Friday, January 9, 2009

देसी टमाटरों के लदते दिन यानि दुनिया का इकहरा होते जाना

कुछ दिन पहले अपने मित्र रवींद्र के साथ फार्म पर जाने का प्रोग्राम बना। जोधपुर से फासला कोई १३५किलो मीटर का था। गाड़ी में यहाँ से निकलते ही नज़र एक ढाबे के नाम पट्ट पर अटक गयी लिखा था 'शेरे पंजाब वैष्णव भोजनालय ' एक मुस्कराहट के साथ मन तुंरत राज़ी था, ये संगति जोधपुर में ही बैठ सकती थी। रास्ते में चर्चा करते रहे कि बी जे पी ने गंगारामजी को विधानसभा चुनावों में टिकट देकर मारवाड़ अंचल की कितने सीटों का नुकसान किया होगा। जिस रास्ते से हम फलौदी कि तरफ़ जा रहे थे ,बीच में ओसिआं के प्राचीन मन्दिर भी पड़े , एक नज़र ज़रूर निहारे पर बिना रुके हम चलते रहे। फार्म पर घुमते घुमते नज़र बेर की झाडी में अटकी। छोटे छोटे गोल गोल बेर बचपन में खूब नसीब थे पर इधर क्या पता अरसे से गायब लगे थे। ये दिन खूब ठण्ड वाला था , लाज़मी था की चाय के दौर भी चलते, चले भी। पर असल जायका खाने में था. सब्जी के साथ बाजरीकी रोटी दही और ढेर सारा घी मन में एक शर्म , संकोच काभाव भी बराबर बना रहा कि मारवाड़ में बाजरी भी एक्जोटिक होती जा रही है खास कर उन लोगों के लिए जो शहरों में गए है या जिनका आधार अब कृषी नही रहा। लौटते वक्त रास्ता अलग लिया. इस बार फलौदी से निकलते ही खींचन में रुके. यहाँ सर्दियों में अफगानिस्तान और आसपास से पक्षी जिन्हें यहाँ कुरजां कहते है प्रवास के लिए आते है. सर्दी के तेवर बहुत कठोर थे. कोई रियायत नही बख्श रही थी. खींचन गाँव के पास तालाब से वो कभी भी जंगल में रात्रिकालीन विश्राम के लिए जा सकती थी.हम जब तालाब पर पहुंचे तो वहाँ एक भी कुरजां नही थी. मौका हमारे हाथ से निकल गया था ,भलाई अब लौटने में ही थी. असल मसला यहीं से शुरू होने वाला था. रवींद्र जो कृषि ज्ञान के मामले में अद्भुत जिज्ञासु है और आज तो ये हालत है कि मैं अगर किसी विश्व विद्यालय का वी सी होऊं तो मानद डॉक्टरेट की उपाधि ही दे दूँ. बीच रास्ते में रवींद्र ने मुझसे पूछा कि सिर्फ़ स्वाद के लिए इन दिनों टमाटर खाए कभी? मुझे सच में याद नही आया कि मैंने फ्रिज से सिर्फ़ टमाटर लेकर उसे खाया हो. और बचपन जो बहुत सुदूर नही था कई मौके ऐसे याद दिलाने लगा जब टमाटर चाव से चूस चूस कर खाए गए थे. मैंने बड़े सहज भाव से जवाब दिया कि आजकल टमाटरों में वो स्वाद कहाँ? रवींद्र ने फौरन कहा देसी टमाटर आजकल आसानी सी हाथ भी नही आते. मैं याद करने लगा कि मंदी में टमाटर तो खूब है पर एक तरफ़ से तिकोनापन लिए लगभग बेस्वादे. जोधपुर आते आते रवींद्र ने गाड़ी एक दूकान पर रोकी ,बोला यहाँ शायद देसी टमाटर मिल जायेंगे , घर ले जाना. दुकानदार ने पूछने पर लाचारी जताते हुए कहा कि ख़त्म हो गए, आजकल'माल' ज्यादा नही रहा. खैर, मैं एक यात्रा पूरी कर घर गया. घर कर भी मैं टमाटरों से गुत्थम गुत्था था. दुनिया में कितनी सुन्दरताओं कि दिन लद रहें है.देसी टमाटर अपने स्वाद के बावजूद एक लडाई हार रहा है. बाजरी रेगिस्तान में सदियों टिकी रही पर अब उसकी ज़मीन पर रायडा, जीरा, अरंडी कब्जा कर रहे है. ऊँट हांफ रहा है. थारपारकर गाय जर्सी से पस्त हो रही है. और ये सब बाज़ार से हार रहे है. भाषायें लुप्त होती जा रही है. अंग्रेज़ी छाती जा रही है. लोग सब अमेरिका जाना चाहते है, अमेरिका पूरी दुनिया पे कब्जा चाहता है.दुनिया के रंग ख़त्म हो रहे है. हमारी सोच में वैविध्य ख़त्म हो रहा है. सब एक ही तरीके से सोचने लग गए है." चाय पियोगे या खाना लगा दूँ? पत्नी के स्वर ने मुझे विचारों के वर्तुल से बाहर खींचा . मैंने कहा-"चाय."

