क़स्बे के व्यक्तित्व में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था। रात में मुस्कुराते तारे निर्जीव होकर टंगे लगते थे। सबने जैसे सामूहिक रूप से फांसी खा ली थी। आसमान की प्रांजलता समाप्त हो गई थी। एक पीपल का पेड़ जो क़स्बे में सबसे बूढा था अब सूखने लग गया था। ये उसकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी क्योंकि नज़दीक समय में कभी उसने वैद को बुलाया नहीं था। असल में वो क़स्बे में इन्हीं दिनों उग आए एक चार मंजिला मॉल के परिसर में रात को जगमगाते रौशनी के पेड़ से खौफज़दा था। मॉल इतना भव्य था जैसे इसका निर्माण ब्रह्माण्ड के किसी दूसरे ही कोने से आए शिल्पियों ने किया था। क़स्बे के सारे घडीसाज़ पहले ही भाग चुके थे उनके अनुसार सृष्टि की घड़ी में ही खोट आ गई थी तो अब उनका कोई काम बचता नहीं था। मॉल में दुनिया की हर चीज़ पेकेट में बंद मिलती थी। जो नहीं चाहिए वो भी मिलता था। चीन के संतरे और ऑस्ट्रेलियाई सेब मिलते थे। पीछे झूलने वाली कुर्सीयों पर सिनेमा दिखाया जाता था।
क़स्बे के लोगों ने मारे डर के उसके पास फटकना बंद किया तो वो दुगनी तीव्रता से चमकने लगा। इस मॉल का खौफ सिर्फ़ पीपल को ही नहीं ले डूबा बल्कि क़स्बे के अपने सात आर्श्चय भी देह त्यागने लग गए थे। पहाडी के कपालेश्वर मन्दिर का पाताल तोड़ कुआ जिसका पानी अर्जुन के बाण से निकला था ,पहली बार सूख गया। श्री पद की सनातन जल धार भाप बन कर उड़ गई। जिन पुरातन पत्थरों से होकर वह गुज़रती थी उन पर अब सिर्फ़ उसके निशान भर बचे थे। पांडवों की १३ वें वर्ष के वनवास की आश्रय कुटी अंधड़ में उड़ गई थी।छोटे किले के झरोखे झूल कर ज़मीन चाट गए थे।
और ऐसे ही क़स्बा अपनी देह में परिवर्तन होता देख रहा था। ये कायांतरण उसकी समझ से परे था।
एक लेखक इन परिवर्तनों को अपनी डायरी में दर्ज कर रहा था। वो क़स्बे का नामचीन साहित्यकार था। उसके कई आलोचना के पोथे छप चुके थे।नवोदित लेखकों की कविताओं की मात्राएँ वो ठीक किया करता था। सर उठा कर उसने अपने प्रिय क़स्बे के परिदृश्य पर नज़र डाली। उसे फौरन कोई कबिता याद नहीं आई। पर तुंरत उसे याद आया कि उसे थैला पकडाया था श्रीमती जी ने ।उसने काफ़ी देर से निचले होठ और दांतों के बीच पड़े ज़र्दे को जिह्वाग्र से एकत्र कर प्रक्षेपास्त्र की तरह फेंका और मॉल की तरफ बढ़ गया।
लेखक की इस ज़ल्दबाजी में एक महत्वपूर्ण घटना क्रम उसके बही खाते में दर्ज होने से रह गया। उसी सूखते पीपल के नीचे राजू टायर ट्यूब पेचिंग वाला चिंतन में व्यस्त था। ये चिंता युक्त चिंतन था क्योंकि हेमी, उसकी प्रेमिका, उसे लगातार सुनाए जा रही थी-
"आज शाम को मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ, हम कही भाग जाते हैं।"
"आज कैसे होगा, अब तक तो सिर्फ़ दो ही पंचर निकले है,घर से भागने के लिए पैसे भी तो चाहिए।"
"मैं कुछ नहीं जानती मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ"
मॉल से चुंधियाते क़स्बे में जीवन के ऐसे ही स्फुरण को लेखक दर्ज नहीं कर पा रहा था, उसके उपकरण इन सूक्ष्म हरकतों की रीडिंग लेने में असमर्थ भी थे। पर सवाल ये भी था कि इनका क़स्बे की जीवन मृत्यु से कोई लेना देना था भी या नहीं।
(photo courtesy- wikimedia)
