हर रोज़ बिना पढ़े वो उस लड़की के मेसेजेज़ 'इन बॉक्स' से डिलीट कर देता था जिनमे ज़िन्दगी के गूढ़ भावों को सरलीकृत अंदाज़ में लिखा होता था। जिनमे प्यार को किसी बेरोजगार कवि या शायर की चार पंक्तियों में परिभाषित किया होता था। संदेश जो सरल हास्य से लेकर भीषण अश्लील चुटकुलों से भरे होते थे। एक तरह से वे सारे संदेश उस लड़की की तरफ़ से प्रणय निवेदन थे इन्हे वो रोजाना कई कई बार ठुकरा देता था। ये शायद उसकी उदासीनता थी या धूर्तता, हद बाँधने का काम आप ही करें, उसने कभी संदेशों की आमद रोकने की कोशिश नहीं की। वो दो साल से और ही एक लड़की के इंतज़ार में था। अन्तिम कॉल उसने की थी, उसके बाद सामने से लड़की ने कहा था कि वो उसे फ़ोन करेगी। भौगोलिक दूरियों के लंबे और भयावह फासलों के साथ रूखे और बेजान मौसमों की लम्बाइयां उनके बीच की दूरियों को प्रकाश वर्षों में बदल रही थी....
इस बार गर्मी तो ऐसी थी कि जैसे नर्क की आग धरती के हिस्से में आ गई हो।
एक कॉल...... सिर्फ़ एक कॉल इस दूरी को ऐसे पाट देती जैसे हॉकिंग की समय में सूराख की अवधारणा!
किसी अच्छे मौसम में उनका मिलना हुआ था जो अपरिचय से औपचारिक परिचय तक ही बढ़ पाया था। अलग होते वक्त वे फ़िर से दुनियावी प्राणी होते अगर उस समय उनके बीच पैदा हुई कुछ कैलोरी की ऊष्मा जाते समय वे साथ न ले गए होते।
ये क्या था पता नहीं। शायद कोई नया ही रसायन जन्म ले गया था। वे टाइटेनिक के मुख्य पात्रों की तरह सुंदर नहीं थे न उनमे कोई जादुई शक्तियां थी। आम इंसानों की तरह उनके अपने निजी भय थे। उनके वेतन उन्हें तमाम चमकीले विज्ञापन देखने से रोकते थे। दफ्तर में समय पर जाना उनकी मजबूरी थी और यूँ उनकी कई मजबूरियां थी।
उनकी औपचारिक मुलाक़ात, जो अन्तिम थी, के समाप्त होने से ठीक पहले कोई ऐसा कमज़ोर सा पुल उनके बीच बना जो एक को दूसरे तक ले जाने का भरोसा देता था। एक कम ताप की लौ जो जलाने के बजाय कोई सूक्ष्म कोना प्रदीप्त करती थी....इतनी जो किसी सूखे बर्फ को ज़बान फेरने लायक बनाती थी। एक क्षीण उत्तेजना, जो ह्रदय की धडकनों को एक मिनट में ७२ से ७३ ही करती थी। ये समझ और नासमझी के बीच कुछ था....थोड़ा लौकिक थोड़ा अतीन्द्रीय।
उसकी कई बार इच्छा हुई कि क्यों न वो ही दुबारा कॉल करे पर दो साल पुराना वादा याद आते ही उसके हाथ रुक जाते।
उसने अपने सीने के बाँई ओर हाथ से महसूस करने की कोशिश की....धड़कने अभी भी ७३ ही थी।
इस बार गर्मी तो ऐसी थी कि जैसे नर्क की आग धरती के हिस्से में आ गई हो।
एक कॉल...... सिर्फ़ एक कॉल इस दूरी को ऐसे पाट देती जैसे हॉकिंग की समय में सूराख की अवधारणा!
