Sunday, March 2, 2025

हाथ से लिखी किताब

 

उस घर में वो अक्सर जाता था। उस घर को बाहर से देखने पर वो अनगढ़ पत्थरों से बना साधारण घर दिखाई देता था पर उसमें एक अजाना आकर्षण था। उस घर में कुछ ऐसा था जो कम से कम उसे तो खींचता था। अनगढ़ पत्थरों को जमाकर बनाई गई दीवारें। उन पर बिना किसी पलस्तर के सीधे ही पत्थरों पर पोता हुआ चूने का गाढ़ा घोल। पत्थरों के नुकीले कोने दीवारों से निकले, जगह जगह। 


क्या अनगढ़ का आकर्षण ही उसे इस घर की तरफ़ खींचता रहा है? शायद नहीं क्योंकि इस घर में कई और दिलचस्प चीजें थीं। चमकते हुए चूने से पुती दीवारें, लकड़ी के दरवाज़े पर जगह जगह जड़ी लोहे की पत्तियां, दरवाज़े की चौखट में ऊपर की ओर दोनों तरफ़ लकड़ी के बने घोड़े, उनके पास दोनों और छोटे आले जिनमें केवल दिये भर रखे जा सकते थे, और भी इसी तरह की कुछ खासियतें। ये सब अपने आप में एक दृश्य रचतीं थीं। पर इन सभी विशेषताओं को भी क्या उसके इस घर के प्रति महसूस होने वाले कर्षण के लिए उत्तरदायी माना जा सकता था?  सरल लगने वाले इस सवाल का उत्तर भी इतना आसानी से हां में नहीं दिया जा सकता था। क्योंकि ऐसा केवल इस घर के साथ तो था नहीं। आसपास के सारे ही घर कमोबेश इसी अनुशासन का पालन करते थे। कोई कम कोई ज्यादा। दरअसल उस इलाके के सारे घर दिखने में थोड़े पुराने, आकार में बेढंगे, और चूने में पुते थे, स्वयं उसका घर जो बहुत दूर नहीं था इसी तरह के ढब पर बना था। इसलिए केवल बाहर से दिखते घर को उसके इस मोह का जिम्मेदार नहीं मन जा सकता था। 


इसका कारण पूरी तरह से तो  वो भी  नहीं बता सकता और कई हो सकने वाले कारणों में  इसका एक कारण  संभवतः इस घर का भीतरी हिस्सा था। अंदर से ये घर एक खुले दालान के बाद एक बड़े कमरे में दाखिल होता था जो अंदर से एक और कमरे में प्रवेश करता था। ये अंदरूनी कमरा एक सीढियां वाले तहखाने में उतरता था। इस जटिल संरचना के कारण भी ये घर उसे आकृष्ट करता रहा था। पर असल वजह या ज़ाहिर है, पूरी या एकमात्र वजह ये भी नहीं था। वो कभी इसके तहखाने में नहीं उतरा था। इसमें कई पुश्तों से शायद ही कोई उतरा था और लंबे समय से तलघर बंद रहने से ऐसा लगता था पृथ्वी के कुछ सबसे बड़े रहस्य इसमें बंद थे। वैसे उसे इसमें उतरने की इजाज़त भी नहीं थी। 


खुलासे की बात है कि एक बहुत बड़ी वजह जो उसे इस घर की तरफ़ ले आती थी वो थी इसमें रहने वाली उसकी बड़ी नानी। वो उसकी सगी नानी की जेठानी थी और इस नाते उसकी बड़ी नानी। वो उससे बहुत स्नेह करती थी। उसके स्नेह का भाजन चराचर जगत के सभी प्राणी बराबर के थे ऐसा बिल्कुल नहीं था। रीस उसका स्वभाव था। घर में ही बुढ़िया का अपनी देवरानी यानि उसकी नानी से बरसों का अबोला था। जिस बात पर कोई नाराज़गी थी उसे वो भूल चुकी थी पर गुस्सा बना रहा। पर उसके प्रति उसका स्नेह अहेतुक था।बुढ़िया का ये  स्नेह बचपन से कुछ इस तरह का था कि वो अक्सर उसके पास अकेला ही जाता था और वो उसे देखकर न केवल खुश होती थी, उसकी राह भी देखती थी। वो जब भी उसके पास जाता उस मुलाकात का समापन उसे प्रसाद में कुछ भी मीठा मिलने से होता।


बुढ़िया उस घर में अकेली ही थी। बड़े नानाजी को गए कई बरस हो चुके थे। एक बेटी थी जो ब्याह के बाद दूर देस रहती थी जिसका यहां आना  भी कम से कमतर होता गया था।  

बचपन से बड़ा होने तक वो उसी तरह उस घर में जाता रहा। बुढ़िया उसे देखकर खुश होती रही। 

उसका चेहरा झुर्रियों से भरता जा रहा था, उसकी पीठ झुकती जा रही थी, उसके पांव घिसते जा रहे थे, इतना कि अंततः वो झुर्रियों वाली गुड़िया अधिक लगने लग गई।

बुढ़िया आश्चर्यजनक ढंग से अपने आप को ठीक ठाक रूप से संभाल पा रही थी। उसने आमतौर पर किसी की मदद अपनी हारी बीमारी में नहीं ली। घर में वो सारे काम स्वयं करती थी और जब भी वो जाता उसे या तो रसोई में पाता या कुछ न कुछ बैठे बैठे करते हुए। कभी कभार खाट पर भी लेटे हुए।  परमुखापेक्षी न रहने का स्वभाव उसमें जन्मजात जैसा ही था। एक तरह की ज़िद रखने वाले लोगों में ये पाया जाता है। 


