकान पर जागते या सपने में एक दिन अचानक इसका आगमन होता है और ट्रेन के डिब्बे में बैठे बैठे इंजन लगने के धक्के की तरह ये पूरे भार के साथ अपनी अनुभूति करा देता है.एक बार, कम से कम एक बार ये हरेक में उतरता है.गंजेड़ी चिलमची साधू गृहस्थ मुनीम व्यौपारी जवान अधेड खिलाड़ी भिखारी. सब के भीतर.

तो वो कोई अपवाद तो था नहीं. पर उसे विश्वास नहीं हुआ कि भाई बहनों में सबसे नाकारा माना जाने वाला वो शख्स जिस पर बड़ी भाभी कई बार इलज़ाम लगा चुकी थी कि वो फ्रिज में से फ्रूट चुरा कर खाता है और जिसकी गवाही भैया ने भी दी थी, इस लायक माना जाएगा कि वो प्रेम का स्पर्श कर सके.

पर था कुछ ऐसा ही. घर से पहले अच्छी खासी चढाई और फिर सीधी ढलान के आखिर में था ये मंदिर.वो साइकल को चढाई पार कर वहाँ लाता जहां से ढलान शुरू होती थी.और वहाँ वो दो एक मिनट सुस्ताता.ये ख्याल उसमे पर्याप्त ऊर्जा भर देता कि अब साइकल की ढलान यात्रा शुरू होगी.साइकल को ढलान पर लुढकाना उसे बहुत अच्छा लगता था.इन दिनों वो ढलान रहते लगातार घंटी बजाता रहता.उस गबदू को ऐसा करना सिर्फ सुहाता था बस. पर कोई अक्लमंद भी सोच सकता है भले जिसकी मति इश्क में अभी मारी नहीं गयी हो, कि असल में साइकल की घंटी कुछ सबसे चुनिन्दा रूमानी ध्वनियों में से एक होती है.

मौसम की पहली बारिश जैसी पवित्र शीतलता और कहीं नहीं होती. उसी बारिश में एक बार मंदिर तक जाती ढलान से वो साइकल पर उतर रहा था.फुहारों के नर्तन के साथ साइकल की घंटी की गूँज दिव्य जुगलबंदी कर रही थी. मंदिर की आरती के समय बजने वाली घंटी में अभी देर थी. पर उसका यहाँ आने का क्रम पिछले कई सालों से था. लड़की अरसे से यहाँ नहीं आ रही थी. बल्कि वो इस शहर में थी भी या नहीं ये भी तय नहीं था.उसके और लड़की के बीच इस बारे में कोई संवाद नहीं हुआ था. सच तो ये था कि उनके बीच में आज तक किसी तरह का कोई संवाद नहीं हुआ था. ये परिचयहीन प्रेम था. अनाम. सम्बोधनरहित. निराकार. निरुद्देश्य. गंतव्य से परे.

उसकी साइकल की घंटी में मिठास आज भी वैसी ही थी.



( photo courtesy - NoiseCollusion )

15 comments:

  1. इस बार आप अलग अंदाज़ में दिखे है ....थीम बहुत खूबसूरत है ....उन्नीस बीस साला भावुक प्यार ..मंदिर ओर साइकिल का पुराना रिश्ता ........पर पोस्ट में कही भावुकता हावी नहीं है ....कही से कुछ प्रेडेकटेबल भी नहीं है
    "प्रेम सबके जीवन में आता है.इसके आगमन को समझने के लिए किसी महान किताब को पढ़ना ज़रूरी नहीं है,किसी क्लासिक फिल्म को देखा होना भी अनिवार्यता नहीं."

    ....यूँ भी कहते है बुद्धिमानो का प्रेम रोमांच पैदा नहीं करता न उत्तेजना ......
    एक बात ओर प्यार में बुद्धिमान आदमी भी बुद्धिमान नहीं रह जाता !

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  2. साइकल की घंटी कुछ सबसे चुनिन्दा रूमानी ध्वनियों में से एक होती है

    सच है.
    इस बार वाकई अलग मूड में दिखे आप

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  3. बहुत सुन्दर, रूमानी सी. आज हम भी प्रभु को पिंटो बनाने के मूड में हैं.

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  4. ऐसा चित्र कि जैसे गया वक़्त ख़याल की क़ैद में उनींदा बैठा हो. सायकल की घंटी के सुर ने इन शब्दों से रचे गए कोलाज के जरिये सभी सुरों को मात दे दी है.

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  5. साईकिल की घण्टी की रूमानियत पर ध्यान पहली मर्तबा गया.... सच मुच वो अद्भुत ध्वनि होती
    थी . कर्णप्रिय और दिव्य ! यहाँ पहाड़ पर यह ध्वनि प्रायः सुनने को नही मिलती...आज यह पोस्ट पढ़ कर लग रहा है कि मैं इन दिनों लगातार एक शहर को *मिस* करता रहा हूँ ! यह खयाल अपने आप मे नायाब है! शहर और मैदान मेरी स्मृतियों मे ज़िन्दा हैं आज भी. मेरा विस्थापन कुछ उलटी दिशा मे हुआ है..... जब कि पडःाई और करियर की तलाश मे जब पहाड़ से शहर मे उतरा था तो घर की स्मृतियाँ इतना हॉंन्ट नही करती थी. और प्रेम भी :

    " एक बार, कम से कम एक बार ये हरेक में उतरता है.गंजेड़ी चिलमची साधू गृहस्थ मुनीम व्यौपारी जवान अधेड खिलाड़ी भिखारी. सब के भीतर." क्या बात है !

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  6. प्रेम का इक यह रूप... साइकिल की घंटी में बजता- पुकारता... गज़ब!

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  7. इंजन की सीटी में मेरा मन डोळे के स्थान पर कहने को मन हो रहा है कि सायकिल की घंटी में मन डोला ...
    अभागा ही होगा वह मनुष्य जिसने जीवन में कभी प्रेम का अनुभव नहीं किया हो ...
    अनुराग जी से जाना आपके ब्लॉग को , वैसा ही पाया !

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  8. "एक दिन अचानक इसका आगमन होता है और ट्रेन के डिब्बे में बैठे बैठे इंजन लगने के धक्के की तरह ये पूरे भार के साथ अपनी अनुभूति करा देता है" uncomparable metaphor.

    आप बहुत दिनों बाद आये और कुछ ऐसा लिखा है के मन से वाह निकल रहा है

    वह !!

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  9. @ डॉ.अनुराग,
    बिलकुल सही सर.मामला किशोर वय का है और थीम में कहीं न कहीं मेरी उसी उम्र की निरपेक्ष ऑब्ज़र्वर के रूप में जमा स्मृतियाँ हैं.


    @अजेय जी,
    आदमी का विस्थापन कई कई बार होता है. आपकी टिप्पणी में पंक्तियों के बीच के मर्म की बात करूँ तो कहूँगा कि आदमी की जड़ें उसके बचपन के घर आँगन में ही होती है ये सिर्फ इकहरा सच है.

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  10. वाह......अति सूधो सनेह को मारग है...

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