उस घर में वो अक्सर जाता था। उस घर को बाहर से देखने पर वो अनगढ़ पत्थरों से बना साधारण घर दिखाई देता था पर उसमें एक अजाना आकर्षण था। उस घर में कुछ ऐसा था जो कम से कम उसे तो खींचता था। अनगढ़ पत्थरों को जमाकर बनाई गई दीवारें। उन पर बिना किसी पलस्तर के सीधे ही पत्थरों पर पोता हुआ चूने का गाढ़ा घोल। पत्थरों के नुकीले कोने दीवारों से निकले, जगह जगह।
क्या अनगढ़ का आकर्षण ही उसे इस घर की तरफ़ खींचता रहा है? शायद नहीं क्योंकि इस घर में कई और दिलचस्प चीजें थीं। चमकते हुए चूने से पुती दीवारें, लकड़ी के दरवाज़े पर जगह जगह जड़ी लोहे की पत्तियां, दरवाज़े की चौखट में ऊपर की ओर दोनों तरफ़ लकड़ी के बने घोड़े, उनके पास दोनों और छोटे आले जिनमें केवल दिये भर रखे जा सकते थे, और भी इसी तरह की कुछ खासियतें। ये सब अपने आप में एक दृश्य रचतीं थीं। पर इन सभी विशेषताओं को भी क्या उसके इस घर के प्रति महसूस होने वाले कर्षण के लिए उत्तरदायी माना जा सकता था? सरल लगने वाले इस सवाल का उत्तर भी इतना आसानी से हां में नहीं दिया जा सकता था। क्योंकि ऐसा केवल इस घर के साथ तो था नहीं। आसपास के सारे ही घर कमोबेश इसी अनुशासन का पालन करते थे। कोई कम कोई ज्यादा। दरअसल उस इलाके के सारे घर दिखने में थोड़े पुराने, आकार में बेढंगे, और चूने में पुते थे, स्वयं उसका घर जो बहुत दूर नहीं था इसी तरह के ढब पर बना था। इसलिए केवल बाहर से दिखते घर को उसके इस मोह का जिम्मेदार नहीं मन जा सकता था।
इसका कारण पूरी तरह से तो वो भी नहीं बता सकता और कई हो सकने वाले कारणों में इसका एक कारण संभवतः इस घर का भीतरी हिस्सा था। अंदर से ये घर एक खुले दालान के बाद एक बड़े कमरे में दाखिल होता था जो अंदर से एक और कमरे में प्रवेश करता था। ये अंदरूनी कमरा एक सीढियां वाले तहखाने में उतरता था। इस जटिल संरचना के कारण भी ये घर उसे आकृष्ट करता रहा था। पर असल वजह या ज़ाहिर है, पूरी या एकमात्र वजह ये भी नहीं था। वो कभी इसके तहखाने में नहीं उतरा था। इसमें कई पुश्तों से शायद ही कोई उतरा था और लंबे समय से तलघर बंद रहने से ऐसा लगता था पृथ्वी के कुछ सबसे बड़े रहस्य इसमें बंद थे। वैसे उसे इसमें उतरने की इजाज़त भी नहीं थी।
खुलासे की बात है कि एक बहुत बड़ी वजह जो उसे इस घर की तरफ़ ले आती थी वो थी इसमें रहने वाली उसकी बड़ी नानी। वो उसकी सगी नानी की जेठानी थी और इस नाते उसकी बड़ी नानी। वो उससे बहुत स्नेह करती थी। उसके स्नेह का भाजन चराचर जगत के सभी प्राणी बराबर के थे ऐसा बिल्कुल नहीं था। रीस उसका स्वभाव था। घर में ही बुढ़िया का अपनी देवरानी यानि उसकी नानी से बरसों का अबोला था। जिस बात पर कोई नाराज़गी थी उसे वो भूल चुकी थी पर गुस्सा बना रहा। पर उसके प्रति उसका स्नेह अहेतुक था।बुढ़िया का ये स्नेह बचपन से कुछ इस तरह का था कि वो अक्सर उसके पास अकेला ही जाता था और वो उसे देखकर न केवल खुश होती थी, उसकी राह भी देखती थी। वो जब भी उसके पास जाता उस मुलाकात का समापन उसे प्रसाद में कुछ भी मीठा मिलने से होता।
बुढ़िया उस घर में अकेली ही थी। बड़े नानाजी को गए कई बरस हो चुके थे। एक बेटी थी जो ब्याह के बाद दूर देस रहती थी जिसका यहां आना भी कम से कमतर होता गया था।
बचपन से बड़ा होने तक वो उसी तरह उस घर में जाता रहा। बुढ़िया उसे देखकर खुश होती रही।
उसका चेहरा झुर्रियों से भरता जा रहा था, उसकी पीठ झुकती जा रही थी, उसके पांव घिसते जा रहे थे, इतना कि अंततः वो झुर्रियों वाली गुड़िया अधिक लगने लग गई।
बुढ़िया आश्चर्यजनक ढंग से अपने आप को ठीक ठाक रूप से संभाल पा रही थी। उसने आमतौर पर किसी की मदद अपनी हारी बीमारी में नहीं ली। घर में वो सारे काम स्वयं करती थी और जब भी वो जाता उसे या तो रसोई में पाता या कुछ न कुछ बैठे बैठे करते हुए। कभी कभार खाट पर भी लेटे हुए। परमुखापेक्षी न रहने का स्वभाव उसमें जन्मजात जैसा ही था। एक तरह की ज़िद रखने वाले लोगों में ये पाया जाता है।