एक और वजह  थी जो उसे इस घर की ओर खींचता थी और शायद सबसे बड़ी  भी,  

वो थी हाथ से लिखी एक किताब।  ये कोई साधारण स्किताब नहीं थी जिसे स्कूल नोट बुक में नीली स्याही वाले पेन से लिखा गया था। ये काली स्याही में  मोटे निब जैसी कलम से लिखी गयी थी।  इसके अक्षर आज की तरह के नहीं  थे बल्कि जिस तरह के अक्षर पुराने शिलालेखों में होते थे वैसे ही अक्षर इसमें लिखे गए थे। अत्यंत सुन्दर रीति से।  ईश्वर के सगुण रूप की काव्य आराधना थी इस किताब में।  हर भजन जिस राग में गाया जाना था उस राग का नाम चमकीली लाल स्याही में लिखा था। इस तरह सुन्दर श्याम अक्षरों के बीच बीच में चमकीले सिन्दूरी अक्षर इस किताब को सुन्दर बना रहे थे। हर एक दो पृष्ठों में छोटे आयताकार बक्सों में अचानक सामने आता था कृष्ण के जीवन से जुड़ा दर्जनों रंगों से चित्रित कोई सुंदर पक्ष।  इस किताब को पढ़ने के लिए नहीं गाने के लिए बनाया गया था। एकाध पृष्ठ को गाने के बाद सहसा मिलता वो सुन्दर चित्र पाठक - गायक के लिए एक पारितोषिक की तरह सामने आता था।  

पहले उसे बुढ़िया इस किताब को हाथ लगाने नहीं देती थी। पर थोड़ा बड़ा होने पर उसे ये अधिकार एक दिन दिया गया जिसे उसने मिलने पर इनाम मिलने जैसा महसूस किया।  पर उस किताब के पन्नों से गुजरने के बाद भी वो उत्कंठा से  भरा रहा। उसने वहीं बैठे बैठे उसे कई बार देख डाला पर किताब से उसका मन नहीं भरा। क्या छवियां थी उस पुस्तक में।  सारा लिखा हाथ से। सारे चित्र कोरे हुए हाथ से। श्रम का कितना सुन्दर कलात्मक और पवित्र उपयोग। क्या इस किताब की ये एक मात्र प्रति ही थी ? फिर तो मूल प्रति यही थी।  और अगर नहीं तो हर पुस्तक में कितना कितना श्रम ? 

 उसी मनोयोग से हर बार।  क्या सुन्दर होता अगर उसे इसी घर में इसी किताब की दो प्रतियां मिलती तो वो देखपाता  कि दोनों की लिखावट और चित्रों में कहाँ चित्रकार ने अधिक ध्यानस्थ होकर काम किया है। किस किताब के कौनसे चित्र में मोर अधिक हरा है। यमुना अधिक जीवंत, कदम्ब अधिक सघन।  


उसके भीतर उस किताब को अपने पास रखने की लालसा जग गयी। वो उस किताब का स्वामित्व चाहता था। उसे किताब का वहां रखा होना नहीं रुच रहा था। ऐसा कुछ नहीं था कि किताब की बड़ी भारी एंटीक वैल्यू को वो समझता था और उसे किताब को रूप में कोई खज़ाना नज़र आ रहा था जिसे वो हथियाना चाहता था। वो उस सुन्दर किताब को अपने पास रखना चाहता था हमेशा के लिए। ये एक बड़ी वजह बन गयी उसके इस घर के प्रति आकर्षण की। 


उसने बड़ी नानी से एक बार हिचकते हुए इस किताब को अपने पास रखने की बात की तो उसने इसका कोई उत्तर नहीं दिया जिसका अनुवाद था - ‘मना’

उसके बाद उसके इस बारे में बात करने की हिचक बनी रही।  पर इस किताब के कारण उसका इस घर में आना बना रहा।  बुढ़िया का स्नेह यथावत रहा। बड़ा होने पर उसका आना कम होता गया। बुढ़िया चेहरे पर और कई झुर्रियां जमा करती रही। एक बार तो बुढ़िया का झुर्रियों से भरा चेहरा देखकर उसे लगा इन सब झुर्रियों के वलन को  खोला जाय तो उसका चेहरा कई गुना बड़ा होकर सामने आएगा। समय के साथ वो और भी कद में छोटी होती गयी। उसके पांवों के तलवे घर के ऊबड़ खाबड़ फर्श पर घिसते रहे वो छोटी से और छोटी होती गयी, वहीं उसका चेहरा झुर्रियां जमा करता गया। 


बहुत सालों बाद जब वो अंतिम रूप से बीमार पड़ गयी तो उसकी बेटी जो ख़ुद अब बूढी हो रही थी उसके साथ आकर रहने लगी। 


एक दिन बुढ़िया इस  दुनिया से विदा हो गयी। उसकी बेटी वापस दूर देस चली गयी। अवसर मिलने पर उसने आकर वो घर किसी और को बेच दिया।  


वर्षों बाद वो फिर वहां से गुज़र रहा था। उस घर का आकर्षण अभी समाप्त नहीं हुआ था। पर वो घर अब वहां नहीं था।  उसके जगह नया घर नया स्वामी था। इन दोनों को वो नहीं जानता था।  


Friday, May 24, 2019

जब परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या मरे हुओं की हो जाती है



इतालो कल्विनो की मशहूर किताब 'इनविजिबल सिटीज़' बहुत समय से मेरे पास है।  किताब को मैंने अपने मुताबिक इस तरह बनाया है कि इसे जब इच्छा होती है कहीं से भी पढ़ सकता हूँ। इसमें मार्को पोलों बहुत सारे शहरों के बारे में बताता है। हालांकि वो तमाम शहरों के हवाले से सिर्फ़ अपने शहर वेनिस की बात ही कर रहा होता है, पर मैं तमाम कल्पित शहरों के टुकड़े टुकड़े वृत्तांतों को भी फंतासी की तरह पढ़ना पसंद करता हूँ। 


किताब से एक अंश - 
(सिटिज़ एंड द डैड - 2 )