किसी अच्छे मौसम में उनका मिलना हुआ था जो अपरिचय से औपचारिक परिचय तक ही बढ़ पाया था। अलग होते वक्त वे फ़िर से दुनियावी प्राणी होते अगर उस समय उनके बीच पैदा हुई कुछ कैलोरी की ऊष्मा जाते समय वे साथ न ले गए होते।
ये क्या था पता नहीं। शायद कोई नया ही रसायन जन्म ले गया था। वे टाइटेनिक के मुख्य पात्रों की तरह सुंदर नहीं थे न उनमे कोई जादुई शक्तियां थी। आम इंसानों की तरह उनके अपने निजी भय थे। उनके वेतन उन्हें तमाम चमकीले विज्ञापन देखने से रोकते थे। दफ्तर में समय पर जाना उनकी मजबूरी थी और यूँ उनकी कई मजबूरियां थी।
उनकी औपचारिक मुलाक़ात, जो अन्तिम थी, के समाप्त होने से ठीक पहले कोई ऐसा कमज़ोर सा पुल उनके बीच बना जो एक को दूसरे तक ले जाने का भरोसा देता था। एक कम ताप की लौ जो जलाने के बजाय कोई सूक्ष्म कोना प्रदीप्त करती थी....इतनी जो किसी सूखे बर्फ को ज़बान फेरने लायक बनाती थी। एक क्षीण उत्तेजना, जो ह्रदय की धडकनों को एक मिनट में ७२ से ७३ ही करती थी। ये समझ और नासमझी के बीच कुछ था....थोड़ा लौकिक थोड़ा अतीन्द्रीय।
उसकी कई बार इच्छा हुई कि क्यों न वो ही दुबारा कॉल करे पर दो साल पुराना वादा याद आते ही उसके हाथ रुक जाते।
उसने अपने सीने के बाँई ओर हाथ से महसूस करने की कोशिश की....धड़कने अभी भी ७३ ही थी।
वाह संजय जी.. बहुत खुब.. आपके लेख में जो सबसे उमंदा होता है वो है उसका अंत... बहुत रोचक अंदाज में वास्तविकता के पास ले जाते हैं..
ReplyDeleteबधाई..
aap ki rachna se pram ka ek adbhut roop dekhne ko mila
ReplyDeletebhut hi sundar rachna jo man ko chhugai .....aap ke lekhan main bhut shakti hai
umda thought,umda lekhan...
ReplyDeleteसहज, स्वाभाविक एवं सुन्दर भाव..!
ReplyDeleteउनके वेतन उन्हें तमाम चमकीले विज्ञापन देखने से रोकते थे। बहुत सहजता से आपने गहरी बात कह दी। वाह।।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
संजय जी .....आपका लिखा कई बार हमारा अनकहा सा होता है ....पूरा तो नहीं ...पर हाँ टुकडो टुकडो में ....
ReplyDeleteबरसों बाद
जब
अपने माझी की गलियों के
उस जाने -पहचाने मोड़ पे
रुकता हूँ
बेहिस पड़े उदास से कुछ रिश्ते
आँख मल के हैरां से
मुझे देखते है
फ़िर
फुसफुसा कर कहते है
"दुबारा तो कहा होता "
मस्त है संजय भाई
ReplyDeleteआपकी स्टाईल अलग है इसमें आप ज़िन्दगी को एक इंसान के बिम्ब रूप में परिवर्तित कर पाते हैं, मैं इसे कहानी ही कहूँगा एक सम्पूर्ण कहानी जिसमे सबसे अधिक मजा आता है आपकी भाषा से समझे जाने वाले दृश्यों से. कई बार बरबस हंसी आती है कुछ जगह पर और कभी आप एकदम संजीदा कर जाते हैं.
सबसे बड़ी बात है कि आप सिर्फ एक डिग्री ज्यादा को भी पकड़ लेते हैं.
यहां मिट्टी की सौंधी खुशबू के बीच डॉ अनुराग की पक्तियां पढ़ीं तो लगा कि एक बार फिर वही दिन लौट आए हैं और कोई फुसफुसा रहा है दुबारा तो कहा होता।
ReplyDeleteसंजय जी आपकी और अनुरागजी की लेखनी में एक बार कॉमन है वह यह कि दोनों में बारिश की पहली बूंद से भीगी मिट्टी की सौंधी महक होती है।
आपकी लेखनी कि विभिन्नता, वाक्यों कि गहनता और आपकी संवेदनशीलता .. कहानी के पात्रों को ही नहीं पाठकों को भी एक डीग्री ज्यादा जिया रही है...
ReplyDeleteमावीय संवेदनाओं को इतने सहज तरीके से अभिव्यक्त कर पाना आपकी विशेषता बन गयी है. बहुत सुन्दर, आभार.
