
एक वाग्दत्ता अपने होने वाले पति को विवाह से पहले की अन्तिम चिट्ठी लिखती है। चिट्ठी में वो लग्न की तय हुई तिथि की जानकारी देती है। कई बार कच्चे ड्राफ्ट को फाड़ने के बाद वो आश्वस्त होकर एक साफ़ सुथरे पन्ने पर अपना पत्र पूरा करती है।अंत में' केवल तुम्हारी' के नीचे अपना नाम लिखती है और लरजते हाथों से पत्र को तह कर लिफाफे में डालती है। घर में सबसे छोटे को पास के लैटर बॉक्स में, कई हिदायतों के साथ, पत्र देकर रवाना करती है। हिदायतों में एक ये भी है कि बॉक्स में पत्र डालने के बाद डब्बे को हाथ से अच्छी तरह ज़रूर थपथपाना।
इस आम से क्रियाकलाप में हम सोचते हैं कि भावनाओं को आधार देने के लिए सिर्फ़ शब्द काफ़ी है।पर क्या सच में ऐसा ही होता होगा? क्या चिट्ठी निकालने के बाद लिफाफा पूरा खाली रह जाता है?या उसमे भेजने वाले हाथों की सुगंध और भेजने की व्यग्रता भी कहीं रह जाती है? लिफाफे पर सलीके से चिपकाया स्टाम्प, ठीक ठीक लिखा पता, ये सब क्या बेमानी ही होते है?ख़ास कर तब जब चिट्ठी किसी प्रिय की हो या अपने किसी परिचित ने लिखी हो?
कई बार हममे से शायद हरेक को , लगता है कि शब्द भावो के बोझ को पूरा नही सम्हाल पाते।लिफाफे में चिट्ठी के इतर भी बहुत कुछ बचा रहता है.
खाना खाते समय मैं ऐसी ही सोच की जुगाली कई बार करता हूँ। उस वक्त मुझे ये बहस बेमानी लगती है कि आजकल चिट्ठी कौन तो लिखता है,या गए दिन अब अंतर्देशीय के । क्योंकि चिट्ठी न सही हम आज भी अपने मन को किसी लिपि में ही डीकोड करते है। भाषाओं के छल को कई दार्शनिकों ने पहले ही पहचान रखा है। यहाँ उसकी बात करना एक गैर ज़रूरी व्यायाम हो जायेगा।

ऐसे वक्त में अक्सर मैं अपने नानाजी की लिखी पुरानी चिट्ठियों के बारे में सोचने लग जाता हूँ। पूरा अंतर्देशीय भर देते थे वे। स्वस्ति श्री शुभ ओपमा लिखी....जैसी औपचारिक शब्दावली से उनकी चिट्ठी शुरू होती थी। चिट्ठी लिखते वक्त वो अपनी कुशलता की सूचना देते थे और भगवान् से हमारी कुशलता की कामना चाहते थे। फ़िर हम सब भाई बहनों को याद करते थे। मुझे उनकी चिट्ठी पढने में हमेशा खीज आती थी। मुश्किल से समझ में आने वाली महाजनी लिपि में लिखी। एक पिता अपनी बेटी को चिट्ठी लिखते समय भाव-संवेदनाओं के हारमोंस में डूबता उतराता होगा,उसके विवाह से पहले की कई छवियाँ साकार हो उठती होंगी पर चिट्ठी में वो कुशलता के समाचार ही लिख पाता है।बहुत कुछ चिट्ठी के बाहर छिटक जाता है।या पंक्तियों के दरम्यान अलिखा ही रह जाता है.सच में तो पत्र लिखने का भाव ही पत्र से बची रह गई संवेदनाओं को कुछ हद तक व्यक्त कर देता है. एक पिता की अपने विवाहिता बेटी को लिखी चिट्ठी सिर्फ़ अलिखित को उदघाटित करने का ऑन बटन है. और माँ यही काम बिना पत्र लिखे, सर्दी में गोंद के लड्डू भेज कर या बच्चो के लिए ऊनी कपड़े भेज कर कर लेती है.
यानी पत्र में या फोन पर'आई केअर यू' कह कर भी आप अपने प्रिय को सब कुछ लिख सकते है या कह सकते है.उसके लिए ज्ञान का बहुत बड़ा महल खड़ा करने कि आवश्यकता नही है।