Friday, November 6, 2009

कोरस में असंगत


दुःस्वप्न उसकी उम्मीद से ज्यादा वास्तविक थे
वे तमाम हॉलीवुड मूवी चैनलों और
हॉरर धारावाहिकों की तरह रोज़ दीखते
और कुछ फीट के फासले पर
घटित होते थे
जिन्हें देखने के लिए रात और नींद का
इंतज़ार नहीं करना पड़ता था
पर हाँ रात और नींद में
कुछ अधिक तीव्रता से
मायावी प्रभाव के साथ
उपस्थित होते थे
स्कूटर पर लदे दिन में जबकि
देर तक मंद और घातक असर से युक्त।

दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
सुबह की चाय ही रहती थी
या यूँ कहें कि
उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
रहा करती थी
जो प्याली के साथ ही
रीत जाया करती थी

इसके बरक्स
उम्मीद
किसी रेगिस्तानी कसबे में
अरब सागर की
किसी लहर के इंतज़ार की तरह
क्षीण और दूरस्थ थी
या अखबार के परिशिष्ट की
बिना हवाले वाली अपुष्ट ख़बर की तरह अवास्तविक
जो अमेरिका द्वारा
तीसरी दुनिया की भूख के
जादुई डिब्बाबंद समाधान की शोध के
अन्तिम चरण में होने की
बात करती थी

असल में ये एक बीमारी थी
जिसके इलाज़ की ज़रूरत थी
वरना क्या वज़ह थी कि
दुनिया के विज्ञापक नमूने
हर वक्त रौशनी को
परावर्तित करते थे
टीवी के सैकड़ों चैनल
जिनमे न्यूज़ चैनल भी शामिल थे
तत्पर थे उसके मनोरंजन को
शहर के होटल चौबीस घंटे
परोसते थे खाना
और उपभोक्ता सेवा केन्द्र
टेलीफोन की एक घंटी पर
दौड़ पड़ते उसकी ओर।

शोर भी यही है कि
दुनिया बनी हुई है इन दिनों
उम्मीद की राजधानी
फ़िर उसका दम
क्यों घुट रहा है

( photo courtesy- wiros )

20 comments:

  1. फिर उसका दम क्यों घुट रहा है ?

    कविता अपनी इसी एक पंक्ति में इतना कुछ कह जाती है कि आपकी कलम के लिखे पर वाह वाह निकलता है

    हर वो पंक्ति इस आखिरी पंक्ति से जुडी है .

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  2. उन्नत दुनिया ने जालो की कुछ ऐसी बुनावट कर दी है.. जिसमे वो फंस गया है.. यहाँ से निकलना बहुत मुश्किल है.. शायद मनुष्य की इसी असमर्थता को ध्यान में रखकर ईश्वर ने मृत्यु बनायीं है.. ऊपर वाले का एक और उपकार..

    पोस्ट और तस्वीर दोनों ही बहुत उम्दा है.. शानदार

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  3. सुन्दर पोस्ट और नया टेम्पलेट दोनों...

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  4. अभी ड्यूटी रूम में बैठा हूँ और मोनिटर पर गीत बज रहा है " चांदनी रात में एक बार तुझे देखा है...." सामने स्क्रीन पर एक ज़िन्दगी के घमासान से भरी कविता है, एक चित्र है सुघड़ यौवन की आँखों से रिसते खून का.... कुल मिला कर संजय भाई माहौल में सब दृश्य इस तरह घुल मिल गए हैं जैसे केनवास पर कई सारे रंग हाथों से छूट गए हों, तो ईमानदार बात ये है कि कविता ने विज्ञापनों की ऐयारी से सजी दुनिया में सुख की सूखती हुई जड़ों को खोद कर प्रस्तुत किया है. बस अभी तो ऐसा ही लग रहा है. इधर नीरा जी की पोस्ट भी कल से मन में व्यग्रता बनाये हुए हैं.

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  5. सच कहा ...यूं भी जिंदगी खबरिया चैनल सी ओर आदमी विज्ञापन सा है ....टेम्पलेट तो सुन्दर है ही ....चित्र भी बहुत कुछ कहता है

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  6. स्तब्ध हूँ ... खामोशी ने घेर लिया है ...दुःस्वप्न जिनसे आख चुराती रही आज फिर से जीवित हो उठे हैं...
    यथार्थ का भयंकर रूप दर्शाती एक बेहतरीन रचना...

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  7. एक चमत्कृत करती, भयभीत करती, सत्य की बेलाग शल्यक्रिया करती और यथार्थ को उघाड़ती इस स्तब्धकारी रचना के लिये कोई भी प्रशंसात्मक विशेषण अर्थहीन लगेगा..सो बस किशोर साहब के शब्दों को ही उधार लूंगा इस कैनवस के झुलसाने वाले रंगों को बयाँ करने के लिये..
    यह पंक्तियाँ तो मूक कर जाती हैं बरबस

    दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
    सुबह की चाय ही रहती थी
    या यूँ कहें कि
    उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
    रहा करती थी

    और

    उपस्थित होते थे
    स्कूटर पर लदे दिन में जबकि
    देर तक मंद और घातक असर से युक्त।

    अंतत: यही कहूँगा के मैं अरब सागर की लहरों का इंतजार करूँगा...आखिरी साँस तक..
    आभार

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  8. अपूर्व जी,किशोर जी,नीराजी और डॉ अनुराग जी ने सब कुछ कह दिया है.आपकी कविता नाविक के तीर की तरह गहर प्रभाव छोड़ती है.

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  9. भाई !
    आपकी यह कविता सचमुच बाकमाल है ! आज की तेजरफ़्तार ज़िन्दगी के सारे रंग नज़र आ रहे हैं और उन रंगों के पीछे से झांकती बेनूरी भी. आपके व्यंग्य चीख रहे हैं और उम्मीदें रोज़ आत्महत्या के लिए तैयार होकर सामने खड़ी हो जाती हैं ! समय का नंगा सच सम्मुख रखती शानदार कविता ! बधाई !!
    सप्रीत--आ.

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  10. "उम्मीद
    किसी रेगिस्तानी कसबे में
    अरब सागर की
    किसी लहर के इंतज़ार की तरह
    क्षीण और दूरस्थ थी
    या अखबार के परिशिष्ट की
    बिना हवाले वाली अपुष्ट ख़बर की तरह अवास्तविक
    जो अमेरिका द्वारा
    तीसरी दुनिया की भूख के
    जादुई डिब्बाबंद समाधान की शोध के
    अन्तिम चरण में होने की
    बात करती थी"

    सशक्त कविता.

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  11. संजय,

    कुछ छोटे छोटे रोचक किस्सों के बाद कविता का सरस प्रवाह मुझे आपसे बाँध के ही रखता है. कविता में सूक्ष्म तत्वों की उपस्थिति हमेशा अद्भुत हुआ करती है.

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  12. उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
    रहा करती थी...poori kavit ek behtareen koras asangat kuch bhi nahin.

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  13. शोर भी यही है कि
    दुनिया बनी हुई है इन दिनों
    उम्मीद की राजधानी
    फ़िर उसका दम
    क्यों घुट रहा है

    yeh panktiyan dil kochhoo gayin.........

    bahut hi sunder kavita.....

    baandh kar rakh diya ...aapne to.........

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  14. शोर भी यही है कि
    दुनिया बनी हुई है इन दिनों
    उम्मीद की राजधानी
    फ़िर उसका दम
    क्यों घुट रहा है

    बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी रचना.

    दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
    सुबह की चाय ही रहती थी
    या यूँ कहें कि
    उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
    रहा करती थी
    जो प्याली के साथ ही
    रीत जाया करती थी

    जीवन के यथार्थ को समीप से दर्शाती एक बेहतरीन रचना...

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  15. @ और उपभोक्ता सेवा केन्द्र
    टेलीफोन की एक घंटी पर
    दौड़ पड़ते उसकी ओर।

    शोर भी यही है कि
    दुनिया बनी हुई है इन दिनों
    उम्मीद की राजधानी
    फ़िर उसका दम
    क्यों घुट रहा है


    सोच रहा हूं कि यह नेट न होता तो ये घंटी कैसे सुन पाता? पता नहीं क्या संयोग है कि आप बार बार मुझे अपनी एक खो चुकी लम्बी बहुत लम्बी - दस साल लम्बी कविता की याद दिला देते हैं। पिछली कविता पर भी ऐसा ही लगा।

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  16. Fir uska dam kyon ghut raha hai?...bahut kuch kehti rachna.

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  17. संजय ,
    मीडिया ,समाज के नव निर्माण एवं विकास के लिए एक अचूक हथियार है .लेकिन आज वह अपनी भूमिका किस तरह निभा रहा है , यह हम सब से छिपा नहीं है .वर्तमान समय में देश ,समाज के जो हालात हैं , उनमें किसी भी संवेदनशील का दम घुट सकता है .

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  18. शोर भी यही है कि
    दुनिया बनी हुई है इन दिनों
    उम्मीद की राजधानी
    फ़िर उसका दम
    क्यों घुट रहा है!
    प्रश्न बड़ा है …..दम क्यों घुट रहा है …बहुत सारी अन्य चीजों के अलावा शायद उत्तर कहीं न कहीं दिन के स्कूटर पर लदे होने या सुबह के चाय की प्याली में सिमट आने की भंगिमाओं में ही छिपा हुआ है !

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  19. इस आपाधापी से भरी ज़िन्दगी मे इसी ज़िन्दगी की यह कविता कुछ ठहरकर सोचने के लिये विवश करती है । पत्रिकाऑ मे भेज रहे हो या नही कवितायें ?

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