Saturday, October 22, 2016

भग्न स्तूप

ये सिल्क रूट पर आया कोई बौद्ध स्तूप था.
सिल्क रूट अगर कोई सड़क थी तो वो इतिहास में चलती थी.
ये बौद्ध स्तूप भी तारीख़ में ज़रूर तन कर, सीधा खड़ा था, आज ध्वस्त, भग्न और बिखरा था. आस पास की ज़मीन से ऊपर उठा पत्थरों का ढेर.  ढूह जैसा कुछ.  कुछ दूरी पर मठ में भिक्षु रहा करते थे.  कभी.  आज यहाँ तीन- चार फीट की चौकोर दीवारें गिरती पड़ती दिखाई दे रही थीं.

आसपास एक सुनसान था. ज़मीन पथरीली और खुली थी.
तिनका मात्र भी दिखाई देना मुश्किल था.
पत्थर के टुकड़े, असंख्य आकारों में.  और धूल पसरी थी. धूल महीन थी. उसके कण इतने बारीक थे कि हल्के थे. किसी हवा में इस धूल के कण उड़ते तो उड़ते रहते. हवा के रुकने पर भी वे कई देर मंडराते रहते.
पत्थर भी बड़े कच्चे थे. उन पर पाँव रखते ही वे धूल में बदल जाते और फिर किसी हवा में अपने बारीक कणों के साथ चक्कर खाते रहते.
लगता था पत्थरों में कण आपस में किसी दूर की रिश्तेदारी से ही बंधे थे. और उनमें बिखरने की प्रतीक्षा भरी थे.
भूदृश्य का रंग मटमैला था. दृष्टि की आखरी हद तक सिर्फ धूसर रंग ही दिखाई पडता था. कोई आवाज़ नहीं.  बस सुनसान. धूसर सुनसान.

सुनसान का रंग जैसे धूसर होता है.

कोई पानी नहीं, कोई घास नहीं. हरा रंग सिर्फ शिराओं में. कोई क्यों आये, पर कोई  यहाँ आये तो उसकी स्पंदित होती शिराओं में. या इन पत्थरों के बीच कहीं कहीं किसी खनिज-शिराओं में.
हरे रंग का कोई महंगा खनिज था.और कहीं होता तो कई चरणों से होकर, लदान और ढुलाई के चक्रों से निकल कर किसी की ऊँगली में पहनी जाने वाली मुद्रिका में धंस चुका होता अब तक.




बौद्ध स्तूप और मठ के ये अवशेष इस उबड़ खाबड़ में मिश्रित भाव जगा रहे थे.




अट्ठारह सौ बरस पहले यहाँ की तेज़ हवा में अपना उत्तरीय सम्हाले भिक्षुओं का चित्र कल्पना में टिमटिमाता है.
वे कुछ नहीं बोलते. चुपचाप रहते हैं. ये चीनांशुक मार्ग कारवाओं से लदा रहता है. खुरों से यहाँ की पथरीली ज़मीन में खरोंचे डालते घोड़े और पैदल चलते यात्रियों में द्रुत और विलंबित की विचित्र संगति है.

स्तूप में बुद्ध के किसी शिष्य के अवशेष है. मठ में कुछ दर्ज़न भिक्षु हर वक्त रहते है. सिल्क रूट यहाँ से कुछ ही दूर चलता है. वहां की अपेक्षाकृत चहल पहल से यहाँ का जीवन अछूता ही है. जैसे पास से गुज़रती  व्यापारियों की प्रसिद्ध सड़क से इसका कोई लेना देना ही नहीं हो. भिक्षु भी उसी रास्ते चलकर आये हैं,पर सड़क छोड़कर यहाँ आने के बाद सड़क उनके मार्ग की बात नहीं रही.

आज ये जगह सुनसान थी.पर कभी यहाँ रह रहे भिक्षुओं के प्राचीन रक्त का ताप अभी भी महसूस हो रहा था.उनकी धमनियों में बहता रुधिर अपने दाब का अहसास अभी भी करा रहा था. जिस महान बौद्ध दार्शनिक के अस्थि-पुष्प यहाँ रखे थे वो अभी भी जीवित था यहाँ जैसे.

2 comments:

  1. http://bulletinofblog.blogspot.in/2016/11/2016-10.html

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  2. विशेष स्थानों के भी अपने संस्कार होते हैं.

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