ReplyDeleteसंजय जी,
ReplyDeleteउस बात का मजा ही क्या जो सीधी तरह से कह दें.आपका लिखा अद्भुत प्रवाह लिए होता है...बातें कहते नहीं है...बस,इशारा कर देते है.पढ़ कर आनंदित हो उठता हूँ.डॉ अनुराग,और किशोर भाई ने सब कुछ कह दिया है..तापमान एक डिग्री बढ़ने से उठे तूफानों के मंजर कब दिखलाएंगे...
सुन्दर पोस्ट के लिए बधाई !
Behad bhavpurna rachna...inmen kashish hai.
ReplyDeleteकुछ भीगी हुई सी।
ReplyDeleteWah Vyas g wah
ReplyDeleteकहानी आपकी रोचक है पर ये ७२ और ७३ का प्रयोग इसे ज्यादा अच्छा बना रहा है जिसका कोई अर्थ भी नहीं है और बहुत से अर्थ भी हैं.
ReplyDeleteभावों के कई-कई बिम्ब बनाती है आपकी भाषा। अच्छी कहानी।
ReplyDeleteआह क्या कहूँ इस कहानी पर... किसी से बिछड़ने और उसके इन्जार के पल का किस्सा ही इतना खूबसूरत हो सकता है. लिखते तो आप गजब का ही हैं.
ReplyDeleteek shaandar abiwyakti ......kahane shabd nahi hai ......par itana kaha sakata hu aap jo bhi likhate ho uasaka sambandh gahara hota hai....badhaee
ReplyDeletewah kya baat hai..sanjay ji...great thoughts...anand aa gaya,,,,,,,,,,
ReplyDeleteachhi lagi, saral bhaasha men wyakt man ki yah jatilata.
ReplyDeleteachhi lagi, saral bhaasha men wyakt man ki yah jatilata.
ReplyDeleteडा. अनुराग जी की बेहतरीन पंक्तियाँ आपकी रचना का सबसे बडा तोहफा हैं.......
ReplyDeleteबरसों बाद
जब
अपने माझी की गलियों के
उस जाने -पहचाने मोड़ पे
रुकता हूँ
बेहिस पड़े उदास से कुछ रिश्ते
आँख मल के हैरां से
मुझे देखते है
फ़िर
फुसफुसा कर कहते है
"दुबारा तो कहा होता "
वाह....!!!!!!!
sir ji ,
ReplyDeletenamaskar
itna romanchak tha ki ek saans me hi padh liya ....aap bahut behatreen likhte ho sir ji ....
is sajiv chitran ke liye aapko badhai ..
vijay
pls read my new sufi poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/06/blog-post.html
सिर उठा के कहा किसी ने ,
ReplyDeleteएक दिल के लिए दुनिया दे दी
बस तुमसे इतनी मुहब्बत है ....
एक तारा बोला आसमान से ,
एक दिल के बदले जिन्दगी दे दी
तुमसे बस इतनी मुहब्बत है ...
एक बेहतरीन रचना ..
another shot. Sanjayji u r a player of words, God has gifted you with immense writing capabalities, I respect your calibre.
ReplyDeleteRegards,
Manoj Khatri
उसके बारे में उसे जानने वाला एक शख्स कहा करता था 'तुम्हें कुछ भी समझाना बेमानी है...तुम्हें आज तक कोई भी, कुछ भी कभी भी समझा पाया है? जाओ...जो करना है करो...तुम्हारा ही कहना है न कि गलती करके सीखोगी.'
ReplyDeleteलड़की एक नंबर की जिद्दी थी...आज सुबह से कुछ पुराने पीले पन्ने लिए बैठी है...लोगों ने समझाने की कोशिश की कि जंगल में पतझड़ का मौसम बहुत खतरनाक होता है...सूखे हुए पत्ते जब आपस में रगड़ खाते हैं तो उनमें चिंगारियां निकलती हैं...ऐसे में ही आग लग कर पूरे हरे भरे जंगल तबाह हो जाते हैं...लड़की सुनने को तैयार नहीं...कहती थी जंगल के बीचो बीच नदी बहती है...वो नदी के पास जा कर आग से बच जायेगी...हालाँकि उसे तैरना नहीं आता था और उसे पानी से बहुत डर भी लगता था.
पर वो थी ही जिद्दी...किसी की बात आज तक उसने कब मानी है
---
किशोर जी सही कहते हैं कि ये रसायन बहुत सान्द्र है.
---
इस पोस्ट पर आ कर अटक गयी हूँ...नदी के दोनों तरफ जंगलों में दावानल भड़का हुआ है और मैं सोच रही हूँ जल के मरुँ या डूब कर?