क़स्बे के लोगों ने मारे डर के उसके पास फटकना बंद किया तो वो दुगनी तीव्रता से चमकने लगा। इस मॉल का खौफ सिर्फ़ पीपल को ही नहीं ले डूबा बल्कि क़स्बे के अपने सात आर्श्चय भी देह त्यागने लग गए थे। पहाडी के कपालेश्वर मन्दिर का पाताल तोड़ कुआ जिसका पानी अर्जुन के बाण से निकला था ,पहली बार सूख गया। श्री पद की सनातन जल धार भाप बन कर उड़ गई। जिन पुरातन पत्थरों से होकर वह गुज़रती थी उन पर अब सिर्फ़ उसके निशान भर बचे थे। पांडवों की १३ वें वर्ष के वनवास की आश्रय कुटी अंधड़ में उड़ गई थी।छोटे किले के झरोखे झूल कर ज़मीन चाट गए थे।
और ऐसे ही क़स्बा अपनी देह में परिवर्तन होता देख रहा था। ये कायांतरण उसकी समझ से परे था।
एक लेखक इन परिवर्तनों को अपनी डायरी में दर्ज कर रहा था। वो क़स्बे का नामचीन साहित्यकार था। उसके कई आलोचना के पोथे छप चुके थे।नवोदित लेखकों की कविताओं की मात्राएँ वो ठीक किया करता था। सर उठा कर उसने अपने प्रिय क़स्बे के परिदृश्य पर नज़र डाली। उसे फौरन कोई कबिता याद नहीं आई। पर तुंरत उसे याद आया कि उसे थैला पकडाया था श्रीमती जी ने ।उसने काफ़ी देर से निचले होठ और दांतों के बीच पड़े ज़र्दे को जिह्वाग्र से एकत्र कर प्रक्षेपास्त्र की तरह फेंका और मॉल की तरफ बढ़ गया।
लेखक की इस ज़ल्दबाजी में एक महत्वपूर्ण घटना क्रम उसके बही खाते में दर्ज होने से रह गया। उसी सूखते पीपल के नीचे राजू टायर ट्यूब पेचिंग वाला चिंतन में व्यस्त था। ये चिंता युक्त चिंतन था क्योंकि हेमी, उसकी प्रेमिका, उसे लगातार सुनाए जा रही थी-
"आज शाम को मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ, हम कही भाग जाते हैं।"
"आज कैसे होगा, अब तक तो सिर्फ़ दो ही पंचर निकले है,घर से भागने के लिए पैसे भी तो चाहिए।"
"मैं कुछ नहीं जानती मैं अपना सामान लेकर आ रही हूँ"
मॉल से चुंधियाते क़स्बे में जीवन के ऐसे ही स्फुरण को लेखक दर्ज नहीं कर पा रहा था, उसके उपकरण इन सूक्ष्म हरकतों की रीडिंग लेने में असमर्थ भी थे। पर सवाल ये भी था कि इनका क़स्बे की जीवन मृत्यु से कोई लेना देना था भी या नहीं।
(photo courtesy- wikimedia)
सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteकहानी में कस्बे के रुपान्तरण को देखता हूँ और जी भर के ठहाके लगाता हूँ जब मालूम होता है कि अब तक दो ही पंक्चर निकले हैं. कमोबेश हम सब की हालत ऐसी ही है बस हौसला करना पड़ता है हेमी की तरह.
ReplyDeleteमैं उन लेखक को भी देखता हूँ मॉल के सामने के रेडियोसाज की दुकान पर मुहावरों और लोकोक्तियों की गिनती करते हुए. बुढाते पीपल की जड़ों को सचमुच कोई ईर्ष्या अथवा भय से उत्पन्न विचार ही सुखा सकता है.
Good narration. The photograph was so unique.
ReplyDeletebahut achchhi laghukatha hai.Bhav bahut hi spat hain jinka aapne bakhobi chitran kiya hai.
ReplyDeleteसंजय जी,
ReplyDeleteआपकी रचना पढ़कर विचार करता रहगया.प्रथम तो इसमें आरम्भ से अंत तक पाठक को बांधे रखने की क्षमता है.कायांतरण कसबे का ही नहीं हुआ है...रिश्तों, विचारों और मूल्यों सभी का हुआ है.आपने जिस उत्कृष्ट तरीके से व्यक्त किया है वह सरहनीय है.
आपका गद्य हर बार दिलचस्प होता है ! हिन्दुस्तानी क़स्बा अपने आप में एक दिलचस्प संरचना है. बढ़िया काम संजय भाई.
ReplyDeleteतारों की सामूहिक आत्महत्या का एंगल पहली बार देखा है।
ReplyDeleteजीवन मृत्यु के बीच प्राणवायु का संबंध है। जैसे जैसे यह कम हो रही है घुटन भी बढ़ रही है। इसे महसूस किया जा सकता है।
बहुत जिवंत चित्रण... पुरा समझने के लिये कस्बा के तीन चक्कर लगाने पडे़ और चार पर पढ़ना..