एक और वजह थी जो उसे इस घर की ओर खींचता थी और शायद सबसे बड़ी भी,
वो थी हाथ से लिखी एक किताब। ये कोई साधारण स्किताब नहीं थी जिसे स्कूल नोट बुक में नीली स्याही वाले पेन से लिखा गया था। ये काली स्याही में मोटे निब जैसी कलम से लिखी गयी थी। इसके अक्षर आज की तरह के नहीं थे बल्कि जिस तरह के अक्षर पुराने शिलालेखों में होते थे वैसे ही अक्षर इसमें लिखे गए थे। अत्यंत सुन्दर रीति से। ईश्वर के सगुण रूप की काव्य आराधना थी इस किताब में। हर भजन जिस राग में गाया जाना था उस राग का नाम चमकीली लाल स्याही में लिखा था। इस तरह सुन्दर श्याम अक्षरों के बीच बीच में चमकीले सिन्दूरी अक्षर इस किताब को सुन्दर बना रहे थे। हर एक दो पृष्ठों में छोटे आयताकार बक्सों में अचानक सामने आता था कृष्ण के जीवन से जुड़ा दर्जनों रंगों से चित्रित कोई सुंदर पक्ष। इस किताब को पढ़ने के लिए नहीं गाने के लिए बनाया गया था। एकाध पृष्ठ को गाने के बाद सहसा मिलता वो सुन्दर चित्र पाठक - गायक के लिए एक पारितोषिक की तरह सामने आता था।
पहले उसे बुढ़िया इस किताब को हाथ लगाने नहीं देती थी। पर थोड़ा बड़ा होने पर उसे ये अधिकार एक दिन दिया गया जिसे उसने मिलने पर इनाम मिलने जैसा महसूस किया। पर उस किताब के पन्नों से गुजरने के बाद भी वो उत्कंठा से भरा रहा। उसने वहीं बैठे बैठे उसे कई बार देख डाला पर किताब से उसका मन नहीं भरा। क्या छवियां थी उस पुस्तक में। सारा लिखा हाथ से। सारे चित्र कोरे हुए हाथ से। श्रम का कितना सुन्दर कलात्मक और पवित्र उपयोग। क्या इस किताब की ये एक मात्र प्रति ही थी ? फिर तो मूल प्रति यही थी। और अगर नहीं तो हर पुस्तक में कितना कितना श्रम ?
उसी मनोयोग से हर बार। क्या सुन्दर होता अगर उसे इसी घर में इसी किताब की दो प्रतियां मिलती तो वो देखपाता कि दोनों की लिखावट और चित्रों में कहाँ चित्रकार ने अधिक ध्यानस्थ होकर काम किया है। किस किताब के कौनसे चित्र में मोर अधिक हरा है। यमुना अधिक जीवंत, कदम्ब अधिक सघन।
उसके भीतर उस किताब को अपने पास रखने की लालसा जग गयी। वो उस किताब का स्वामित्व चाहता था। उसे किताब का वहां रखा होना नहीं रुच रहा था। ऐसा कुछ नहीं था कि किताब की बड़ी भारी एंटीक वैल्यू को वो समझता था और उसे किताब को रूप में कोई खज़ाना नज़र आ रहा था जिसे वो हथियाना चाहता था। वो उस सुन्दर किताब को अपने पास रखना चाहता था हमेशा के लिए। ये एक बड़ी वजह बन गयी उसके इस घर के प्रति आकर्षण की।
उसने बड़ी नानी से एक बार हिचकते हुए इस किताब को अपने पास रखने की बात की तो उसने इसका कोई उत्तर नहीं दिया जिसका अनुवाद था - ‘मना’
उसके बाद उसके इस बारे में बात करने की हिचक बनी रही। पर इस किताब के कारण उसका इस घर में आना बना रहा। बुढ़िया का स्नेह यथावत रहा। बड़ा होने पर उसका आना कम होता गया। बुढ़िया चेहरे पर और कई झुर्रियां जमा करती रही। एक बार तो बुढ़िया का झुर्रियों से भरा चेहरा देखकर उसे लगा इन सब झुर्रियों के वलन को खोला जाय तो उसका चेहरा कई गुना बड़ा होकर सामने आएगा। समय के साथ वो और भी कद में छोटी होती गयी। उसके पांवों के तलवे घर के ऊबड़ खाबड़ फर्श पर घिसते रहे वो छोटी से और छोटी होती गयी, वहीं उसका चेहरा झुर्रियां जमा करता गया।
बहुत सालों बाद जब वो अंतिम रूप से बीमार पड़ गयी तो उसकी बेटी जो ख़ुद अब बूढी हो रही थी उसके साथ आकर रहने लगी।
एक दिन बुढ़िया इस दुनिया से विदा हो गयी। उसकी बेटी वापस दूर देस चली गयी। अवसर मिलने पर उसने आकर वो घर किसी और को बेच दिया।
वर्षों बाद वो फिर वहां से गुज़र रहा था। उस घर का आकर्षण अभी समाप्त नहीं हुआ था। पर वो घर अब वहां नहीं था। उसके जगह नया घर नया स्वामी था। इन दोनों को वो नहीं जानता था।
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