मेरी यात्राओं में मैं एडेलमा जितना दूर कभी नहीं गया।
ये गोधूलि का वक़्त था जब मैंने वहां क़दम रखा। डॉक पर जिस जहाजी ने रस्सी खूँटे से बांधी थी वो उस आदमी से मिलता जुलता था जिसने मेरे साथ फौज़ में नौकरी की थी और अब मर चुका था। ये वक़्त थोक मच्छी बाज़ार का था। एक बूढ़ा आदमी सी-अर्चिन से भरी टोकरी गाड़ी में लाद रहा था। मुझे लगा मैं उसे जानता था। मैं  जब तक मुड़कर उसे देखता वो गली के छोर से ग़ायब  चुका था। लेकिन मैंने महसूस किया कि वो मेरे बचपन में देखे उस बूढ़े मछुआरे से काफ़ी मिलता था जो अब, ज़ाहिर है, ज़िंदा नहीं हो सकता।

बुख़ार में तपते उस आदमी को देखकर मैं असहज हो गया जो ज़मीन पर खुद को सिकोड़ कर पड़ा था।  उसके माथे पर कम्बल थी। ठीक इस आदमी की तरह ही मेरे पिता की भी मौत से कुछ दिन पहले आँखें इसी तरह ज़र्द हो गयी थीं,  दाढ़ी बढ़ गयी थी।

मैंने अपनी नज़रें हटा लीं। इसके बाद किसी आदमी के चेहरे में झाँकने की हिम्मत मैंने नहीं की।

मैंने सोचा - " एडेलमा वो शहर है जो  मैं सपने में देख रहा हूँ और जिसमें आपकी मुलाक़ात मृत लोगों से  होती है, तो ये सपना डरावना है। और अगर एडेलमा सचमुच का शहर है, ज़िंदा लोगों का, तो  सिर्फ़ उनकी ओर देखते रहना है और मिलती जुलती परिचित शक़्लें अपने आप मिट जाएंगी, पीड़ा लिए अजनबी चेहरे उभर आएँगे। जो भी हो मेरे लिए सबसे ठीक यही है कि मैं उनकी तरफ़ न देखूं। "

सब्ज़ी- ठेले वाली गोभी तौल कर उसे उस टोकरी में रख रही थी जिसे एक लड़की ने अपने बालकनी से डोर  ज़रिये नीचे लटका रखा था। वो लड़की मेरे गाँव की उस लड़की से हूबहू मिलती थी जिसने प्रेम में पागल होकर अपनी जान दी थी।
सब्ज़ी बेचने वाली ने अपना चेहरा उठाया -  वो मेरी दादी थी।
 मैंने सोचा - "हरेक अपनी ज़िन्दगी में उम्र के उस पड़ाव पर ज़रूर पहुंचता है जब उसके अब तक के परिचित लोगों में ज़्यादा संख्या उनकी होती है जो मर चुके होते हैं, और दिमाग़ इससे ज़्यादा चेहरे और भाव याद रखने से मना कर देता है, हर नए सामने आने वाले चेहरे पर ये पुरानी शक़्लें ही छाप देता है, हरेक के लिए ये उपयुक्त मुखौटा ढूंढ ही लेता है। "   

Monday, March 18, 2019

ढाबा


वो इस मैदानी शहर की सर्द रात थी। अरसे  बाद वो यहां आया था। इस शहर की एक ख़ासियत थी। ये शहर जल्दी सो जाता था।  दिन भर ये शहर भीड़ भाड़ ,गाड़ियों की चिल्ल पौं, मॉल्स, और फैशन की  चमक दमक के बीच इतराता पर रात के पहले कुछ घंटों में ही इसका शहर शहर खेलना बंद हो जाता, और ये अपना शहरी मुखौटा उतार देता। किसी मासूम बच्चे की तरह ये शहर रात ढलते ही जैसे सोने की तैयारियों में मुब्तिला हो जाता। और फिर सो जाता। जल्द। आप रात के 10 बजे शहर में घूमना चाहें तो सड़कें अमूमन वीरान ही मिलेंगीं। और फिर ये तो रात के 11 बजे के बाद का वक़्त था। वो चौराहे से एक तरफ कोने में दबे पान के केबिन के पास खड़ा था। वो भी बंद हो चुका था। आसपास कोई हलचल नहीं। इक्का दुक्का कोई गाड़ी आकर उस जमे हुए ठोस सन्नाटे को भंग कर रही थी। उसने एक नज़र कुछ ही दूर उस जगह पर डाली जो कभी वो कॉलोनी हुआ करती थी जहां वो रहता था। जी हाँ, अब उस जगह कॉलोनी नहीं, बल्कि कई मंज़िल ऊंची कोई मीनार थी। इस मीनार में जगह जगह लोहे की मशीने लगी थीं जो उसे कोई दैत्यनुमा अजूबा बना रही थी। आसपास ही कहीं एक चाय की दुकान भी हुआ करती थी जो किसी ज़माने में उसकी पसंद का अड्डा हुआ करता था। चायवाला 30-35 की उम्र का आदमी हुआ करता था। उसके चेहरे पर गरीबी, बेचारगी और अपराधबोध की त्रयी के स्थायी भाव छपे थे। बिना कुछ किये चेहरे पर ग्लानि के निशान ग़रीबी के अस्थियों की मज्जा तक घुस जाने से बनते हैं। ये तय था कि वो चायवाला अब तक तो धरती के गाल से भी साफ़ किया जा चुका  था। उस चाय की थड़ी का भी अब दूर दूर तक कोई चिह्न नहीं था।  ज़ाहिर था अब ये जगह उसके लिए नितांत अपरिचित थी। पर शायद नहीं। उसकी नज़र सामने पीली मरी हुई रौशनी में टिमटिमाते एक भोजनालय पर गई। आसपास की रौशन मीनारों के साये में भी ये दुर्बल ढांचा अभी बना हुआ था इस बात में आश्चर्य था।  उसे कुछ याद आया।  हाँ इसी जगह तब भी एक भोजनालय हुआ करता था जब वो यहां रहता था। नाम ज़रूर बदला हुआ लग रहा था पर उसे महसूस हो रहा था कि दिखने में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ था। वैसे नाम पर उसने कभी गौर नहीं किया था पर चूँकि वो सामने ही रहता था और कितनी ही बार उसका वहां से गुज़रना होता था इसलिए उसे याद था इसका नाम - बजरंग बली वैष्णव भोजनालय।

