Sunday, May 12, 2013

पार्क (परिवर्धित)

(अपनी पहले की एक पोस्ट को नए परिवर्धित रूप में आपके सामने रख रहा हूँ.इसमें पिछली पोस्ट से कहीं ज़्यादा शेड्स हैं इसलिए इसे आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ.)


पार्क जितना हरा हो सकता था, था.जितना सुंदर हो सकता था, था। एक रंगीन फव्वारा बिल्कुल बीचोबीच.तरह तरह के फूल, मुस्कुराते।झूले,स्लाइड्स,बैंचें,बच्चे,बूढे,युवा,और माली।सब कुछ भरा भरा सा। पार्क शहर की गहमा गहमी के केन्द्र में टापू की तरह था।बाहर निकलते ही इसे सब तरफ़ से सड़कें घेर लेती थीं जिन पर बेहिसाब टैफिक दौड़ता था।पार्क के बाहर सब कुछ बहुत जल्दी में था। कोई नामालूम रेस सबको भगाए जा रही थी. और सब उसे पूरा करने की जल्दी में थे.
पार्क के अन्दर, ठीक विपरीत, बिल्कुल स्लो मोशन में सब कुछ चलता था.शहर की दौड़ के रास्ते का लूप था पार्क.एक तेज़ भागते शहर को मुड़कर फिर तेज़ भागना था.मुड़ने के दौरान शहर कुछ देर सुस्ताता था.हाँफते शहर को अपनी साँसे नियंत्रित करने यहीं आना था.उसे इसके बाद फिर से शुरू करनी थी अपनी अंधी रेस.पार्क ही स्थान था जो इस शहर की गति सोख लेता था. उसकी अनियंत्रित साँसों में तारतम्य लता था.जैसे कोई किसी बेचैन आदमी की दिमाग़ी खटर पटर को कुछ देर के लिए टूल डाउन करवा दे. उसे सम्मोहन से कुछ देर शांत कर दे.उस बदहवास को हलकी मदहोशी के आलम में ले आये.पार्क के आकाश में उड़ते परिंदे के पर किसी खुमारी में उठते गिरते थे. अगर कोई बाहर से पार्क में घुसे और झूला झूलते बच्चों को देखे तो उसे झूला अपनी स्वाभाविक लय से भी धीरे...काफ़ी धीरे उतरता दिखेगा।

पार्क के अंदर की दुनिया ईश्वर की डिज़ाइनर सृष्टि थी। फूलों की छटा एक विन्यास को बनाती थी।इन फूलों के रंगों का कोलाज आँख के स्वाभाविक उद्दीपन में एक प्यास भरता था.फूलों के आसपास मंडराते कीट-भ्रमर एक मोह में फंसे रहते.उनके लिए ये सब रंगीन सुरंगें थीं जो आपस में मिलकर एक दुसरे में गुम हो जातीं थीं. पार्क में बिछा घास का कालीन जादुई लोक की राजकुमारी के बागीचे से लाया गया लगता था।घास की पत्तियाँ किसी की आहट भर से झुक जातीं,बिछ जातीं.वे थीं हीं ऐसी. कोमल, स्पर्श-संकोची।
सुबह एक बार जागने पर पार्क बुजुर्गों के स्वागत में तैयार रहता था। नौकरी से रिटायर्ड ये बुजुर्ग बेचैनी से रात काट कर कुछ ज़्यादा ही जल्दी सुबह होने की घोषणा कर देते। पार्क में आकर योगाचार्यों द्वारा बताये योग पर परस्पर चर्चा से आरोग्य के बहुत ऊंचे लगे फल को लपकने की कोशिश करते।
दैनिक अखबारों के परिशिष्ट पन्नों पर चिपकी स्वास्थ्य विषयक उलजलूल शोध रिपोर्टों को वेद वाक्यों की तरह सच मानते ये बुज़ुर्ग ज़िन्दगी की तनी रस्सी पर, प्रकट में बेपरवाह दीखते, भरसक सावधानी से चलते। इस वक्त बच्चों के झूले खाली पड़े रहते, अलबत्ता बैंचें आबाद होतीं। इन बेंचों पर कुछ देर, सच में बुज़ुर्ग ज़िन्दगी को हसरत भरी निगाहों से देखते और धूप के तीखा होने तक वहीं बैठे रहते।फिर उठने का उपक्रम करते.फिर सुस्ताते,बैठ जाते जैसे सूरज निकलने में अभी वक्त हो.असल में धूप तब तक सर पर आ चुकी होती थी.अंततः वे उठते.अगले दिन फिर आने के लिए.किसी नीम की निचली डाल से अपने लिए दातुन तोड़ते और चल देते.एक बार जब वे रवाना हो जाते तो अपने साथी बुज़ुर्गों से कोई बात नहीं करते.वे यूं मुंह फेरते जैसे उनसे कभी मिले ही न हो.पार्क की तरफ भी किसी स्नेह से नहीं देख पाते थे वे.निर्लिप्त भाव उनमें जगह बना कर अपना आकार बढाता रहता.कल जब सुबह उनका आना होगा तो बेंचों पर बैठे फिर से उनमें अनुराग का भाव देखने लायक होगा. इस तरह वे राग-विराग-अनुराग सब एक ही दिन में जी लेते थे. वे बिना अपने बीमार घुटनों की परवाह किये राग से विराग और बैराग से अनुराग की दुनियाओं में पाँव धर लेते थे.