10 comments:

  1. बॉस पहली बार आपके ब्‍लॉग पर आया

    बहुत बढिया‍ लिखा आपने

    टमाटरों के जरिए ग्‍लोबलाइजेशन
    और संस्‍कति पर खतरा

    बहुत बढिया

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  2. बेहतरीन लिखा है.

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  3. मुझे नहीं पता की कारण देशज है या वैश्विक
    पर आपकी दृष्टि सम्यक है और जागृत भी , जब हम देखे हुए दृश्य को एक क्षण बाद किसी आईने में देखते है तो वह सब दिखायी पड़ता है जो सीधी आँखे नहीं देख पायी। आपकी समझ तमाम चिंताओं को पकड़ती है यात्रा का रोचक वर्णन है सुन्दरता को उचित सम्मान और फ़िर भाषा तो आपकी आला है ही। ऐसी एक नहीं अनेक पोस्ट की प्रतीक्षा में , बधाई स्वीकारें !!

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  4. शुक्रिया. राजीवजी, उम्मीद है आगे भी यहाँ आते रहेंगे. समीर जी हिन्दी ब्लौगिंग के नव उत्साहियों के साथ हमेशा मजबूती से खड़े रहते है. किशोर दा कारण को मैं भी चीन्ह नही पाया हूँ शायद पूरी तरह से तो कोई नही समझ पाया होगा कि क्यों इतनी तेज़ी से ये कैलैडोस्कोप एकवर्णी होता जा रहा है. पर जो हो रहा है वो सहज गति से नही हो रहा है ये हम ज़रूर देख पा रहे है. अन्यथा परिवर्तन तो पीढी दर पीढी भी होता है और उसमे भी हस्तांतरण की प्रक्रिया में छीजत ज़रूर होती है. पर कुछ नया भी जन्म ले लेता है.
    आपने मेरी बात को ज्यादा स्पष्टता दी कि हम चीज़ों को अलग माध्यम में ठिठक कर देखें तो नए मायने पकड़ में आते है.
    आपकी अगली पोस्ट के इंतज़ार में.

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  5. बहुत बढ़िया लिखा जी!
    सत्तर के पूर्वार्ध में मैं दर्जा ८-९ महेश मल्टीपरपज स्कूल से पढ़ा था जोधपुर में। अब क्या हाल हैं?!

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  6. आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!

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  7. टमाटर ही क्यों हर सब्जी का स्वाद बदल सा गया है. वैश्वीकरण की माया है. आपकी छोटी सी outing ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए. इस सुंदर लेख के लिए आभार.
    http://mallar.wordpress.com

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  8. लाजवाब प्रस्तुति ...बधाई !!
    कभी हमारे ब्लॉग "शब्द सृजन की ओर" की ओर भी आयें.

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  9. Tmatar k bhane se ek yatra vritant padhne ko mila...aapki bhasa pr pakad acchi hai....BDHAI!

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  10. आपकी शैली भा रही है, कहाँ से आप कहाँ ले जाते हैं. कितना natural सा लग रहा है मनो गाडी में 3rd से सीधे टॉप में आ गयी हो.

    रिगार्ड्स,
    मनोज खत्री

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