उसे अचानक घर जैसा महसूस होने लगा।  इस सर्दी में उसे सामने दीखते ढाबे में से अपनेपन की धीमी आंच आने लगी थी। सर्द एकांत में उसे ढाबे का खुला होना बड़ा भला लग रहा था। वो इस नाउम्मीद समय में उम्मीद की तरह रोशन था। ढाबा अगर था तो तय था कि उसमें भट्ठी थी। और अगर खुला था तो तय था कि उसकी भट्ठी में ताप था। "कितना सुखद होता है किसी चूल्हे का ताप!" उसने सोचा। अपनी अंदरूनी भित्तियों से आभा बिखेरता, तमतमाया चूल्हा कितना सुंदर लगता है! एक किस्म की लाल रौशनी में चमकता। उसे सहसा तेज़ भूख का अहसास होने लगा। उसने फ़ैसला किया, वो ढाबे में जाकर छक कर खाना खाएगा। जो भी उपलब्ध होगा उस वक़्त, उसे अच्छा ही लगेगा।

बीच की सड़क पार कर वो ढाबे पर पहुंचा। उसे तसल्ली हुई की उसमें कुछ लोग थे।  खाना खाने वाला ग्राहक शायद कोई नहीं था,  स्टाफ ही खाना खाने की तैयारी में था।
खाना मिलेगा भाई साब ? उसके सवाल पर एक आदमी ने उसकी ओर देखा और काफ़ी देर तक कोई जवाब नहीं दिया। उसने स्टाफ की तरफ देखा और वहां से तसल्लीबख़्श जवाब आने पर उसे अंदर आने का इशारा किया।
 वो एक ख़ाली टेबल पर बैठ गया।


"कभी यहां बजरंग बली वैष्णव भोजनालय हुआ करता था..."

उस मुसाफिर ने बात इस तरह अधूरी छोड़ी कि उसमें और कुछ न जोड़ा जाय तो भी काम चल जाए। पर उसकी बात का गज़ब असर हुआ और जिस आदमी ने उसे  खाने की टेबल पर बैठने का इशारा किया था उसकी आँखे चौड़ी हो गयी। उसकी दिलचस्पी मुसाफ़िर में  अचानक से बढ़ गयी। वो टेबल पर मुसाफिर के सामने आकर बैठ गया। उसकी इस हरकत से रात के इस वक़्त बचा हुआ स्टाफ हरकत में आ गया। तुरंत पानी रखा जाने लगा। प्याज़ और मिर्ची काट कर रख दिए गए। और टेबल पर एक थाली और दो कटोरियां रखीं गयी।

मुसाफिर समझ गया था कि उसी बात का असर है और ढाबे का मालिक या संचालक या जो भी वो था, उसके सामने यों ही नहीं बैठ गया था। मुसाफिर ने आखिर उसे पूछा-
" आप इस ढाबे के मालिक है? क्या आप वाक़िफ़ हैं कि यहां बजरंग बली भोजनालय हुआ करता था ?"
ढाबे का मालिक या संचालक कुछ नहीं बोला। मुसाफिर ने अपने पहले कहे में कुछ ओर जोड़ते हुए कहा -
" मैं असल में, सामने कभी गणेश कॉलोनी हुआ करती थी उसमें रहता था। यही कोई बीस बरस पहले...." उसकी बात को अधूरा छोड़ने की शायद आदत थी। या शायद उसका बोलने का तरीका जो बात पूरी होने पर भी अधूरे की तरह छोड़ने वाला था।

" जिसकी तुम बात कर रहे हो वो ढाबा तो कब का बंद हो चुका, " आखिर ढाबेवाले ने असह्य रूप से भारी और गाढ़े हो चुके मौन तोड़ते हुए कहा, " वो भी क्या दिन थे" - वो कहीं जाता जा रहा था - " मैं तब उसमें कुक था और मुझे बनवारी यहां लाया था। बनवारी इस ढाबे का पहला मालिक। वो हनुमान जी का पक्का भक्त था। इसलिए सोचने की ज़रुरत थी ही नहीं और बजरंग बली भोजनालय इस दुनियां में आया। अपने आने के कुछ ही दिनों में ढाबा रौनके भी ले आया। ग्राहकों की ठीक ठाक भीड़ रहने लगी। ढाबे के अंदर धुआँ, सिके गेहूं और मिर्च के बघार की गंध का अपना एक संसार बन गया।"
कुछ देर तक फिर से एक चुप्पी पसर गई। उसने आख़िर अपनी बात फिर शुरू करते हुए कहा -
" एक असगुन अचानक बनवारी की ज़िन्दगी में आ गया। बनवारी की बेटी की शादी के ठीक दस दिन पहले वो मर गई। किसी ने उसका क़त्ल कर दिया। बनवारी को पता नहीं था पर लोग ऐसा मानते थे कि लड़की के प्यार में पागल एक शख़्स को उसकी शादी किसी और से मंज़ूर नहीं थी और वहशी ने उसका क़त्ल कर दिया। बनवारी गुड्डो से बहुत प्यार करता था और उसके साथ  ऐसा होने पर पागल हो गया। बनवारी इस सदमे से कभी बाहर  नहीं आ पाया। वो अचानक किसी के भी पीछे भागने लगता और चिल्लाता जाता, पकड़ो ! यही है कातिल। "

