चित्रकथाओं के आरेखों ने जो काला धुंआता अँधेरा रचा था,स्क्रीन की चमक में वो और भी वाचाल हो गया.
एक काले,कीच से सने,बारिश की लकीरों में भीगकर ढीठ हुए, टार के चिपचिपे गड्ढों से भरे एक शैतान शहर में खून का रंग भी सफ़ेद है.
एक पैदाइशी हत्यारा, जिसके चौंध मारते चश्मे के पीछे किसी स्कूली बच्चे का चेहरा है.वो मासूमियत के पीछे छुपी क्रूरता नहीं है, वो क्रूरता की हदें लांघ चुकी मासूमियत है.अपने वध होने के अंतराल में भी उसके मुंह से कोई चीत्कार नहीं.बस एक भयावह मुस्कान.अंत तक. वो शिष्ट हत्यारा लोगों के धड़ तक के हिस्से का भक्षण कर उनके सर दीवाल पर टांग देता है.इतने से ही जुगुप्सा होने लगती है. पर वो पढ़ाकू मनुष्यभक्षी तो इससे भी आगे जाकर 'उन सबकी आत्माओं को भी कुतर कर खा जाता है'.
इस पाप नगरी में जीवन नहीं जीवन का उच्छेद रोज़मर्रा का सच है.जीवन एक शापित शब्द है और मृत्यु शुभ्र.शुभ्र इसलिए कि मृत्यु यहाँ नहीं दिखाई देती,वो किसी और भूगोल में कब्र के नीचे सो रहे लोगों के शांत चेहरों पर ही हो सकती है.इस लिजलिजे कीचड़ में जीवन का स्वाभाविक समापन नहीं होता,वो मज्जा तक पीटी-कुचली गयी किसी एक देह से दूसरी देह तक भागता है,भय से भरा.और फिर तीसरी,चौथी, करते करते आखिरी देह तक.
यहाँ हाथ हत्यारे है,आँखें शिकार ढूंढती है,पाँव भागते है,और शरीर भोग का आयतन है.ये कोई शहर है इसका अंदाज़ा इसी से ही लग पाता है कि उसकी कुछ संस्थाओं के नाम इधर उधर पहचान में आते हैं.
सुन्दरता छलावा है,जीवन को यहाँ भी ठौर नहीं.प्रेम नहीं एक बेचैनी है. चाहना नहीं भोग है.इस भोग और आत्मा कुतरने में कोई फर्क नहीं.दोनों भूख का विरूपण है.
एक पीला शैतान इस भोग और भोज का कातिल संयोग है.एक खतरनाक मिश्रण.उसे चीखते बच्चे चाहिए.उसका पीला शरीर परपीड़ा के नीच आनंद और भोग की अधम लिप्सा से बना शैतान है.
जहां एक पढ़ाकू हत्यारा अपने वध की पीड़ा में मुस्कुराकर और भयानक हो उठता है वहीं इस पीले शैतान के दिए घावों में भी एक लड़की का अपनी चीखें रोकना एक साहस लगता है.यहाँ एक चुप्पी हत्यारी है तो एक चुप्पी मानवीय. हां बस इस शहर में यहीं एक-दो जगहों पर ये अहसास होता है कि ये सब हमारी ही दुनिया का शहर है.ये हमारे कोई बहुत निकट के शहर की दास्तान है.सफ़ेद रक्त में लिखी.
"एक बच्ची जीती है,
एक बूढ़ा मरता है.
सौदा बुरा नहीं है".
ये कहता हुआ जब कोई मृत्यु के शांत,निस्पंद जल में उतरता है,अपने ही हाथों,तो वाकई हम भय से और सिहर उठते है.ये कोई चित्रकथा में रेखाओं का जाल तोड़कर परदे पर चलती सुदूर,सौरमंडल से परे की कहानी नहीं,हमारे निकट की,और शायद हमारे भीतर की भी,कहानी है.ये मृत्यु तो हमारी कामनाओं की मृत्यु है.ये जीवन की भयाक्रांत दौड़ नहीं जो 'सिन सिटी'में शवों से भाग छूटती है,ये जीवन की पूर्णता की हैप्पी एंडिंग है. जिंदगी के युवतर हाथों में जाने की आकांक्षाओं का सिरफिरा प्रलाप हमारे स्मृति के तंतुओं में अब तक कहीं उलझा हुआ है.ये अब तक हमारी सामूहिक इच्छाओं का हिस्सा रहा है.ये हमारी समझ के इंसान की अंतिम इच्छा का पितृ-रूप है.
वो मासूमियत के पीछे छुपी क्रूरता नहीं है, वो क्रूरता की हदें लांघ चुकी मासूमियत है
ReplyDeleteएक हद के बाद क्रूरता भी पूरी मासूमियत के साथ उभर आती है...
मानव-मन की थाह कौन पा सका है...! सुनहरा पर्दा हमारे जीवन में वो बदलाव ले आया कि हम क्रूरता, पागलपन और वहशीपन को नितांत नए एंगल से देखने-समझने लग गए। हो चाहे कैसा भी, पर बदलाव ये क्रांतिकारी है। मन की परतों को खंगालते हुए अत्यंत प्रभावशाली व्याख्या।
ReplyDeleteNice
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