Monday, October 26, 2009
फ्रेम
एक भरी पूरी उम्र लेकर
दुनिया से विदा हुई दादी के बारे में
सोचता है उसका पोता
बड़े से फ्रेम में उसके चित्र को देखता।
विस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
बेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार घटने का।
अनगिन बार सुना है जिसने
समाप्त हो चुकी पक्षी प्रजातियों का कलरव
बहुत से ऐसे वाद्यों का संगीत
जो अब धूल खाए संग्रहालय की
कम चर्चित दीर्घा में पड़े हैं
या हैं जो किसी घर की भखारी में
पुराने बर्तनों के पीछे ठुंसे हुए।
देखा है जिसने
शहर के ऐतिहासिक तालाब को
चुनिन्दा अच्छी बारिशों में लबालब होते
फ़िर बेकार किए जाते
अंततः कंक्रीट से पाटे जाते।
देखा है जिसने
घर के सामने
खेजड़ी को हरा होते और सूखते
अन्तिम बार हुए
किसी लोकनाट्य के रात भर चले मंचन को भी।
कितने ही लोक संस्करण बोले हैं
इसने राम कथा और महाभारत के
जिन्हें उनके शास्त्रीय रूपों में
कभी जगह नहीं दी गई।
बताती थीं वो
कि पांडवों का अज्ञात वास
उसके पीहर के गाँव में ही हुआ था
जहाँ भीम के भरपेट खाने लायक
पीलू उपलब्ध थे
और अर्जुन ने वहीं सीखा था
ऊँट पर सवारी करना।
उसके हाथों ने, जो दिखाई नही दे रहे थे फोटो में
इतना जल सींचा था
जिनसे विश्व की समस्त नदीयों में
आ सकती थी बाढ़
कदम उसके इतनी बार
चल चुके थे इसी घर में
कि जिनसे की जा सकती थी
पृथ्वी की प्रदक्षिणा कई कई बार
इतनी सीढीयाँ वे चढ़ चुके थे घर की
कि जिनसे किए जा सकते थे कई
सफल एवरेस्ट अभियान
और इतनी दफा वे उतर चुके थे
घर के तहखाने में
जो पर्याप्त था
महासागरों के तल खंगालने को।
यद्यपि मृत्यु से पहले
सवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।
photo courtesy- suessmichael
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क्या खूब लिखा है भाई जान
ReplyDeleteवाह वाह और वाह !!
Ultimate...
Superb !!
आपकी कविता पढ़कर दिल खुश हो जाता है
ReplyDeleteउसके हाथों ने, जो दिखाई नही दे रहे थे फोटो में
ReplyDeleteइतना जल सींचा था
जिनसे विश्व की समस्त नदीयों में
आ सकती थी बाढ़
कदम उसके इतनी बार
चल चुके थे इसी घर में
कि जिनसे की जा सकती थी
पृथ्वी की प्रदक्षिणा कई कई बार
इतनी सीढीयाँ वे चढ़ चुके थे घर की
कि जिनसे किए जा सकते थे कई
सफल एवरेस्ट अभियान
और इतनी दफा वे उतर चुके थे
घर के तहखाने में
जो पर्याप्त था
महासागरों के तल खंगालने को।
ये एक एक शब्द अद्भुत है । बहुत गहरी संवेदनायें दादी के फ्रेम के माध्यम से कही हैंुस समय की कर्मठता और आज की अकर्मनयता का सजीव चित्रण। हम अपनी धरोहरों को संभाल नहीं पाये। शुभकामनायें। बहुत अच्छी रचना है
एक सुंदर कविता.
ReplyDeleteसभी कुछ लय में और बिना फ्रेम कि सीमाओं को लांघे बहता हुआ सा. इतनी सहजता से एक सम्पूर्ण जीवन के कष्टों और सार्थकता का पूरा बयां है आपका ये फ्रेम. दादी के कदमों से आपने अलंघ्य पर्वत श्रृंखलाओं को भी फतह कर लिया है. वैसे कविता में पढ़ने के लिए बहुत कुछ है और उस पर कहने के लिए बहुतकम सिवा इसके कि आपको बहुत बधाई !
