(चित्र गूगल से साभार)
जिस जगह वो रहता था उस जगह के आगे कोई बस्ती नहीं थी. कई पीढीयों
से इस आखरी बस्ती के छोर से आगे जाने की अघोषित मनाही थी..गाँव के लोग सरगोशियों
में बात करते और बच्चों को इशारों इशारों में उस तरफ जाने से मना
करते.किम्वदंतियां भी सच का अंश लेकर ही खड़ी की जातीं हैं और प्रचलित स्थानीय
कथाएँ सुन सुन कर उसे पक्का विश्वास हो गया था कि दुनिया के गोल होने बातें महज़ बकवास थीं,और
दुनिया का छोर इसी बस्ती से आगे ही कहीं है जहां धरती एकदम किसी तीक्ष्ण किनारे
में समाप्त होकर एक बड़े ही भयावह और अंतहीन खड्ड में गिर जाती थी.चूँकि ये दुनिया
का छोर था इसलिए इस खड्ड में सब कुछ त्याज्य,गैर ज़रूरी,और अक्षम ठेल दिया जाता था.इस
तरह ये एक विशालतम कचरा पात्र था और
दुनिया आखिर इसी कचरापात्र में समाप्त हो जाती थी. इस गाँव के लोग धरती की
स्मृतियों से भी विस्थापित लोग थे.वे जगह जगह से बुहारे हुए लोग थे. इस आखिरी जगह
वे किसी तरह टिक गए थे, क्योंकि वे ‘ज्ञात सब कुछ’ से
भी बाहर हो गए थे.उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए एक तरह से वे थे ही
नही.वे किसी मानव विज्ञानी के रजिस्टर में
भी नहीं रह गए थे.उनके बचे होने के बारे में बीच में बसे यानी अंदरूनी दुनिया के किसी
भी व्यक्ति को मालूम नहीं था और (क्योंकि) किसी को इसकी ज़रुरत भी नहीं रह गयी थी.
इस गाँव के लोग अंततः इसी विराट खड्ड में कचरे की तरह ठेल दिए
जायेंगे. तमाम से निर्वासित होकर ही उन्हें यहाँ छोर पर रहने कि जगह मिली थी और ये
निर्वासन सतत और क्रमिक होता गया था. अंतिम जगह इसी महान कूड़ा लोक में मिलनी थी.ऐसा
नहीं था कि ये गाँव ही इस कूड़ा लोक से ठीक पहले का आखरी गाँव था,बल्कि ये नियति और
भी कई बसावटों की थी.हर करकटलोक के किनारे एक महान झोपड़पट्टी विकसित होती है,बल्कि
दोनों में कोई संरचनात्मक फर्क नहीं होता.वैसे ही बहुत सारे गाँव धरती के छोर पर
बसे थे.वे हमेशा डरे रहते थे कि उन्हें कभी भी, नीचे बजबजाते लोक में ठेल दिया जाएगा.डर
कई संततियों के व्यक्तित्व में नैसर्गिक रूप से समा गया था.उसने हरेक को उसके
चेहरे की मांसपेशियों में आवश्यक परिवर्तन करके उसे स्थायी रूप से भयभीत चेहरा दे
दिया था. वे सब हर काम इसी डरे हुए चेहरे के साथ करते.प्रेम करते वक्त भी वे डरे
हुए रहते.लड़की इसे बुरा नहीं मानती क्योंकि वो खुद भी वैसी ही थी. और उसने हर समवय
पुरुष को ऐसा ही देखा था.एक नया ही सौन्दर्य शास्त्र विकसित हो गया था.बच्चे जवान
और बूढ़े सभी डरे हुए.