दोपहर में पास के दफ्तरों से लंच में भागकर युवा सहकर्मी पार्क के गुमनाम कोनो को गरिमा प्रदान करते। दुनिया से ओट करते जवान लड़के और लडकियां बाहर के ताप से बचते बचाते यहाँ कुछ महफूज़ की तलाश में रहते। सामने तिरछी तरफ़ बैंच पर बैठा युगल पिछले कई दिनों से यहीं था। उधर पीछे बाएँ तरफ़ बैठा लड़का पुराने रिश्ते को ख़त्म कर नए रिश्ते की डोर मज़बूत कर रहा था। और वो उधर बैठी लड़की दो महीनों से अपनी हमेशा वाली जगह बैठी थी ,पर नए साथी के साथ। पार्क रिश्तों के किसी कायदे से बेखबर इन सबकी मेज़बानी में जुटा था।
कल तक प्रियांजना और अशोक साथ दिखते थे,आज यहाँ प्रियांजना और बॉबी दिख रहे हैं।अशोक ने यहाँ आना बंद कर दिया है। क्या वजह हो सकती है दोनों में ब्रेक अप की? सबसे ज़ाहिर तो ये कि अशोक की भाषा मारवाड़ी लहज़े से लदी हुई थी और प्रियांजना अंग्रेज़ी के महानगरीय संस्करण के साथ सहज थी। तो क्या भाषा भी एक वजह हो सकती है? शायद हाँ और शायद नही। बॉबी को गाडियां बदलने का शौक था और वो ऐसा आराम से कर सकता था। उसके पिता शहर के एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। लोग कहते थे हर नई गाड़ी के साथ उसकी दोस्तों की पसंद भी बदल जाती थी, प्रियांजना भी इस बात को जानती थी,पर एक संग-साथ जितना निभता रहे क्या बुरा है,यही सोच थी उसकी।
रितेश और आनंदिता लंबे अरसे से यहाँ आ रहे थे, पार्क के अन्दर उनकी उम्मीदों के उद्यान की तलाश में। फिलहाल पार्क ही उनके इस रिश्ते का घर बना हुआ था। पार्क का माली इन सब नौजवानों को शक की नज़र से देखता था.शाम को पार्क में नियमित वॉक पर आने वाले लोगों से फिर वो दुपहरी के किस्से साझा करता था.इन किस्सों में वो अपनी फैंटेसी भी मिला लेता था.उसकी नज़र में दुपहरी के ये किस्से व्यभिचार की सत्यकथाएँ थीं जिनका गवाह वो ख़ुद था.तल्ख़ होकर वो इन युवाओं के कदाचरण पर टिप्पणी करता पर इनकी आफ्टरनून स्टोरीज के अन्तरंग प्रसंगों को सुनाते वक्त वो कई बार आनंद विभोर हो जाता था.