ReplyDeleteकस्बों में सामाजिक परिवर्तन को बखुबी दिखाया है..
मजा आया..
बेहतरीन-एक नया दर्शन इस विषय पर.
ReplyDeleteसंजय जी, मेरे लिए आप ऐसे ब्लोगरों में हैं, जिनकी रचनाओं का इंतजार रहता है. बाजारीकरण और बढती असमानता और उसकी चपेट में हर आदमी आ चूका है. 'मुंबई मेरी जान' फिल्म में इरफान खान का चरित्र इसे बखूबी बयां करता है. और आपकी यह रचना भी गहरी चोट करती है. सम्मान!
ReplyDeleteकस्बे अब ढूंढें से नहीं मिलते ....ओर हमारे जैसे शहरो में कई हिस्से कस्बो से नजर आते है ..कुछ किलो मीटर की दूरी पे चरित्र भी बदल जाते है ओर लोगो की आदते भी....ओर जरूरते भी.....ओर बच्चे भी.... लगता है "मेटामोरफोसिस भी बायस 'हो रहा है...कस्बे के बहाने आपने जिंदगी की नब्ज़ को पकडा है ....चित्र तो अपने आप में एक पोस्ट है .....ओर हाँ..
ReplyDeleteयाद नहीं आ रहा किसका शेर था .....कई तारो ने यहाँ टूटकर खुदकुशी की है ....
मॉल - पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण
ReplyDeleteबूढा पीपल - सांस्कृतिक धरोहर , मृत्यु की ओर
लेखक - इक्कीसवीं सदी से डरा हुआ आम आदमी जो चुप है
हेमी - हमारे जीवन और हौसले की नीवं
राजू टायर ट्यूब पेचिंग वाला - हम जो अविश्वास से देखते हैं कल को और अपने पांवों को
उपकरण - गीता, कुरान, बाईबिल और ग्रन्थ साहिब जिनके सूक्ष्म ज्ञान को न पकड़ पाने की निराशा से फैला अन्धकार जो इन को ढक चुका है
बस आप ऐसे ही नोट करते रहिये, सुपर सोनिक के युग में कल ही एक सौ साल पुराना हवाई जहाज फिर उड़ाया गया है.
कसबे की आत्मा शौपिंग माल की नींव में दफ़न है आपने कितनी गहनता और सुन्दरता से दर्शा दिया संजय जी!
ReplyDeleteबेहद सुन्दर अभिव्यक्ति....सुन्दर रचना...बधाई !!
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पर भी पधारें !!
कायांतरण के प्रस्तुति शैली अद्भुत.
ReplyDeleteबधाई.
चंद्फ्र मोहन गुप्त
Bahut prabhavshali dhang se aapne apni baat kahi.
ReplyDeleteराजू टायर पंचर वाले को कभी इतने टायर पंचर के मामले न मिलेंगे कि वह कमा कर भाग सके।
ReplyDeleteकस्बे की अर्थव्यवस्था उसे पकड़े रहेगी।
कबेरदास स्टाइल से जाना हो तो बात अलग है।
वाह व्यास जी वाह... अनुभूतियों को शब्दों का जामा पहनाना आसान काम नहीं.. पर आपने कर दिखाया. वाह...
ReplyDeleteबेहद सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDelete"हिन्दीकुंज"
badlta privesh hmari mjburi nhi hai fir bhi na jane kyo ham sab iski giraft me hai chka chondh ki or akrshit hai .shayd nya nya paisa aa gya hai ?ya fir ak bar try karne me kya harj hai ?
ReplyDeleteचारों तरफ दुकानें ही दुकानें ... काम्लेक्स ... शापिंग माल
ReplyDeleteक्या वाकई इतना कुछ है बिकने को तैयार
उसके लिए जो कि
नंगा-नंगा पैदा हुआ था !
आपने पीपल ,, माल ,,, पंचर वाले के माध्यम से बदलते गाँव-कस्बों का सटीक चित्रण किया है !
सबसे ज्यादा आपकी लेखन शैली मुग्ध करती है !
आज की आवाज
उसके उपकरण इन सूक्ष्म हरकतों की रीडिंग लेने में असमर्थ भी थे
ReplyDeletebut your equipments are always ok and ready to work. I must say you have noticed the transformation of a small town so precisely and made it into a narrative, this is fabulous.
Rgards,
Manoj Khatri
PS: would have commented in Hindi but the transliteration feature is somehow disabled, so pl bear.
MK