Thursday, November 11, 2010

जागने का गीत

इससे पहले कि कल सुबह फिर शुरू हो
कानाफूसियों और दुरभिसंधियों से भरा एक और दिन
और शुरू हो कल ही सुबह
एक बेहतर जीवन की आस में
फिर से थका देने वाली दैनिक यात्रा
मैं जागना चाहता हूँ जी भर इस रात में
देख सकूँ जिससे
अपने बच्चों को सपनों की दुनियां में
डूबते उतराते,लोटते
सिहरते किसी काल्पनिक भय में
या खुश होते, खुश होने जैसी ही किसी बात से.

पढ़ सकूँ शायद जिससे
बरसों से बंद पड़ी किताब
या देख सकूँ कायदे से
माँ पिताजी का
युवावस्था का
पीला पड़ता साझा फोटो
जिसे अब पचास बरस होने को है
हालांकि इसे एकाधिक बार फ्रेम किया जा चुका है.

फ्रेम के कांच को माँ अब भी कई बार साफ़ करती है
और पिताजी डालते हैं इस पर अब भी कई बार
उड़ती सी नज़र
पर कायदे से इसे
कई सालों से देखा नहीं गया है
क्योंकि कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है
मसलन इसमें पिताजी कि टाई उनकी खुद की थी या
इसे फराहम करवाया गया था
फाइन स्टूडियो के मालिक और फोटो ग्राफर खत्री जी ने
बिलुकल सही सही मौका कौनसा था जब ये
एकमात्र साझा फोटो खिंचवाया गया था
इसमें माँ के गले का हार अब कहाँ है
क्या इसे बेचना पड़ा या
घर में रखा है ये कहीं वगैरा वगैरा.
ऐसे मौलिक सवाल जब अभी भी सवाल है
तो संभावना इस बात की भी है कि सच में इसे
बहुत गौर से और गहन उत्सुकता से
कभी देखा ही नहीं गया है
कम से कम हम लोगों ने
माँ पिताजी ने अलग से
इस पर कभी बात की हो तो
अलग बात है.

जी भर जागना चाहता हूँ इस रात
ताकि थोडा वक्त चुपके से रसोई में जाकर
देख सकूँ कि
असल में क्या है वहाँ जमा किये हुए
डिब्बे डिब्बियों में
और घर के खाने में कौनसे मसाले
अमूमन इस्तेमाल हो रहें है.
या यही देख लूं जिससे कि
पत्नी दिन के आखिर में
तमाम दुश्चिंताओं को
पल्लू से झटक कर या बाँध कर
निर्भार
या कि बोझिल
किस तरह की नींद में
सो रही है आज.

21 comments:

  1. जागने पर मजबूर कर देने वाली कविता

    सच अगर हम एक रात जाग ले बहुत कुछ पा सकते है
    ऐसे सवालो के जवाब भी जिन पर हमारा ध्यान ही नही गया
    और वे हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है

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  2. कलम ने आम जिन्दगी की तहें सुइ लेकर धीरे - धीरे खोली हैं जागी आँखों में खामोशी देर तक तैरती है ...

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  3. अजीब इत्तेफाक है अपने दो पसंदीदा लोगो को सुबह सुबह की चाय के साथ पढना ....खुशगवार है ..नीरा जी के बाद आपको ......
    ..इन भागते दिनों से जब कुछ वक़्त खींच कर जेहन पुरानी तस्वीरो को इकठ्ठा करता है .... तो अपने आस पास की कई सादामलूम सी चीज़े भी कितने खास फ्रेमो में दिखाई पड़ती है ......

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  4. टेम्पलेट बहुत खूबसूरत है.. रचना पढ़ कर आता हूँ..

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  5. कई लोगों की कहानी बयाँ कर दी आपने..

    हमेशा कहता हूँ.. जादू है..

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  6. काफी अलग संवेदना वाली कविता लगी। बहुतेरे कवियों को नींदतलब पाया है। पहली बार देखा कि कवि जागना चाहता है ! कविता में नवता है।

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  7. रंजन ने सही कहा.. कई लोगों की कहानी बयाँ कर दी आपने .. इससे जुड़ता हुआ मुझे बहुत कुछ याद आ गया ... अभी कल ही तो बार है कल आधी रात की. और "दुरभिसंधियों" आप ही के पास तो है. नहीं ?

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  8. याद दिलाती है आम आदमी के जीवन की तल्ख़ सच्चाई को आपके और मेरे, बधाई!

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  9. सुंदर कविता है, इंट्रो पाठक को बाँध लेता है. मैं उसे फिर से पढ़ते हुए आगे बढ़ता हूँ और पाता हूँ कि इसके सरल सहज प्रवाह ने इसे विशिष्ट बनाया है. फैमस स्टूडियो के बहाने आप बहुत पीछे तक जाते है और बच्चों के भविष्य की चिंता में आगे दूर तक का भी सोचते हैं और रसोई में लौट आते हैं. इसमें कविताई के प्रयास नहीं है, यह खूबी है बधाई.