यूँ दोपहर में पार्क अपने चटख रंगों के साथ सूर्य की रौशनी में चमचमाता था। तितलियाँ कुछ और चंचल हो जातीं,गिलहरियाँ पेड़ के कोटरों में लुका छिपी खेलती, परिंदों की आवाज़ गूँज मारती रहती। कुछ ऊंचे पेड़ों की डालियाँ दोपहर की पतली हवा से कभी कभार हिलती फिर स्थिर हो जातीं.उनका अपनी जगह से हिलना बड़ा सटल तरीके से होता था.देखने वाला स्थिर डाली को हिलने पर भी उसे कुछ क्षण थिर ही मानता और इस हिलने को देखता प्रेक्षक उसके रुकने को कुछ पल बाद ही नोट कर पाता था.गतिमानता और थिरता में परस्पर स्थिति परिवर्तन बड़ा ही सूक्ष्म तरीके से होता था.पर ये लीलाएं अक्सर बिना दर्शक के चलतीं रहतीं थीं.पार्क के जीव अपनी अपनी दिनचर्याओं में ही मस्त रहते थे,व्यस्त रहते थे.कह सकतें हैं कि माली के अलावा सब अपने में व्यस्त थे मस्त थे. माली दोपहर में पार्क का पहरेदार हो जाता.उसकी सतर्क निगाहें खुर्दबीन की शक्ल में हर सूक्ष्म गतिविधि को नोट करतीं.पार्क के वातावरण में तिल भर परिवर्तन भी उसकी दृष्टि के परास में आ जाता.वो दोपहर का बेचैन भन्नाता कीट था पर शाम होते होते वो शिथिल पड़ने लगता.वो बैठ कर सुस्ताता और शाम को वॉक पर आने वालों का इंतज़ार करता.



शाम के समय बच्चों की फौज़ पार्क पर धावा बोलती और सभी झूलों पर कब्ज़ा कर लेती। स्लाइड पर बच्चों की फिसलन पार्क को गुदगुदाती, मेरी-गो राउंड के साथ पार्क गोल गोल घूम जाता और सी-सॉ पर ऊपर से नीचे आने पर पार्क को एक मीठी सी झुरझुरी महसूस होती.पार्क शायद सबसे चुलबुला शाम को ही होता। उसके अन्दर का बच्चा निकल कर पार्क में आये बच्चों में शामिल हो जाता. अपने मम्मी-पापा को छकाते बच्चे पार्क की लम्बाई को नापते रहते और माँ-बाप हार कर बैंच का सहारा ले लेते.पार्क में जहां सब कुछ स्लो मोशन में होता प्रतीत होता था,बच्चे इसका अपवाद थे.वे पार्क में चपलता और गति से कॉन्ट्रास्ट भरते थे.उनकी ऊर्जा का कुछ हिस्सा पार्क भी ले लेता था और सुस्ताते मां बाप को किनारे कर वो बच्चों के खेल में शामिल हो जाता.
रंगीन फव्वारे और रौशनी रात में पार्क के मिजाज को बदल देते. लोगों के चेहरों पर पीली और दूधिया रौशनी का परावर्तन ऐन्द्रजालिक प्रभाव उत्पन्न करता था। सब कुछ मायावी लगने लगता। लगता जैसे कोई भी सहजता से उड़कर आ सकता था और एक स्पार्कल के साथ गायब भी हो सकता था।

4 comments:

  1. एक बार जब वे रवाना हो जाते तो अपने साथी बुज़ुर्गों से कोई बात नहीं करते.वे यूं मुंह फेरते जैसे उनसे कभी मिले ही न हो.पार्क की तरफ भी किसी स्नेह से नहीं देख पाते थे वे.निर्लिप्त भाव उनमें जगह बना कर अपना आकार बढाता रहता.कल जब सुबह उनका आना होगा तो बेंचों पर बैठे फिर से उनमें अनुराग का भाव देखने लायक होगा. इस तरह वे राग-विराग-अनुराग सब एक ही दिन में जी लेते थे. वे बिना अपने बीमार घुटनों की परवाह किये राग से विराग और बैराग से अनुराग की दुनियाओं में पाँव धर लेते थे.....................................................पार्क को जीवंत कर दिया आपने। बहुत ही दिलकश संस्‍मरण। मन यह पोस्‍ट पढ़ कर अत्‍यन्‍त आनन्दित हुआ। इस हेतु बधाई।

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  2. वाह पार्क का पूरा रोजनामचा हफैल शहर के नाम .अंदाज़े ब्यान विकेश भाई से सीखे कोई .विवरण और चित्रण के माहिर कलाकार हैं विकेश भाई बडोला .

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  3. वाह पार्क का पूरा रोजनामचा हफैल शहर के नाम .अंदाज़े ब्यान विकेश भाई से सीखे कोई .विवरण और चित्रण के माहिर कलाकार हैं विकेश भाई बडोला .संजय व्यास से मिलवाया शुक्रिया .

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  4. पार्क में जीवन के विभिन्न रूपों का चित्रण बहुत ही गहन और रोचक ढंग से किया है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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