विस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
ReplyDeleteबेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार घटने का।
hmmm! bhaavpoorn kavita.... apne shabdon ko aapne bahut hi achche se piroya hai.... kavita mein....
अच्छी कविता। गहराई तक स्पर्श करती हुई। इन दिनों ब्लॉगजगत में कम ही आना-जाना हो रहा है, लेकिन आज इधर से गुजरना सार्थक रहा।
ReplyDeleteएक मर्मस्पर्शी रचना...........सम्वेदनाओ की गहराई को बहुत ही खुबसूरती से उकेरा है !एक बेहतरीन रचना!
ReplyDeleteबहुत प्रिय लगी पोस्ट मित्र!
ReplyDeleteदिल को छूती रचना....
ReplyDeleteफ्रेम में लगी दादी कि झुरियों में छिपी जीवन यात्रा चलचित्र कि तरह आँखों में उतरती है और यह दादी कितनी अपनी सी लगती है ...
ReplyDeleteसंजय यह अच्छी कविता है । किसी पत्रिका मे भेजी या नही? मेरा भी एक समकालीन कविता का ब्लॉग है । देखना http;//kavikokas.blogspot.com
ReplyDeleteनहीं जानता आपने किस मूड में लिखी है ..दिन के कौन से समय पे लिखी है ..पर एक निरन्तरता है .उदासी की ...एक मौन सा है ...एक रवानगी है ...अमूमन लम्बी कविताये अपनी मंजिल पे पहुंच के भटक जाती है ....पर आपकी आखिरी पंक्तियों ने इसे अर्थ दिया है ...
ReplyDeleteयद्यपि मृत्यु से पहले
सवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।
यद्यपि मृत्यु से पहले
ReplyDeleteसवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।..bahut dard hua padh ke..kise waqt hai dada dadi ko yaad rakhne ka....i love my grand parents...
बड़ी ही सुन्दर कविता है, बहुत मर्मस्पर्शी है. काफी कुछ सिखने को मिलेगा आकी रचनायों को पढने से
ReplyDeleteसंजय ,
ReplyDeleteजब बात दिल से निकलती है तो दिल तक जाती है . 'फ्रेम' अच्छा है .फोटो अच्छा है .दादी की अंगुली थामकर उनके साथ साथ पीछे मुड़कर जीवन को देखना अच्छा लगा .
सुंदर भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद संजय जी....
ReplyDeleteसंजय साहब कहर ढा दिया आपने इस कविता से..मेरे एक दोस्त की दादी भी अभी दसेक दिन पहले दिवंगत हुईं है..भरी-पूरी उम्र ले कर...मगर यहाँ जैसे एक गुजरी हुई सदी का ही चित्र खींच दिया आपने..
ReplyDeleteझुर्रियों मे तह कर के रखा समय
कहाँ तक जाती है आपकी सोच!!!
एक पूरा म्यूजियम सा उभर के आता है गुजिश्ता सदी का..आपकी इस नज़्म मे!!
भई एक-दो बार पढ़ने या कमेंट देने से बात नही बनेगी...फिर-फिर आना होगा पढ़ने के लिये!!
बेहतरीन अभिव्यक्ति है संजय बाबू...
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteफ्रेम वर्क बढिया है
समय तो साक्षी है
हर चीज़ के लिए
नम आँख पोछने का कोई सिम्बल पता होता तो यहाँ लगा देता।
ReplyDelete...
जी, वही मेरी सीमा है। आज दूसरी बार उससे टकराया।
sanjay..aapki kavitayen samay ki gahraieyon mein gehre kahi tal se been ker laye motiyon ki mala jaisi hai ..jo hamare beete samay ki gunj se spandit hoti hai na to uske adhitya hone kaa dumbh bherti hai na uske khone kaa rudan kerti hai ..veaapko barabas khinch le jati hai ..majboor kerti hai ,,baichan kerti haio ..aur hum bhochak dekhte hai khud apne hone ko aur apne khoye hue dhan ke ahsasa se bher jate hai ...kavitaon ki anugunj lambe samay tak bani rehne ki taqat rekhti hai .....sanjay aap ki kavita ke sang hona khud ke khoye hisse se milne ke saman hai ....
ReplyDeleteविस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
बेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार