डाकिया आज भी उसे कायदे से नहीं जान पाया था भले ही इस महल्ले में वो पिछले कई सालों से रह रहा था। ये बात अलग थी कि आज डाकिया ख़ुद अपनी पहचान के संकट से गुज़र रहा था। अपने घर में भी।
दोस्त लोग उसके इतने कम थे कि ख़ुद को दिलासा देने के लिए वो दुआ सलाम वालों को भी दोस्तों में शुमार कर लिया करता था। उसकी विनम्र-गीता के अनुसार-"वाहनों में साइकल,जानवरों में बकरी,पक्षियों में कबूतर वो ही था। भाषाओं में हिन्दी,मुल्कों में फिलिस्तीन,और बाजीगरों में तमाशबीन वो ही था।"कुल मिलाकर इंसानों में बंसीलाल वो ही था। उसकी उपस्थिति इस दुनिया में इतनी ही स्थूल थी कि वो था। और इतनी सूक्ष्म कि वो था इसका पता लगाना भी मुश्किल था। उसे अक्सर लाइनों में पीछे खड़े देखा जा सकता था और उसका नम्बर लाइन के ख़त्म होने से ही आ पता था।
घर में वो चार भाइयों में तीसरा था। न सबसे बड़ा न छोटा। इतना छोटा भी नहीं कि सबका लाडला हो सके और इतना बड़ा भी नही कि जिम्मेदार माना जा सके। कद उसका दरम्याना था। कांस्टेबल जैसे रसूखदार ओहदे के लिहाज़ से छोटा और घर में रखी मिठाई चुराने के लिहाज़ से काफ़ी बड़ा।
उसे लगा कि इस दुनिया के माफिक उसे नही बनाया गया है। घर में थोडी ऊंची खिड़की की और पीठ करके वो काफ़ी देर ऐसा ही कुछ सोच रहा था। इसी सोच में वो घर के पर्यावरण से हो रही बोरियत से ऊबा खिड़की की और घूमा तो उसका मुंह फटा का फटा रह गया।उसके घर की खिड़की को समभाव से देखती सामने वाले घर की खिड़की में उसके सपनों की रानी खड़ी थी। मतलब एक बार का उसने ऐसा ही सोचा। सोचने पर फिलहाल कोई ख़ास पाबंदी नही थी, कम से कम उसके जैसा निरापद सोचने में। उसे लगा लड़की उसकी ओर ही देख रही थी। ज़िन्दगी में पहली बार कोई उसे इतनी देर से देख रहा था वरना वो तो लोगों के दृष्टि-परास में ही नहीं आता था।
जान तो गया था वो कि लड़की वही है जिस पर महल्ले के लड़के देर तक चर्चाएँ करते थे और कुछ लड़कों के साथ नाम भी उछाला गया था पर बंसीलाल उस लिस्ट में तो क्या उसकी हजारवीं वेटिंग लिस्ट में भी नही हो सकता। फ़िर ऐसा क्या था कि वो लड़की जाने कब से उसे ही देखे जा रही थी,उसने सोचा। वैसे उसका मन तो हुआ कि वो 'देखे जा रही थी' की जगह 'घूरे जा रही थी' का इस्तेमाल करे पर फिलहाल इतना ठीक था।इस पर आगे और शोध की गुंजाइश थी।
उसने फ़िर से खिड़की की तरफ़ देखा, लड़की बदस्तूर उसकी ओर देखे जा रही थी।
"जीसस क्राइस्ट"। उसके मुंह से निकला. ये उसके किसी चैनल पर विदेशी फिल्मों के देखने का प्रभाव था जो धीरे धीरे उसके रिफ्लेक्स सिस्टम में घुसता जा रहा था परिणामस्वरूप उसकी स्वतः प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट हो रहा था।
उसने बड़े से आईने में ख़ुद को देखा। क्या उसमें ऐसा हो सकता था जो महल्ले की सबसे सुंदर लड़की को उसकी ओर देखने को बाध्य कर रहा था। उसकी नाक कुछ कुछ ग्रीक देवताओं की तरह थी। उसने ऐसा मानना शुरू कर दिया। उसने कई बार मांसल और पुष्ट मूर्ति शिल्प में ढले ग्रीक देवों के शरीर देखे थे और उसने निष्कर्ष निकाला कि उनकी नाक कुछ कुछ वैसी ही थी जैसी उसकी है। बाकी उनकी चट्टानी मांसलता से उसकी देह-यष्टि का कोई साम्य नहीं था।