"कई महीनों तक बंद रहने के बाद ढाबा बिक गया।"
" फिर इसे महादेव ने ख़रीदा।  नाम दिया ' ए-वन' भोजनालय। "
"बहुत गन्दा खाना था इस नए ढाबे का। फिर भी ये चलता रहा। यहां लोग खाना खाने की बजाय चाय पीने ज़्यादा आते थे। यहां की चाय बहुत फेमस हो गई थी। ढाबे से ज़्यादा ये टी स्टाल था। तमाम तरह के लोग यहां आते थे। कॉलेज के छोरे छोरियां, नौकरी वाले, रिटायर्ड , पार्षद, मंत्री नेता सब। गंजेड़ी, भंगेड़ी, भिखारी भी। खूब चला ये ठिकाना, पर महादेव के मन में सिर्फ चाय की दूकान होने की कहीं न कहीं टीस थी। वो नाम के अनुरूप इसे प्रॉपर ढाबा बनाना चाहता था। लोग जहां अपनी फॅमिली के साथ आएं और खूब डट कर खाना खाकर जाएं। महादेव ख़ुद कुक ही था। ढाबे का मालिक बनने के बाद भी उसके अंदर का रसोइया जागा रहता था।  असल में वो अपने आप को बहुत मंझा हुआ रसोइया मानता था। वो कलकत्ते में मारवाड़ी सेठों का रसोइया रह चुका था। इस बात की उसके मन में बहुत आंट थी। गुरूर किस बात का था उसे ये मैं समझ नहीं पाया। जब ढाबा अपने खाने के लिए शुरू से ही नहीं चला तभी उसे समझ जाना चाहिए था कि ये हुनर उसके पास नहीं है। हाँ मालिक होने के नाते वो किसी ढंग के कुक को रखकर कमा सकता था। और फिर चाय उकाळ उकाळ कर  पैसे तो वो ठीक ठीक खड़े कर ही रहा था।"

वो ढाबे के दूसरे मालिक की कहानी सुन रहा था पर न जाने क्यों उसकी दिलचस्पी इसके बाद थोड़ी कम हो  गयी थी। उसे तगड़ी भूख सता रही थी। सिके गेहुओं की गंध उसके दिमाग़ में उत्पात मचा रही थी। उसने अपने मेज़बान की तरफ देखा तो वो चौंक गया। उसकी आँखों की पुतलियां ऊपर चढ़ी हुई थी। साफ़ तौर पर वो समय के किसी और ही तल पर खड़ा था। उसने अपनी भूख को भरसक काबू में रखा और फिर से उसके बोलने का इंतज़ार करने लगा।

" मदादेव " - उसने फिर बोलना शुरू किया - " दो कौड़ी का रसोइया था ये बात खुद महादेव की समझ में आ जानी चाहिए थी। पर वो कहाँ समझने वाला था। उस पर तो कलकत्ता का रसोइया सवार था। एक दिन उसने चाय का भगौला बाहर फेंक दिया और ढाबे पर नया बोर्ड टांग दिया ' महादेव भोजनालय' । उसने चाय बनाने वाले कारीगर को नौकरी से निकाल दिया और तमाम लोगों से कह दिया कि चाय यहां नहीं मिलेगी।"
" और इस तरह ये भोजनालय एक दिन फिर से बंद हो गया। चाय पीने वालों ने शहर में नया अड्डा ढूंढ लिया। अच्छा खाना जिनको चाहिए था उनके लिए तो ये वैसे ही काम की जगह थी नहीं। लोग इस जगह को जल्द ही भूल गए। मैंने महादेव से यहां काम माँगा था पर उसने मुझे दुत्कार दिया, कहा, दो रसोइये यहां क्या करेंगे। मैंने कहीं और काम कर लिया। मुझे असल में बनवारी के इस ढाबे पर काम चाहिए था। मुझे काम की कमी नहीं थी। पर खैर.."

मेहमान भूख से उतावला हो रहा था पर उसने अपने मेज़बान को वापस इस रात पर आने तक इंतज़ार करना ठीक समझा।

"बरसों तक ये ढाबा फिर बंद पड़ा रहा। इस बीच इस इलाके का काया पलट होता रहा। गणेश कॉलोनी बिखर कर सपाट हो गई। उस पर एक मीनार खड़ी हो गयी। कई कंपनियों के टावर इधर उधर लगते रहे। इलाके में जगह जगह सफ़ेद लाइटें लगती रहीं। पर इस बंद जगह पर चूल्हा बना रहा। बुझे चूल्हे में शायद कोई चिंगारी जली रह गयी।"
 " बनवारी को चैन शायद इस जगह पर ही मिलता था। बरसों तक पागलपन और नीमबेहोशी के बाद आख़िर वक्त के हाथों मरहमपट्टी से वो कुछ होश में आने लगा। उसके पास ज़्यादा कुछ था नहीं पर गाँव का खेत बेचकर उसने फिर से इस ढाबे को खरीद लिया। मैं फिर उसके साथ आ गया। आखिर बनवारी मेरा दोस्त जो था। अब वो दिन भर यहीं बैठा रहता है। बहुत ज़्यादा रौनक तो नहीं पर थोड़ी बहुत से ही उसका मन लगा रहता है।"

उसने अपनी भूख के बीच पूछा - " अब तो लोगों की पसंद का ठिकाना होगी ये जगह?"
" अरे अब कहाँ, अब लोगों के लिए घर की रसोई कहाँ चाहिए। अब तो विदेशी नाम वाली चीज़ें काबिज़ हो गयीं हैं। गेहूं की रोटी ने अपनी पकड़ खो दी है।  अब तो ठीक है .. कोई परदेसी आ जाए, या गाँव से कोई  भूला भटका..


