Tuesday, June 15, 2010

नील लोक


जिस जगह वो रहता था उस जगह के आगे कोई बस्ती नहीं थी. गाँव के छोर से आगे जाने की अघोषित मनाही थी. कई पीढीयों से. उसे पक्का विश्वास था की दुनिया के गोल होने बातें महज बकवास थी.और दुनिया का छोर इसी बस्ती से आगे ही कहीं है जहां धरती एकदम किसी तीक्ष्ण किनारे में समाप्त होकर एक बड़े और भयावह और अंतहीन कचरापात्र में समाप्त हो जाती है. और इस गाँव के लोग अंततः इसी कचरेदान में ठेल दिए जायेंगे. तमाम से निर्वासित होकर ही उन्हें यहाँ रहने कि जगह मिली है और ये निर्वासन एक सतत प्रक्रिया है जिसमें अंतिम जगह इसी महान कूड़ा लोक में मिलनी है. ये नियति और भी कई लोगों की थी. बल्कि सभ्यता सिर्फ कुछ द्वीपों में सिमट गयी थी जिसकी भित्तियां अभेद्य थी जिनसे लोग बाहर ही जा सकते थे. भीतर आने का रास्ता नहीं था. लगातार धकेल देने का प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था. सभ्यता की चमक, जो रात को निर्जन सड़कों पर बेशुमार बिखरी रहती थी जब पांच सितारा पार्टियां लगभग अँधेरे में कोलाहल के साथ परवान चढा करतीं थीं.


उसने समंदर को कुछेक बार ही देखा था पर उसके भीतर समुद्री यात्राओं की गाढ़ी स्मृतियाँ थीं. असल में लगातार छोर की तरफ धकेले जाने के अहसास ने समुद्र के प्रति उसके मन में गहन कृतज्ञता से भर दिया था. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से खेल ही करता है और जीवन के विरुद्ध तमाम संघर्षों के लिए उत्तरदायी होने के बाद भी उसमें ज़रूरी तरलता बचाए रखता है. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है. समय और दिशाओं के जूनून से मुक्त समुद्र आदमी को उसकी ज़रूरी वैयक्तिकता लौटाता था. उसके अस्तित्व के प्रति सम्मान के भाव के साथ.


कई यात्राओं की प्रगाढ़ स्मृतियों के साथ,भले ही उनमें से कोई भी उसने नहीं की थी, पर जिनके बारे में महान वृत्तान्तकारों के बताए सूक्ष्म विवरण उसके सामने जीवंत थे, वो अपनी पहले समुद्री यात्रा के लिए निकला और कई दिन के बाद अब वो बीच समंदर में एक जहाज पर था. हवाएं खारेपन से लदी थी. दूर दूर तक सिर्फ समुद्र ही था. ऐसा लगता था कि जैसे ज़मीन सिर्फ एक कल्पना थी. ठोस कुछ भी नहीं था. जितना तरल बाहर था उतना ही भीतर. सब कुछ बहता हुआ. प्रवहमान. प्रेम को लेकर भी द्वंद्व का सख्त ढांचा टूट गया था. अब सिर्फ निर्द्वन्द्व प्रेम ही रह गया था. डेक पर उसने दो प्रेमियों को देखा जो समुद्र के आह्वान पर आये थे और कुछ ही देर में खारी हवाएं उनके बीच के सारे संकोच, आग्रह, झिझक, मर्यादा वगैरह को घोल चुकी थी. अब सब कुछ उनके बीच पारदर्शी था. बिलकुल भीतर के मन तक.


तमाम सरलता का वास यहीं समुद्र में था. ये तो विकास-क्रम में कुछ जीवों की महत्वाकांक्षा थी जो उन्हें ज़मीन पर ले आयी थी.एक लिप्सा आगे बढ़ने की , किसी दूसरे की कीमत पर. यूँ समंदर भी मौत के खेल में पीछे नहीं था बल्कि पल पल यहाँ यही कुछ होता आया है पर इस जल-मैदान के कुछ सरल कायदों का सम्मान करने मात्र से आपके निजी अवकाश को पूरा सम्मान मिलता है. यहाँ सब कुछ सीमाहीन है पर यूँ अपनी अपनी सीमाएं जो निजता का सुख भोगने के लिए ज़रूरी है.


शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.कल उसके लौटने का दिन था. वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा. उसे फिर विस्थापन के विरुद्ध लड़ना होगा. आखिर धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे।


photo courtesy- wikimedia

16 comments:

  1. badhiya shabdon se susajjit aalekh...

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  2. बहुत दिनों के बाद आपको पढना अच्छा लगा.... यह पोस्ट अच्छी लगी.... और आप कैसे हैं?