पर्याप्त है एक खूबसूरत नाक जो किसी नवयौवना में देह-राग छेड़ दे। वो सोचे जा रहा था । अब तक घर में उसका सम्मान जिस एकमात्र गुण के कारण होता था वो था मंडी से कच्ची भिन्डियाँ छाँट लाने का उसका हुनर। अब लगता है कि उसके चेहरे पर सजी मूंछे जिस स्टाइल में थी वो अनायास नहीं था, बिल्कुल क्षैतिज रखी दो कच्ची भिन्डियाँ। पर यहाँ उसके भिन्डी-विशेषज्ञ और भिन्डी-प्रेमी होने का कोई मूल्य नही था। यहाँ उसे उसकी नाक पर गर्व हो रहा था जो, जीव विज्ञान की भाषा में कहें तो,एक मादा को 'वू' करने का सशक्त हथियार बन गया था।
विचारों में डूबा बंसीलाल शोध को भूल कर अब ये मान चुका था कि कन्या उसे खिड़की से देख नहीं घूर ही रही थी। हर रोज़ अपूर्णता के ख्याल से त्रस्त वो आज पहली बार अपने स्व को प्यार कर रहा था। एक अनजानी शक्ति को वो अपने भीतर सोख रहा था।पाओले कोएलो उसे देख रहे होते तो समझ जाते कि...पूरे ब्रह्माण्ड को इस वक्त वो उसके समर्थन में षड़यंत्र करते महसूस कर रहा था।भौतिक विज्ञान ने अपने सिद्धांतों को उसके लिए स्थगित कर दिया और अब वो गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाता उड़ सकता था, दीवारों पर स्पाइडर मैन की तरह चिपक सकता था।
लड़की अभी भी उसकी ओर देख रही थी।वो उड़ा, ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों का आह्वान करता।उस लड़की की ओर। वो उसके छज्जे पर बैठ गया। उसे पूर्णता का अहसास हो
रहा था और वो इस अहसास में अभी और जीना चाहता था। कुछ देर और सही। लड़की मेरा इंतज़ार और कर लेगी, उसने सोचा। दुनियां के तमाम सुखद अहसासों को इकठ्ठा कर कुछ देर यूँ ही छज्जे पर बैठे रहने के बाद वो
खिड़की में अपना चेहरा ले आया। लड़की का ध्यान एक क्षण को भंग हुआ पर अगले ही क्षण लड़की उससे नज़रें हटाकर फिर उसकी खिड़की को देखने लगी. एकटक.
वो अब अपने घर की खिड़की में नहीं था पर लड़की अभी भी खिड़की को ही देख रही थी।
photo courtesy- exfordy
post padni shuru ki to lga ki dakiye se shuru hai to kisi chitthi patr ki baat hogee par yaha to kahaani hi kuch or thi....ik dekhne bhar se ya yun kahe ghoorne bhar se etna asar ho sakta hai.....nazaro me asar hota hai...interesting post....
ReplyDeleteपढना शुरू किया कई चीजे आस पास से गुजर गयी....पहली एक नज़्म .......वो खिड़की आकश का चौरस टुकड़ा थामे रहती है ..गुलज़ार ने एक नज़्म लिखी थी ......कभी एक कहानी भी देखी थी दूरदर्शन पे जिसमे पैरो से लाचार एक लड़की को राह से गुजरने वाले एक इन्सान से प्यार हो जाता है .जो उसे रोज देखता है खिड़की के रास्ते.....
ReplyDeleteअंत सच है .पर सच ऐसा ही होता है ......कठोर...
es me ik or sachayee hai hum cheezo ko logo ko granted le lete hai...लड़की अभी भी उसकी ओर देख रही थी।वो उड़ा, ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों का आह्वान करता।उस लड़की की ओर। वो उसके छज्जे पर बैठ गया। उसे पूर्णता का अहसास हो
ReplyDeleteरहा था और वो इस अहसास में अभी और जीना चाहता था। कुछ देर और सही। लड़की मेरा इंतज़ार और कर लेगी, उसने सोचा।
bahut achchi lagi........yeh post...... ek baar padhna shuru kiya to ek saans mein padhta hi chala gaya.....
ReplyDeleteगुलज़ार साहब की चौरस रात याद आ गयी जिसमे चौकोर खिड़की से रात भी चौकोर नज़र आती है..
ReplyDeleteकमाल का प्रवाह है कहानी में.. अंत एक्स्पेक्टली अनएक्सपेकटेबल था... ग्रेट जॉब
राज और अनुराग जी के शब्दों सी ही मेरी बात भी.
ReplyDeleteकथा दृश्य, जो सोचा उस के विपरीत ओरिजनल राह पर बढ़ता है, मजा आया. जीवन के सच्चे दृश्यों को बयान करते समय सच को बनाये रखना कठिन है. डॉक्टर साहब जिस स्टोरी की बात कर रहे हैं वह यूल रेड द्वारा प्रायोजित कहानियों के तहत दूरदर्शन पर प्रसारित हुई थी. उस कहानी में कई स्वभाविक मोड़ थे जिनकी ख्वाहिश दर्शक करता है. उस कहानी का सजीव रूप भी है, आकाशवाणी सूरतगढ़ के एक स्टेनोग्राफ़र ने सच कर दिखाया था और वे दोनों अभी दिल्ली मे सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं. आपकी इस कहानी में विलक्षण संवाद है वे सहज ही कथा को पूर्णता की ओर ले जाते हैं सोचता हूं कि आपके इस कथानक के पात्र भी कई गलियों की खिड़कियों में झांकते होंगे.
आपको पहली बार पढ़ने आया हूँ संजय जी और अब अपने इस पढ़ लेने के बाद खुद को कोसे जा रहा हूँ कि ये पहली-बार-पढ़ना बहुत पहले ही क्यों नहीं कर लिया मैंने...!
ReplyDeleteलाजवाब गढ़ा गया शिल्प और उतनी ही लाजवाब कहानी! बंसीलाल के चरित्र को खूब बुना है आपने...इतना कि वो मानो सद्यः आ खड़ा हुआ हो अपने सामने उस कथित ग्रीक-गाड जैसी नाक लिये...कहानी का अंत अपेक्षित था, फिर भी एक अजीब-सा अहसास हुआ खत्म होते ही। इसे ही लेखकीय सफलता नहीं कहा जाता कि सब कुछ जानते-बूझते भी पाठक पढ़ता चला जाता है और अंत में इस अजीब-से अहसास{मैं डिफाइन नहीं कर पा रहा इस अहसास को, मेरी लेखकीय विफलता...!!!}से घिर आता है।
बहुत खूब संजय जी!
दो मित्रों की ब्लॉग पर लयकारी और तान देख सुन मन गद्गगद हो जाता है - संजय किशोर ...
ReplyDeleteमैं तो पात्र का गढ़न ही देख कर विस्मित हो गया हूँ।
नव यौवना
देह राग
ग्रीक देवताओं सी नाक
और उसके बाद भिण्डी ! आप ही ऐसा कह सकते हैं और फिर सँभाल भी सकते हैं - प्रेम भावना के एंटी क्लाइमेक्स का पूर्वाभास सारे 'वू' के बावजूद!!
और अंत तो बस !
कुछ पंक्तियाँ अतिरिक्त लगती हैं - redundancy सिविल इंजीनियरिंग में आवश्यक है और कभी कभी
जान बूझ कर दी जाती है लेकिन कहानी में ना भैया ना।
..संकेत ही कर रहा हूँ - बात आप समझो। हम आचार्य थोड़े हैं?
इतनी अक्ल होती तो कथा के बजाय कहानी नहीं लिखते !
abhi pavatide raha hun. thodi uljhane hain, suljha lun to katha padhunga aur apni pratikriya bhi doonga. sapreet--aa.
ReplyDeleteबढ़िया।
ReplyDeleteभाषा ने आम पात्र और कथानक को इतना प्रभावी बनाया है कि कहानी एक ऐसा रहस्य और रोमांच बुनती है जो मुस्कुराता भी है. बहुत अच्छा.
ReplyDeleteगिरिजेश जी आपका बहुत आभार.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में किशोर जी इस मायने में अद्भुत हैं कि ये अपने कथ्य के ब्योरों में सूक्ष्मता,कलात्मकता और भाषाई सौन्दर्य ले आते हैं.या ये तत्व सहजता से इनकी रचनाओं में आ जाते हैं.
ये मेरा सौभाग्य है कि इनसे मित्रता हिंदी ब्लॉग मंच साझा करने से बहुत पहले की है जिससे इनसे अपनी रचनाओं पर विमर्श करना सुझाव लेना ये सब एक विरल अहसास हो गया है.पर हमारे साथ इस अहसास को साझा करने का शुक्रिया गिरिजेश भाई.
यह कहानी मुझे याद दिलाती है विनोद कुमार शुक्ल की " दीवार में एक खिड़की रहती है..." उस खिड़की के रघुवर प्रसाद की..
ReplyDeleteकहानी के शब्दों ने कहानी के आम पात्रों को विशेष बना दिया है अगली बार ग्रीक देवों कि नाक ध्यान से देखूंगी..:-)
गज़ब लिख रहे हैं !!
ReplyDeleteकमाल !!
अनक्ल आपने जो लिखा अच्छा लिखा. मैं चाहता हूँ की आप मेरा ब्लॉग सबको पढाइए और जो मने लिखा है उसे मजाक मत समझना. ठीक है .
ReplyDeleteपूरी कहानी एक अजीब वातावरण रचती है …………….उसके अलावा सीधे सीधे जो बात व्यक्त हो रही है वह यह की स्वतः प्राप्त में संग्येय हस्तक्षेप उपलब्ध सौन्दर्य को भी कलुषित कर देता है !
ReplyDeleteदो दिन से इंतजार कर रहा था आपकी पोस्ट फुर्सत से पढुंगा.. कुछ देर तस्सली से शब्दों के सम्मोहन में रहना चाहता था...
ReplyDeleteजादुई शब्द.. मजा आ गया पढ़ कर...
गज़ब..जबर्दस्त लिख डाला सर जी आपने..एक सम्पूर्ण कहानी..इस अकेलेपन से उपजी अर्थहीनता/इन्फ़ेरिओरिटी के मनोविज्ञान को जैसे सर्जिकल टॉंग्स से पकड़ा है आपने.शॉर्लाक होम्स स्टाइल मे..
ReplyDeleteआपकी इस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति से स्रजित अनॉलिटिकल डिटेल्स..
उसकी उपस्थिति इस दुनिया में इतनी ही स्थूल थी कि वो था। और इतनी सूक्ष्म कि वो था इसका पता लगाना भी मुश्किल था।
इतना छोटा भी नहीं कि सबका लाडला हो सके और इतना बड़ा भी नही कि जिम्मेदार माना जा सके।
रसूखदार ओहदे के लिहाज़ से छोटा और घर में रखी मिठाई चुराने के लिहाज़ से काफ़ी बड़ा।
"जीसस क्राइस्ट"। उसके मुंह से निकला. ये उसके किसी चैनल पर विदेशी फिल्मों के देखने का प्रभाव था
चेहरे पर सजी मूंछे जिस स्टाइल में थी वो अनायास नहीं था, बिल्कुल क्षैतिज रखी दो कच्ची भिन्डियाँ।
....
...रचना को साहित्य की अग्रगण्य पंक्ति मे खड़ा कर देते हैं.
मुझे गुलजार साहब और दूरदर्शन का तो पता नही..मगर जेहन मे सिर्फ़ एक कहानी याद आती है..कभी हंस मे आयी थी..’रामसजीवन की प्रेमकथा’ उदयप्रकाश जी की.
आप बहुत बेहतरीन लिखते हो... कल मैं आपकी कहानी की प्रिंट आउट ले गया था... पढ़ा... और पढने के बाद लगा की मेरी ज्ञान की सीमायें उस परिधि में नहीं आ रही हैं.. ऊपर जितने भी कमेन्ट हैं... सभी विलक्षण समझ वाले हैं... और जब इतने बड़े-बड़े दिग्गज सरह रहे हैं तो कुछ कहने जरुरत नहीं रही... जो लेवल मुझे आपका लगा वो तो... बहुत स्तरीय साहित्य में होता है...