एक हल्की धप्प की आवाज़ से नौकर ने मेहमान की थाली में रोटी रख दी। साथ में ग़र्म, तेज़ मसाले वाली पीली दाल उसकी कटोरी में डाल दी। अब उससे रहा नहीं गया। उसने बिना मेज़बान की ओर ध्यान दिए उतावला होकर खाना शुरू कर दिया। मेज़बान को उसका ध्यान ही  था। उसकी आँखों की पुतलियां अब भी उल्टी हो रखी थीं। वो अब भी बनवारी का पहला कुक बना हुआ था। 

Wednesday, March 13, 2019

मंदिर को जाती सड़क




वो जहां रहता था वहां का आसमान बिजली और टेलीफोन के तारों में उलझा था। इन तारों पर शाम के समय लम्बी लम्बी कतारों में कबूतर बैठा करते थे। पानी की ऊंची टंकियों, मंदिरों की फरफराती ध्वजाओं और खम्भे या तार या जहां जगह मिली वहां अटकी पतंगों ने भी अपने अपने हिस्से के आसमान को कब्ज़ा रखा था। आकाश का नीला कैनवास इस मोहल्ले में तो जैसे किसी बच्चे की ड्रॉइंग बुक का पन्ना था। नीचे ज़मीन पर तो आलम कुछ ऐसा था कि जैसे इस ड्राइंग बुक के पन्ने को बच्चे के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा हो । इस मोहल्ले में इंसान ज़रूर रहते थे पर सबसे बेफ़िक्र यहां कुत्ते और सांड थे। ये मोहल्ला इन दो प्राणियों का अघोषित अभयारण्य था। समय के साथ इंसानों से इनका ऐसा समझौता अमल में आया लगता था कि दोनों ने एक दूसरे को सेफ पैसेज दे रखा था। काफ़ी समय से किसी बच्चे को भी इस मोहल्ले के कुत्ते ने काटा नहीं था और न ही किसी सांड ने किसी वृद्ध को अपने सींगों से क्षति पहुंचाई  थी। इस तरह इस मोहल्ले में रहने वाले लोग कुत्तों और सांडों के साथ एक करार से बंधे थे जो टिका तो हालांकि किसी बारीक संतुलन पर ही था। बेशक ये एक आम दिनचर्या की बात थी और इसमें अपवाद शामिल नहीं थे।

इसी मोहल्ले में पलाश यानी पोलू का घर था। उसका घर  मोहल्ले के चौक में था जहां आसपास अलग अलग तरह की छोटी मोटी दुकानें थीं। एक पेड़ के नीचे मुक्ताकाशी हेयर कटिंग सलून , चाय की थड़ी , कुछ सब्ज़ियों के ठेले , किराना शॉप , पान कार्नर वगैरह की वजह से उसके घर के बाहर सुबह से देर रात तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। कई बार पोलू को इससे कोफ़्त होती थी पर उसके दादाजी के लिए ये एक अनवरत थियेटर जैसा था जिसे वे अपने कमरे की झरोखेनुमा खिड़की में बैठ कर देखा करते थे। वे इसमें मूक दर्शक की तरह हिस्सा लेते थे। चाहे मोहल्ले में झगड़ा हो जाये , सांड बिफर जाए या परदेसी आ जाय, वे इस थियेटर को लगभग अविचल सिर्फ़ देखा ही करते थे। निस्पृह। निर्लिप्त। साक्षी भाव से मात्र। वे अपनी आँखों के आगे बहुत सारी कहानियां घटित होते देखते थे। बिना किसी भी कहानी का पात्र बने। लेकिन दादाजी को ये पता नहीं था कि जिस घर की खिड़की से वे मोहल्लायन देखा करते थे वो घर इसमें शामिल हो चुका था। इस घर का ही पोलू यानि उनका पोता इसी मोहल्ले की, उनके घर के पीछे रहने वाली एक लड़की के प्रेम में आ चुका था।

पोलू के लिए ये एक तरह से ठीक ही था कि दादाजी को उसके इस एडवेंचर का पता ही नहीं चला। ये बात  सही थी कि वे ख़ुद मोहल्ले की लीलाओं में शामिल नहीं होते थे पर उनकी रूचि थी।  तभी तो वे दिन भर दर्शक दीर्घा में बैठे रहा करते थे। 
और फ़िर मामला घर का हो, आग घर में ही लग जाय तो कौन आदमी इस पर भी सिर्फ मज़े लूटने के लिए दर्शक की तरह बैठा रहेगा। आखिर इसकी आंच कभी न कभी तो देखने वाले तक भी पहुंचनी ही थी। इसलिए दादाजी को पोलू के प्रेम के बारे पता नहीं लगा ये ठीक ही हुआ। इसमें लड़की का घर चौक में न होना भी एक बड़ी वजह थी क्योंकि चौक में जो कुछ भी होता था वो दादाजी की नज़र से बच जाए ये संभव नहीं था।

पोलू को अपने प्यार में होने का पता एक दिन अचानक चला। वो लड़की को तो बचपन से ही जानता था, उसे आये दिन देखता था। उसे कभी लगा नहीं कि उसके साथ प्यार जैसा कुछ है। उसने जब इस प्यार के उत्स को खोजने की कोशिश की तो वो एक बुख़ार में मिला। हुआ ये कि लड़की जिसका नाम नीलू था मोहल्ले में ही रहती थी और उसका इस मोहल्ले में आना जाना ज़ाहिर सी और सामान्य सी बात थी, जैसे कि पोलू का आना जाना। पोलू ने कभी मोहल्ले में उसकी उपस्थिति पर अतिरिक्त ग़ौर नहीं किया था। पिछले दिनों जब उसकी मामी हॉस्पिटल में भर्ती थीं तो जनाना वार्ड में उसने मामी के बेड के पास ही नीलू को भी लेटे पाया था। उसे बुख़ार के साथ कुछ कॉम्प्लीकेशन्स की वजह से भर्ती करना पड़ा था। उसने देखा था नीलू का चेहरा उदास सा था। चेहरे का रंग कागज़ की तरह सफ़ेद हो चुका था। ये नीलू उस नीलू से अलग थी जिसे वो जानता था। वो जिसे जानता था वो जीवन से लबरेज़ नीलू थी। ये जबकि, पस्त, पराजित दिखती थी। अगर ये अस्पताल न होता और उसे पता न होता कि वो बीमार है तो कोई भी देखने वाला कह सकता था कि लड़की किसी  बड़े हादसे से बाहर आई है।