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  3. aapne bahut sunndar shabdon men iss poori duniya ka sach likha . .gareebi ameeree ki khhayi tahas nahas kar rahi hai lekin haq ke liye ladaayi jaari hi rahegi ..isi dharati par .aapko . badhayi ..

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  4. सबकी अपनी खुशबू हुआ करती है और मुझे लगता है कि आपके शब्द जब इस तरह की शक्ल में ढलते हैं तब सबसे अधिक महकते हैं. बहुत सी पुरानी रचनाओं में इसी खूबसूरती ने मुझ से पाठक को बाँध कर रखा है. एक सोच के कुछ पलों से इतनी गंभीर बातों का प्रकटीकरण इस रचना को बार बार पढ़ने लायक बना रहा है. बहुत अच्छा. बधाई.

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  5. सभ्यता के दीप....समंदर में स्मृतियाँ मछलिया सी......आदमी को ढूंढना ओर उसमे ज़रूरी तरलता बचाए रखना इन दिनों बड़ा मुश्किल है .....नमक का संतुलन भी .के कही कडवा न हो जाये ....
    कहते है समंदर भी अब क्रोधित होता है ....ओर धरती को जैसे अपनी उपस्तिथि दिखाने को...जैसे युद्ध मेरे यहाँ भी लड़ा जा सकता है कहने ..
    कहने को ढेर सारा है ....इस संक्षिप्त नोट में.....
    .ढूंढो तो हर बार सर्जरी की किताब की तरह कुछ नया मिल जाता है ....

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  6. दिल और दीमाग के तंतुओं को जाग्रत करती हुई पोस्ट नील लोक में बहा लेगी .... धरती पर विस्थापित होते ही सब गड़बड़...

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  7. दिम्माग के तंतुओ को जाग्रत करना.. यही तो हुआ है मेरे साथ.. नील लोक के समीप बैठे जोड़ो का पारदर्शी हो जाना.. मन से मन मिलते तो है पर इसी समुन्द्र के खाली पानी से भावनाए धुल भी जाती है.. इन रिश्तो के टूटने की अदालती कार्वाहियो में समुद्र की गवाही काम नहीं आती.. वरना यदि गोता लगाया जाए इसमें तो कई सारे राज मिल जायेंगे.. कितनी ही सभ्यताए कितनी ही संसकृतिया समेटेहुए नील लोक कभी क्रोधित तो कभी शांत रहकर अपनी भावनाए व्यक्त करता है.. इनको समझ पाने का हुनर आप जैसे हुनरमंद ही कर सकते है..

    कई बार आपको पढ़कर अन्दर ही अन्दर लौटने की एक प्रक्रिया होती है..

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  8. jad dharati ki seema ki tulana me taral samudra ke sath drishti ka swabhavik vistar rochak aur romanchak bhi hai. badhai. baraste mallar yaha tak pahucha.

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  9. ’नील लोक’में यथार्थ-मनन,चिंतन,कल्पना-फ़िर ज़मीनी हकीकत से रूबरू करवाने का लेखकीय धर्म निभा कर मुझे पाठक बनाने का शुक्रिया संजय जी.शैली की सहजता आपकी खूबी है..बधाई.

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  10. "शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.कल उसके लौटने का दिन था. वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा. उसे फिर विस्थापन के विरुद्ध लड़ना होगा. आखिर धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे।"
    इस विलक्षण शिल्प की बार बार उन्ही घिसे-पिटे शब्दों से तारीफ़ करना सूरज को टार्च दिखाने जैसा निरर्थक होगा..बस यही कि यह ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत मे एक दुर्लभ अनुभव जैसा है..सेहरा मे ओएसिस जैसा....
    ..कितना अच्छा हो अगर ऐसे सारे नील-लोक के जादुई बिम्ब एक और लम्बी व सम्पूर्ण कहानी मे गूँथे जायें..कितनी अद्भुत होगी वह कथा और उसे पढ़ पाने का अनुभव....

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  11. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से खेल ही करता है और जीवन के विरुद्ध तमाम संघर्षों के लिए उत्तरदायी होने के बाद भी उसमें ज़रूरी तरलता बचाए रखता है. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है.

    बढिया

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  12. kya baat hai sir ....shandar

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  13. आज दिनांक 23 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट इसी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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  14. आपका लेख जनसत्ता के आज के संस्करण में छपा है. हार्दिक शुभकामनाएँ.

    http://www.jansattaraipur.com/

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  15. वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा. उसे फिर विस्थापन के विरुद्ध लड़ना होगा. आखिर धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे।
    ... या शायद युद्ध के बिना - प्रेम से ही स्वीकृत और स्थापित हो जाये. आखिर प्रेम भी अभी तक मरा नहीं है।

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