Saturday, July 28, 2012

देवालय से दुर्ग


राणकपुर से कुम्भलगढ़.देवालय से दुर्ग की ओर.जैन मंदिर परिसर के विशाल काष्ठ-द्वार से प्रस्थान.पहाड़ों की विनम्र ऊंचाइयां और ढलानों का सौहार्द्र.अरावली यहाँ प्रार्थनाएं बुदबुदाता लगता है.एक पवित्र प्रदक्षिणा में गाड़ी बढती जाती है.हमने दुनिया से ओट ले रखी है. आगे एक जगह एक दयनीय से बोर्ड पर तीर के दो निशान उदयपुर और कुम्भलगढ़ की तरफ जाने का संकेत कर रहे हैं.मैं वाहन कुम्भलगढ़ की ओर मोड़ लेता हूँ.प्राचीन अरावली का मेरुदंड कब का बुरादा हो चुका है.इसका कंकाल भी भुरभुरा हो चुका है.अरावली अपने ही जीवाश्म के रूप में शेष बचा है.

पर उत्तुंगता फिर भी छलावा है.ये वहाँ अपने को प्रकट करती है जहां हमारी सोच तक में नहीं होती.और अपने पर पाँव धरे जाते ही ये शून्य को उदग्र भेदती वेग के साथ आरोहण करती है. एक मोड़ के तुरंत बाद अप्रत्याशित ऊँचाई ने गाड़ी पर मेरी पकड़ में कंपन पैदा कर दिए. उससे उतरते ही मोड़ के बाद एक और तीखी चढान ने ऐसे रास्तों पर मेरे पहली बार होने के भेद को उजागर कर दिया.आगे ताज़ा कोलतार का रेला सरपट उतर कर एक आह के साथ मरोड़ खा कर फिर ऊँचाई की किसी फुनगी पर चढ़कर गुम हो रहा था.इसी 'धक्'-कारी मोड़ पर किसी ने गाँव-भर मिट्टी ढूह बनाकर जमा कर रखी थी. मेरी छोटी गाड़ी को इसी में  धंस कर कोलतार के साथ एक सांस में ठेठ ऊपर चढ़ना था.सड़क के एक तरफ पहाड़ था तो दूसरी और अंधा खड्ड.रास्ते का कगार जैसे अंतिम छलांग के लिए ही  छोड़ा हुआ था.राणकपुर से दूदालिया होकर कुम्भलगढ़ का ये रास्ता शायद प्रचलित रास्ता नहीं था.जो भी हो मेरे लिए ये अनंत को जाती सूच्याकार चढाईयां थी जिन पर पहुंचकर उसके उच्चतम बिंदु पर अपने गुरुत्वकेन्द्र को भी साध कर रखना था.


किसी नक्षत्र की तरह टिमटिमाते इस शिखर बिंदु पर गाड़ी कैसे पहुँचकर कहाँ लुढकती है, सोच पाना आसान नहीं है पर लगता है कोई उसे यहाँ की,हम लोगों की दुनिया में फेंकता है और मेरे लिए कुम्भलगढ़ का किला एकदम सामने आता है.हठात.किसी एंटिटी की तरह.एक ज़माने में ये ज़रूर पत्थर गारे का संयोजन रहा होगा पर फिर धीरे धीरे किसी व्यक्तित्व में बदल गया था.
संगो खिश्त से हाड़ मांस का ढेर और फिर किसी बारिश में गिरी भीषण बिजली ने इसमें जैसे चेतना दौड़ा दी हो.इसके कंधे पर पाँव रखते हुए सर पर सवार होना एक खूबसूरत अनुभव है पर सर पर लोहे की रेलिंग के मुकुट से नीचे झांकना शरीर में ऐसी झुरझुरी दौड़ाता है जैसे किसी ने देह में बारिश के कीड़े झौंक दिए हों.

वापसी में किले से नीचे उतरती ढलान पर आगे जाकर केलवाड़ा है. यहाँ से चारभुजा के   ठीक पहले देसूरी की ओर उतर कर अपने ठिकाने जोधपुर जाने की आशु-योजना बनाई.सामने कई किलोमीटर तक का घना जंगल है.अरावली के महाखड्ड में जीवन कई तरह से पनपता है.गाड़ी कुछ ढलानों से होकर जंगल के गाढ़ेपन में घुसती है.एक लंबी थका देने वाली खोह.घात में बैठे किसी हिंस्र पशु की तरह जंगल यहाँ बहुत सधा हुआ लगता है.एकदम तैयार.लगातार आपका पीछा करता हुआ.वैसे ही जैसे काफ्का ऑन द शोर में काफ्का तमूरा को लगता है,जब वो पहली बार जंगल में घुसता है.
   


7 comments:

  1. चित्रों में व्यक्त भारत का गौरव..

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  2. अहा ! बहुत सुन्दर चित्र और वर्णन है ।

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  3. कभी शाब्दिक विवरण (खास तौर पर जब संजय व्यास लिख रहा हो )इतने ताक़तवर होते हैं कि फोटोग्राफ बेमानी लगने लगते हैं . बल्कि डिस्टर्बिंग भी. वैसे इन फोटोग्राफ्स की स्वतंत्र रूप से अलहदा कलात्मक वेल्यू है.

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  4. आह! कुम्भलगढ़!

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  5. @अजेय जी-कई बार फोटोग्राफ्स वाकई डिस्टर्बिंग लगते है इससे सहमत हूँ.सारे फोटोज हटा दिए हैं.किसी अलग पोस्ट में लगाता हूँ.
    शुक्रिया.

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  6. शब्‍द चित्रों की भी एक प्रदर्शनी होनी चाहिए। दीवार पर बड़े अक्षरों में लिखे हुए ये छोटे पैराग्राफ पढ़ते हुए आगे बढ़ते जाएं और दिमाग में चित्र बनते जाएं।


    कभी कोशिश कीजिएगा, शायद एक नई शुरूआत हो जाए...


    मेरा एक दोस्‍त टैक्‍सट फोटोग्राफी करता है, वह एक चित्र को लेकर उससे अपना बनाया एक विशिष्‍ट टैक्‍सट जोड़ता है, जो चित्र को और अधिक प्रभावी बनाए, लेकिन आपके लेखन में चित्रों की भी जरूरत दिखाई नहीं देती...

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