चूँकि वो उसे और उसके परिवार को जानता था इसलिए उसने आकर हालचाल पूछा और बाहर से दवाइयां वगैरह लाने और नर्स को बुला लाने जैसे कामों में मदद भी की थी। वो उस दिन काफ़ी देर तक बैठा रहा था। नीलू की तबीयत में गंभीर जैसा कुछ नहीं था पर उसे विशेषज्ञों की देखरेख की ज़रुरत थी।

कई दिनों तक उसने नीलू को मोहल्ले में नहीं देखा। इससे पहले उसने नीलू के दिखने या न दिखने पर शायद ही कभी ग़ौर किया होगा। पर जब से उसने नीलू का ज़र्द चेहरा देखा था, उसे तुरंत मोहल्ले में दिखने वाली नीलू याद हो आई। चुलबुली सी नीलू। उसके कुर्ते पर कई सारे रंग बैठे दीखते। उसके चेहरे पर मुस्कान की लम्बी रेखा खिंची रहती। और अब उतरा हुआ ज़र्द चेहरा। उसने नीलू को उस दिन हस्पताल में देखने के बाद कई दिन तक मोहल्ले में नहीं देखा तो उसके मन में आया कि वो उससे जाकर कहे कि वापस पहले वाली नीलू हो जाओ। तुमने कुछ ज़्यादा ही आराम कर लिया है तुम इतने दिन तक बीमार नहीं रह सकती। 

पर ख़ैर , उसने पता किया तो बताया गया कि वो अब ठीक है। हॉस्पिटल से भी उसे कुछ दिन पहले छुट्टी दे दी गयी है।

कई दिन बाद पोलू को वो दिखी। वो अपने भाई के साथ बाइक की पिछली सीट पर बैठी कहीं जा रही थी। उसने अपनी तरफ देखते पोलू को देखा तो वो धीमे से मुस्कुराई। उस दिन अस्पताल में उसके पास भी पोलू आया था, उसका ये मुस्कुराना उसकी तरफ़ से शायद 'थैंक यू' जैसा था। पोलू को अच्छा लगा पर भाई के साथ उसे देखकर मन में ये शंका पैदा हुई उसे अभी भी घरवाले अकेले नहीं भेज रहे हैं। वो अभी भी बुख़ार की कमज़ोरी से पूरी तरह बाहर नहीं आई है। वो अभी भी पहले वाली नीलू नहीं थी। उसके चेहरे पर थकान के निशान साफ़ पढ़े जा सकते थे।

फिर कई दिनों का अंतराल रहा। पोलू ने इस बीच प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। साइकिल से एक दिन शाम को कोचिंग के बाद घर लौटते समय उसे फ़िर नीलू दिखी। उसके हाथ में छोटा सा पॉलिथीन बैग था जिसमें दूध की दो तीन थैलियां थीं। पोलू ने साइकिल उसके पास रोक ली। नीलू के चेहरे पर फिर से एक फ़ीकी मुस्कान उभर आई।
"तुम अब ठीक हो "
"हाँ "
"पहले वाली बनने में कितना वक़्त लगेगा "? पोलू का ये सवाल उसकी उम्र से ज़्यादा बचकाना था। इस सवाल से नीलू अचकचा गई। उसे तुरंत जवाब नहीं सूझा पर वो हंस पड़ी।

उसके बाद पोलू के कोचिंग से लौटने पर कई बार वो हाथ में दूध की थैलियां लिए मिली। वो हर बार रुकता और किसी न किसी बचकानी बात से उसे हंसाता। कई बार उसकी कोशिशों के बाद भी वो सिर्फ़ फ़ीकी सी मुस्कान किसी तरह होठों पर ला पाती। इस वाली मुस्कान में उसके चेहरे पर कोई रौशनी नहीं आती थी। बल्कि ऐसी ज़बरिया प्रतिक्रियाओं में खिंची मांसपेशियों से अगले ही पल एक थकान उसके चेहरे पर पसर जाती। पोलू  समझ जाता। उसकी ये कोशिश सिर्फ उसका मन रखने के लिए थी।
अब पोलू जैसे ही कोचिंग से छूटता उसके पाँव साइकिल के पैडल पर ज़ोर से पड़ते। वो जल्दी से मोहल्ले में आना चाहता  था जहां नीलू उसे दूध की थैलियों के साथ खड़ी मिलती। कई बार उसकी पूरी कोशिशों के बावजूद वो नहीं मिलती। तब उसका मन अजीब सी बेचैनी से भर जाता। ऐसे ही किसी वक़्त में उसने सोचा कि कहाँ से शुरू हुआ था ये सब ? और पीछे की तरफ ट्रेस करने पर जवाब मिला - बुख़ार से। जब वो हॉस्पिटल में नीलू से मिला था और उसे रोज़ दिखने वाली नीलू से बिलकुल अलग, उदास पाया था तभी उसके मन में उसे लेकर कुछ विशिष्ट भावों ने शायद जगह बनानी शुरू की थी।

पोलू की ज़िन्दगी में नीलू थी तो थोड़ी ही पर उसका असर उसके सारे अस्तित्व पर था।जितना सतह पर उतना ही गहरे भी।  वो जैसे जल में गिरी रंग की कोई बूँद थी, धीरे धीरे एक एक अणु पर चढ़ती।