ReplyDeleteसागर जी
ReplyDeleteमैं और मेरे जैसे कई साहित्य के अनियमित से पाठक हैं जो अपनी व्यस्तताओं से लड़ते कभी कम तो कभी थोडा जयादा पढ़ते है. इसी पठनीयता के आनंद से गुज़रते कभी कभी या अक्सर कुछ लिखने का मोह भी पाले रहते हैं.
इस रचना में एक बारीक सा धागा जो मेरे मन में बना रहा वो ये कि एक है जो प्रेम देखता है और उसके ज़रिये अपने महत्वपूर्ण होने के अहसास को पाना चाहता है और एक अपने बाहर की दुनिया. इसके अलावा कई पैटर्न इसमें बनते गए जिससे एक ताना बाना बन सका.इसमें कुछ सूत्र खुले रह गए, कुछ अतिरिक्त बने रह गए ये मेरे गठन की कमजोरी है.इसका इशारा गिरिजेश जी ने भी किया है.
शुक्रिया आपका.
शुक्रिया अपूर्व.
ReplyDeleteकहानी आपके परस को पाकर कुछ तरतीब में आ गयी है.
उदय दा तो कहानी कला के बेजोड़ शिल्पी हैं.
भिन्डी का गजब प्रयोग मेरे भाई......... वाह.. जियो..
ReplyDeleteachhi kahaani hai...kahani ka shilp baandhe rakhta hai...kisi ke aankhon me apni pahchaan dekhkar khud ko pahchaanane ki khwayeesh...khubsoorati se bayaan hui hai.
ReplyDeleteयह शिल्प मेरा पसन्दीदा शिल्प है ।
ReplyDeleteकहानी अपने शानदार क्लाइमेक्स पर पहुच कर संजय की कहानी होने को प्रमाणित करती है...सोचता हूँ कि पचास वर्ष बाद अगर आपकी लिखी किसी अप्रकाशित रचना को पढ़ कर उसके क्लाइमेक्स से ही आपकी पहचान हो जाएगी....वैसे जूनियर प्रकाश के कमेन्ट पर हंसी आरही है....आशा करता हूँ ...आपने उसे सहजता से लिया होगा....मैंने उसे तो कह दिया है बेटा पिटोगे किसी दिन....!
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी जो संजीदा तो है ही साथ ही जिसमें व्यंग का छोंक भी है.
ReplyDeleteसंजय,
ReplyDeleteथोडी सी कल्पना , थोड़ी सी हक़ीकत . थोड़े से सपने और थोड़ी सी खुशी . कहीं शब्दों की बाजिगरी नहीं . बस एक अहसास और उस के परों से उड़ता युवा मन का पंछी .कहानी अच्छी है .
WHO WROTE RAM SAJIVAN KI PREM KATHA
ReplyDeleteDO YOU KNOW?
PL WRITE ON
alok
alokulfat@gmail.com
WHO WROTE RAM SAJIVAN KI PREM KATHA
ReplyDeleteDO YOU KNOW?
PL WRITE ON
alok
alokulfat@gmail.com
बहुत तारीफें हैं ऊपर, मैं और कुछ जोड़ने के status में फिलहाल नहीं हूँ. जिस दिन होऊंगा तो यहीं पर आऊंगा.
ReplyDeleteरिगार्ड्स
मनोज खत्री
किसी रेगिस्तानी कसबे में
ReplyDeleteअरब सागर की
किसी लहर के इंतज़ार की तरह
बहुत ही बढ़िया... अति सुन्दर
रिगार्ड्स,
मनोज खत्री
एक खिड़की हजार खिड़कियां .. विश्लेषण तो हो चुका है. अपन तो यही कहेंगे .. आनंद आया साब.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगी आखिर तक बस पढ़ता रहा एसा लगा जेसे आपके श्रीमुख से ही सामने बेठ कर सुन रहा हूँ
ReplyDelete