Monday, October 12, 2009
योद्धा (कविता)
वो एक शानदार योद्धा था।
मिटटी के अखाडे में उसका
दर्प कभी खंडित नहीं हुआ था।
पहलवानों की गुरु शिष्य परम्परा में
अपनी तरह का अकेला ही
आया था वो।
चौंधियाते क्रिकेट मैदानों से बहुत दूर
अखाडे के धूसर कोनों का लड़ाका
अपनी सत्ता के महज कुछ क़दमों से नापे जा सकने वाले
दंगल-मैदान के अलावा
खानदानी हकीम-वैद्यों के चल- तम्बुओं पर
किसी फोटो में टंगा,भुजाओं के प्रसार में
मांसपेशियों के बल को दिखाता और
छलावे पौरुष की
हिमालयी रामबाण खरीदने का आग्रह करता था।
इतना हीविस्तार था उसका
खेल उसके लिए वो था
जो अखाडे में खेला जाता था
नियमों की मर्यादा से आबद्ध
अनजान था वो कि
बाहर दुनियादारी के खेल
बिना नियमों के ही
खेले जाते थे
अपनी लड़ाई वो अखाडे में ही
समाप्त करना चाहता था
जीत या हार के किसी भी भाव से मुक्त होकर
पर अंततः घर में ही घर की लड़ाई हार बैठा
और यूँ मिटटी के चौकोर अखाडे का सफल योद्धा
एक विफल बाप पति और बेटा साबित हुआ।
पिछले कुछ समय से
अखाडे में वो घंटों अकेला बैठा रहता
किसी अन्तिम बची शरणस्थली में जैसे कोई बाघ
निरंतर नश्वर होने के बोध से ग्रस्त
एक हारी हुई लड़ाई के
किसी भी क्षण आने वाले
परिणाम की कातर प्रतीक्षा में।
एक शानदार योद्धा की तरह
आखिर वो भी डरता था
मैदान के बाहर
बिना नियमों से लड़ी जाने वाली
लड़ाई में मिलने वाली हार से।
( photo courtesy-wikimedia )
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एक शानदार योद्धा की तरह
ReplyDeleteआखिर वो भी डरता था
मैदान के बाहर
बिना नियमों से लड़ी जाने वाली
लड़ाई में मिलने वाली हार से।
यही वो मैदान है जहाँ बड़े बड़े योद्धा पस्त हो जाते है ...ओर शायद कभी जीत नहीं पाते...
किसी अन्तिम बची शरणस्थली में जैसे कोई बाघ
ReplyDeleteनिरंतर नश्वर होने के बोध से ग्रस्त
एक हारी हुई लड़ाई के
किसी भी क्षण आने वाले
परिणाम की कातर प्रतीक्षा में।
एक कविता अपने विस्तार में बहुत कुछ समेटे हुए ...कौन योद्धा नहीं होता है...आपकी इस कविता का नायक चरित्र हर आम आदमी में ढूँढा जा सकता है...डॉ.अनुराग साहब ने कविता की श्रेष्ठ पंक्तियों को पहले ही चुन लिया है...उनकी राय से सहमत होते हुए कहना चाहूंगा कि इसको पढ़कर ऐसा लगरहा था कि बात पाठक के दिल की ही होरही है...हारा हुआ योद्धा ...लाजवाब!
योद्धाऒं के साथ ऐसा ही क्यों घटता है भाई..............? बहरहाल आपकी संवेदना नमनीय है.....
ReplyDeleteवैयक्तिक जीवन में उभरी सामाजिक और वृहत्तर मानवीय चिंता के कारण यह एक सजग और संवेदनशील कविता है. यथार्थवादी दृष्टिकोण से उपजी लम्बी नेरेटिव कविताएं मुझे यूं भी बहुत भाति है. सामाजिक सरोकार ही कविता को दीर्घजीवी बनाते हैं जो आपकी इस कविता में अंत तक धूसर नहीं होते. इस कविता में जीव के भीतर के योद्धा का कौशल प्रश्नवाचक चिह्नों से घिरा है, असामयिक चीजों ने उसके गिर्द इस तरह घेरा डाला है कि सब उजाले नीले दिखाई देने लगे हैं.
ReplyDeleteइस कविता को पढ़ते हुए मैं अपने भीतर के योद्धा को मरते हुए देख रहा हूँ, जैसे मैं भी गलत जगह पर आ गया हूँ अपने अखाड़े से बाहर... देखता हूँ कि कविता से क्या प्रेरणा पाता हूँ.
अंतिम पंक्तियाँ बहुत कुछ कह देती हैं.
ReplyDeleteकिशोर जी की टिपण्णी पढ़कर में भी कुछ सोच रहा हूँ
फिल्म रंग दे बसंती का डायलोग है.. कोलेज में हम ज़िन्दगी तो नचाते है.. ते कोलेज के बाद जिंदगी हमें नचाती है. .टिम लक लक ते टिम लक लक.. यूनिवर्सिटी के बाहर अच्छे अच्छे डी जे दम तोड़ देते है..
ReplyDeleteबिना नियमो के खेलने वाली दुनिया में.. नियम कायदे वाला इंसान एक हरा हुआ योद्धा ही होता है..
जबरदस्त लिखावट है..
shabdo ka chayan vakai shandaar hai...bahut khub....
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना. एक पूरक पंक्ति याद आ गयी:
ReplyDeleteमनके हारे हार है मन के जीते जीत.
आखिर वो भी डरता था
ReplyDeleteमैदान के बाहर
बिना नियमों से लड़ी जाने वाली
लड़ाई में मिलने वाली हार से।
बहुत ही भावपूर्ण रचना.