अगली बार जब वो मिली तो पोलू ने उसे कहा तुम भी अपनी साइकिल ले आओ , सड़क से मंदिर वाली पहाड़ी चढ़ते हैं। ऊपर से शहर को देखेंगे। नीलू ने कहा मैं इतनी  ऊंची साइकिल नहीं ले जा पाउंगी। तब पोलू उसे साइकिल पर बिठा कर ऐन ऊपर तक ले गया था। ऊपर पहुंचकर वो हल्का हांफने लग गया था। पर नीलू को जो हुआ उसने उसे चिंता में डाल दिया। पहाड़ी पर मंदिर की कुछ सीढ़ियां चढ़ते ही नीलू की सांस जैसे किसी लोहे से छिल कर आ रही थी। वो बेहद तक़लीफ़ में थी। दोनों साइकिल से नीचे आ गए।  नीचे आते आते नीलू की सांस पुनः सामान्य होने लग गयी थी। पोलू जानता था कि घर में नीलू ऊपर जाने की बात को छुपा जाएगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि नीलू के बारे में उसके घरवालों को वो कैसे बताए। वो कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। उसने नीलू को घर जाकर आराम करने के सलाह दी।

नीलू का अब बाहर आना बंद सा हो गया था। पोलू समझ गया था कि नीलू बीमार थी और उसकी बीमारी किसी आम सर्दी बुख़ार वाली बीमारी नहीं थी।

मोहल्ले में दिन कुछ ही गुज़रे थे पर पोलू के लिए जैसे कई सारे मौसम सामने से गुज़र गए। उसे अब समझ में आ रहा था कि दादाजी असल में सिर्फ़ खिड़की पर ही बैठे रहते हैं, देखते कुछ नहीं है। या ये कहना ठीक होगा कि वे देखते सिर्फ़ अपने अंदर थे। उनकी दिलचस्पी बाहर नहीं अंदर के थियेटर में थी। वे अपने भीतर कई सारे शहरों को, जहां वे कभी रहे थे, देखते थे। वे उन शहरों के रास्तों पर अपने को निर्णयहीन सा खड़ा देखते थे। वे अपनी ही किताब को पढ़ते थे। वे वर्तमान में घटित होना बंद हो गए थे।

एक दिन पोलू सच में नीलू के घर चला गया। उसका घर उसके लिए कितना पास फिर भी कितना दूर जैसा था। उसकी देहरी को उसने अपने लिए अलंघ्य मान रखा था। उसके घर जाना उसके लिए सोच विचार की प्रक्रियाओं के विफल होने के बाद अंततः लिए जाने वाला फैसला था। वो अपने कमरे में बैठी थी। पोलू को देखकर उसके मन में मुलाकातों की कोई मधुर याद आई थी ऐसा लगा नहीं। वो निस्तेज सी रही। पोलू ने एक पर्ची पर उसे अपने मोबाइल नंबर और ब्लड ग्रुप की जानकारी लिखकर दी। आखिर में उसे 'गेट वेल सून' लिखकर स्माइली बना दी।

इस मुलाक़ात से पोलू एक भार से बाहर आ गया। वो अपना ध्यान अब पढाई में लगा सकता था , क्योंकि  नीलू के लिए ये रास्ता अकेले तय करना था। उसकी मदद बेस्ट विशेज़ तक ही हो सकती थी। वो कितना भी स्वार्थी होकर सोच ले नीलू के वापस नीलू होने में यही मदद वो कर सकता था कि वो उसे अकेले उस रास्ते पर चलने दे। इसमें उसके घरवाले ही उसके असली मददगार हो सकते थे, वो नहीं।

ये काम पोलू के लिए मुश्किल था पर उसने कर लिया। कोचिंग से आते समय डेयरी बूथ पर उसकी नज़रें ठिठक जातीं पर वहां कोई नीलू नहीं होती। कुछ दिन ऐसा होता रहा फिर उसने डेयरी की तरफ देखना बंद कर दिया। वो मंदिर पर जाने वाली ऊंची सड़क को भी नहीं देखता। अब उसकी ज़िन्दगी की कोई सड़क नीलू के घर तक नहीं जाती थी। असल बात  तो ये थी कि अब उसकी एक ही सड़क थी और वो कोचिंग तक ही जाती थी। कुछ अरसे बाद तो ये हालत थी कि उसके कमरे से भी कोई सड़क बाहर निकलनी बंद हो गयी। वो किताबों और नोट्स में धंस चुका था। उसका कमरा पन्ने, पैन, किताबों और गाइड बुक्स से आक्रांत हो चुका था। वो ठोस और शुष्क सूचनाओं का पुलिंदा बनकर रह गया था।
उसे आवर्त सारणी पूरी याद थी, पिछले दस सालों के नोबल विजेताओं के लेक्चर्स ज़बानी याद थे, सभी देशों की राजधानियां और मुद्राएं तो उसे कब की याद थीं, फीफा विश्व कप के लीग से लेकर फाइनल तक के सारे परिणाम, ओलिंपिक, क्रिकेट, यूरो कप, कोपा अमेरिका के परिणाम आंकड़े सब याद हो गए थे। वो जीके और करंट के सभी संस्करणों का एक समग्र, मोटा डाइजेस्ट बन चुका था। 

उसे बचाना मुश्किल था।


ये दिन पोलू के लिए आम दिनों जैसा ही था अगर इस दिन कुछ अलग न होता। वो तो हमेशा की तरह अपने कमरे में ही था। शरीर नाम के खोल में सूचनाओं और आंकड़ों का सांद्र घोल बना हुआ। नीलू उसके घर आई थी और उसकी हालत देखकर उसे खींचकर बाहर ले आई।बाहर की रौशनी ने पोलू की त्वचा पर छाले बनाने शुरू कर दिए। वो प्रतिवाद करता रहा पर नीलू अब पहले वाली नीलू नहीं, पहले से पहले वाली नीलू थी। रंग फिर से उसके कुर्ते पर बैठे थे। चेहरा उसका सुबह का सूरज था। पोलू को उसने अपनी साइकिल के पीछे बिठाया और ...  उसकी साइकिल मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर चढ़ने लगी।