उनकी बसावटें अंधेरों में रहतीं थीं.गर्मियों में सूरज का दाह
उनके टीनटप्पर तोड़ कर घरों में घुस जाता.वो हर चीज़ को जला डालने की ज़िद थामे
रहता.उनकी मटकियें उबलने लगतीं,बच्चों के गले सूज जाते,स्त्रियों की आँख का पानी
भाप बन कर उड़ जाता.सर्दियों में दिन पूरे चौबीस घंटे उनकी परीक्षा लेता.हिम दाह से
उनकी चमड़ी पर नीले निशान बन जाते.उनकी आँखें पुतलियों सहित जम जाती.वे इस तीव्रता
के बने रहने तक निर्निमेष ही देखते रहते.वे हर अगले मौसम की ही प्रतीक्षा करते
रहते. सिर्फ मौसम ही नहीं बल्कि वे सुबह होती तो दुपहरी और दुपहरी में शाम का ही
इंतज़ार करते.उनके जीवन के हर दिन का हर प्रहर प्रतीक्षा में ही लगा रहता था.शायद
वे इसीलिए जीवन यात्रा में बने हुए थे कि उन्हें हर अगली बार में बेहतर होने की
उम्मीद थी. और जिसकी प्रतीक्षा में वे थोड़ा और जी लेते थे. वो बेहतर क्या था इसकी सही
परिभाषा यद्यपि उनके पास नहीं थी.मौसमों का बेहतर हो जाना उनके जीवन के बेहतर हो
जाने की गारंटी नहीं था,बल्कि ये तो तात्कालिक राहत था.इसके बाद भी जीवन अपने विकराल रूप में ही था.असल में
वे बेहतर की उम्मीद ही कर रहे थे,उन्हें खुद पता नहीं था कि उनके लिए बेहतर क्या
था.अँधेरे और उमस से भरे जीवन में कुछ भी अच्छा होना कितना सुदूर था! लगभग छलावे
की तरह.मरीचिका जैसा कुछ.उनकी उम्मीद में पानी का सोता हमेशा तब भी बना हुआ था.
भीतर की दुनिया के बारे में वे ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे.वो
उनके लिए किम्वदंतियों में कहीं बसी थी.इसी भीतर की दुनिया से वे कभी निकाले गए
थे,पर इसकी स्मृतियाँ उनके पूर्वजो के साथ ही समाप्त हो गयीं.स्मृतियों के किस्से
ज़रूर प्रचलित थे यद्यपि उनमें सिर्फ इतना
ही सच ढूँढा जा सकता था जितना विश्व-सभ्यता की एक उस प्राक्कथा में रह गया था जिसमें एक आदिम बाढ़ में
तारणहार बनी इकलौती नाव में कुछ ही बच पाए थे. तो उन स्मृतियों के किस्सों में जो
सच बचा रह गया था वो इतना तो था ही कि इस उमस भरे गीले अँधेरे से बहुत दूर चकाचौंध
से भरी एक और दुनिया थी.
ये भीतर की और बसी दुनिया थी.यहाँ बसे लोगों और छोर पर बसे लोगों में सिर्फ जेनेटिक समानता ही
थी,और इस समानता में भी शायद अब फर्क बढ़ता जा रहा था, बाकी कोई मिलती जुलती बात
अगर कोई रह गयी थी तो उपलब्ध तकनीक से तो उसे देखा नहीं जा सकता था.स्पेक्ट्रम के
विपरीत छोर पर ये ‘दूसरी’ दुनिया किलेबंद द्वीप की तरह थी जिसकी
भित्तियां अभेद्य थी.इन दीवारों में दरवाज़े नहीं थे.उनकी ज़रुरत भी क्या थी?इस
दुनिया से बाहर जाने की ज़रुरत ही नहीं थी.ऐसा नहीं था कि यहाँ से कोई बाहर जाता
नहीं था,बल्कि कई लोग बाहर जाते थे पर उन्हें ठेला जाता था,भगाया जाता था,उनके
पीछे खूंखार कुत्ते छोड़े जाते थे.भीतर के संसाधनों पर चोट होते ही सक्षमों में से
अपेक्षया कमजोरों को बाहर फेंक दिया जाता था.इसके लिए किसी दरवाज़े की ज़रुरत नहीं
थी,जिस रास्ते से उच्छिष्ट बाहर जाता था उसी रास्ते से उन्हें भी रवाना किया
जाता,बहा दिया जाता,धकेल दिया जाता.इसके लिए किसी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया की ज़रुरत
नहीं थी,बस इंचार्ज की अपनी कल्पनाशीलता ही पर्याप्त थी. लगातार धकेल देने का
प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था.भीतर दुनिया का ज़र्रा ज़र्रा
चमकता था.किसी सूरज की ज़रुरत नहीं थी.कोने कोने को चमक से भर दिया गया था.उसके अंदरूनी कोनों पर मामूली सी छाया
को भी अँधेरे का अंश मानकर बाहर फेंक दिया गया था. इस दुनिया की चमक थी ही कुछ ऐसी
जो रात को निर्जन सड़कों पर बेशुमार बिखरी रहती थी,जबकि पांच सितारा पार्टियां
आभासी अँधेरे में, कोलाहल के साथ परवान चढा करतीं थीं.
स्मृतियों के किस्सों में इतना भी शेष तो है..
ReplyDeleteलगातार धकेल देने का प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था.........बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteहर कोई एक दूसरे को धकियाता विकास की दुहाई दिये पड़ा है और सब कहते हैं कि स्थितियाँ पहले से दयनीय हो गयीं।
ReplyDeletebahut badhiya!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.....
ReplyDeletebahut badiya...
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