आप सफल हुए हैं इस कविता के माध्यम से आज के जीवन का आइना दिखाने में ... पढ़ कर लगा दुनिया के मैदान में हार साझा है ...
ReplyDeleteओह, लगता है हम पर लिख रहे हैं आप।
ReplyDeleteपढ़ कर गुलाल फ़िल्म के हिज मेजिस्टी याद आते हैं...और यह चित्र तो अद्भुत है
ReplyDeleteअखाडे के धूसर कोनों का लड़ाका
अपनी सत्ता के महज कुछ क़दमों से नापे जा सकने वाले
दंगल-मैदान के अलावा
खानदानी हकीम-वैद्यों के चल- तम्बुओं पर
किसी फोटो में टंगा,भुजाओं के प्रसार में
मांसपेशियों के बल को दिखाता और
छलावे पौरुष की
हिमालयी रामबाण खरीदने का आग्रह करता था।
’चल-तम्बू’....अहा!!!!
पर्यवक्षेण की विविधता और बारीकी परख रहा हूँ। सन्दर्भ से जुड़ा कुछ नहीं छोड़ा आप ने।
ReplyDeleteजीवन का विद्रूप चित्रण इस तरह ?
बन्धु, इसे अ-कविता कह दूँ?
हाइफन इसलिए लगाया कि इसे 'शास्त्रीयता' से मुक्त रखना चाहता हूँ।
अच्छी कविता संजय भाई. इधर आपने कविता लगानी शुरू की है, यह देखना सुखद है. मैं काफ़ी दिन ब्लॉग से दूर रहा - बस पोस्ट लगाने की मोहलत भर मिली,लेकिन अब लौट आया हूँ.
ReplyDelete@डॉ.अनुराग-शुक्रिया डाक्साब,ये मैदान बेनियम से खेलेजाने वाले रग्बी खेल के लिए उपयुक्त लगता है.
ReplyDelete@प्रकाश-योद्धा की हार एक जीवंत समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है क्योंकि ये हार उसे बचाव का भी अवसर नहीं देती.
@मौदगिल जी शुक्रिया.आभार.
@किशोरजी-कविता में भरसक व्यवस्था लाने के प्रयासों के बावजूद इसके अनगढ़ स्वरुप में सामने आये प्रश्न और चिंताएं रिलेट करती से लगती है तो सफल हुई ये कविता.शुक्रिया कविता के तमाम तत्वों पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणी का.
@अनिलकांत-आपकी लेखनी और यहाँ टिपण्णी दोनों का इंतज़ार रहता है.
ReplyDelete@कुश-सही है एक योद्धा बाहर बिना कवच लड़ने को अभिशप्त है और ज़िन्दगी के टुच्चेपन से मार खाता है.शुक्रिया.
@शोभना जी,वर्मा साहब-थैंक्स.
@अनुराग शर्मा जी-आपके शब्द प्रेरित करते है,अपने लिखने में और तरतीब लाने में.आभार.
@नीरा जी -कविता कुछ कह पाई है, तो मन में संतोष है.आपके मूल्यवान शब्द इस कविता के साथ संजोये रहेंगे इसकी ख़ुशी तो हमेशा रहेगी.
@ज्ञान दा-आभार.प्रकृति के महान काव्य गंगा को हम आपके यही समझ रहें है.
@अपूर्व-आपका आगमन सुखद लगा.शुक्रिया.
@गिरिजेश राव-कविता अपने कच्चेपन में भी सन्दर्भों से अलग नहीं होती या दूरी नहीं बनाती तो ये मेरे लिए संप्रेषण की सार्थकता का सुखद अहसास है.शुक्रिया,धन्यवाद.
ReplyDelete@शिरीष जी-आभार और साथ में ये कहूँगा कि ये कविता केमुझ सरीखे पाठक का हर अच्छी कविता को शुक्रिया कहने का अंदाज़ भी है.कविता पाठक को उसके अपने साथ उदारता बरतने के लिए बेहतर स्थितियों का सृजन भी करती है:)
आपकी व्यस्तताओं का अंदाज़ कुछ कुछ तो हो भी रहा था पर अब आपका 'लौटना'सुखद समाचार के तरह आया है.
पुनः स्वागत.
kavita wakai achhi lagi. kavita-akvita ki baat yahan bemani lagti hai
ReplyDeleteवह क्या बात है. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. वैसे तो हर योद्धा की अपनी ही जमीन होती है जहा उसका बोलबाला रहता है परन्तु दुनियादारी में हार जाता है.आभार.
ReplyDeleteबढ़ा दो अपनी लौ
ReplyDeleteकि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,
इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य
दीवाली की ढेर सारी शुभकामनायें.
ReplyDeleteव्यासजी,
ReplyDeleteटिप्पणियां के. लिए आभारी हूँ.
एक दीप मोहब्बत का ऐसा भी जला दो कि ,
रूह रौशन हो सके, घर में उजाला भी रहे !
दीपावली की मंगल-कामनाएं !!
विनीत--
आनंद वर्धन ओझा.
बहुत ही सुंदर --इस खुलेपन की जितनी भी तारीफ़ करें कम है, दोस्त।
ReplyDeletedher sari subh kamnaye
happy diwali
from sanjay bhaskar
haryana
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
bahut hi sunder hai
ReplyDeletedher sari subh kamnaye
happy diwali
from sanjay bhaskar
haryana
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एक शानदार योद्धा की तरह
ReplyDeleteआखिर वो भी डरता था
मै अगर इस कविता की प्रशंसा न करूँ तो यह गलत होगा ।