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  10. किशोर दा कविता में 'फाइन स्टूडियो'है.पड़ौस का ही मामला है खैर फेमस और फाइन स्टूडियो का:)
    कविता पसंद करने का शुक्रिया.
    और डाक्साब अपने प्रिय लोगों को जिन्हें मैं पढता हूँ, यहाँ देखना आह्लादकारी है.
    रंजन भाई जोधपुर में फिर मिलते हैं, ज़रूर.वैसे ब्लॉग पर 'आदि' से अक्सर मिलना हो जाता है.
    शुक्रिया.

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  11. इतने सहज-सरल तरीके से आप कितना कुछ कह जाते हैं....सही कहा है कितनी तहें खुलती हैं....कविता, दोबारा पढवाने के लिए उत्साहित करती है

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  12. नहीं कुछ समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं टिप्पणी में ...कविता में किसी तस्वीर का ज़िक्र है या कविता खुद एक तस्वीर है जो शब्दों में ढलकर रूबरू दिख रही है...

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  13. अच्छा तो ये एक लाक्षणिकता हुई.

    सन्दर्भ भी इस कदर मन में बसे होते हैं ? मैं चार बार पढ़ने के बाद भी स्टूडियों के नाम को लिखे अनुरूप नहीं पढ़ पाया. किसी रूपक के उपयोग में अक्सर उसकी सन्निहित विशिष्टताएं इतनी मुखरित होती है कि वह अपनी समग्र पहचान लिए हड़बड़ी में भीतर चला आया करता है.

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  14. इससे पहले कि कल सुबह फिर शुरू हो
    कानाफूसियों और दुरभिसंधियों से भरा एक और दिन
    और शुरू हो कल ही सुबह
    एक बेहतर जीवन की आस में
    फिर से थका देने वाली दैनिक यात्रा
    मैं जागना चाहता हूँ जी भर इस रात में

    एकदम अलग अंदाज...बिंदास और दिल को छूता हुआ,मैं ने बहुत दिनों से ऐसी कविता नहीं पढ़ी जिसने आरम्भ से अंत तक इतना प्रभावित किया हो...एक दम ओरिजनल ..मैलिक और सहज.कविता पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे कुछ ठहर सा गया है...वक्त को एक सन्नाटे के साथ रोक देने वाली कविता.शायद आपकी सर्व श्रेष्ठ रचनाओं में एक है.
    वैसे तो पूरी कविता की टीका करुँ तो एक पुस्तक बन जाएगी.
    दीपावली की शुभकामनाएं.

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  15. आम प्रतीकों से कुछ खास कहती कहती कविता।

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  16. कविता के भाव दिल को छूने वाले हैं ..उम्दा प्रस्तुति
    चलते -चलते पर आपका स्वागत है

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  17. nice blog...intelligent posts buddy
    just heart touching
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  18. कविता भी जागने से ठीक पहले की एकदम मुलायम नींद सी महसूस होती है..मदिर और निष्कलुष..!!
    दिन तो दुनिया की तरह होता है..कानाफूसियों और दुरभिसंधियों से भरा..दिन के गुनाह ही उसे रात की अंधेरी नदी मे कूद कर दम तोड़ने पर विवश करते हैं..मगर सुबह से पहले तक वे सारे काले दाग धुल जाते हैं..और भोर से पूर्व का प्रहर एक नवजात पुष्प सा कोमल होता है..निष्पाप..पवित्र..दैवीय..किसी मंदिर की घंटी या मस्जिद की अजान सा..उस पल मे जाग लेने की..जीवन को जी लेने की इच्छा कहीं मेले मे खुद को पा लेने की कोशिश सी होती है..फिर स्वप्न और जाग्रति के बीच इतने बेतरतीब खयाल..जिनमे स्वप्न भी हैं..स्मृतियाँ भी..चिंताएं भी है..तो आश्वस्ति भी..और यह अर्धस्वप्न का पल दिन के दुष्चक्रों से पलायन का नही लगता..बल्कि रात का यही प्रहर अतीत की उन बिसरी स्मृतियों और वर्तमान की उपेक्षणीय घटनाओं के तवज्जो देता है..जो दुरभिसंधियों से भरे दिन की प्राथमिकता सूची मे कहीं भी नही होती..फोटोफ्रेम की पचास बरस पुरानी माँ के गले का हार दिन मे देखने मे शायद किसी नास्टाल्जिया को नही जगायेगा..मगर रात को वही किसी स्वप्न मे डूबती-उतराती सी निस्वार्थ चिंता मे नजर आयेगा..यही पल पिता की टाई की हकीकत की उलझनों मे डूबा रहेगा..यही पल फिर पत्नी की सारी दुष्चिंताएं उतार के सोती हुई थकी आँखों मे झाँकेगा..दरअस्ल इसी पल मे आप अपनी जिंदगी जी रहे होते हैं..क्योंकि इस पल मे आपका जीवन हस्तक्षेप नही कर पाता...!इस प्रहर मे जब आप खुद सो रहे होते हैं..तब आप अपने स्वजनों की आँखों के मधुरतम स्वप्नों मे जाग रहे होते हैं..

    कविता की तारीफ़ क्या करूँ..मुझे लगता है कि ऐसी कविताएं लिखी नही जाती हैं..बस खुद हो जाती होंगी..रात के किसी ऐसे ही प्रहर मे..निःसंदेह आपकी सबसे उम्दा कविताओं मे एक ..
    आपकी लम्बी अनुपस्थिति खलती तो है..मगर अगले जादू को गहने की उत्सुकता भी बढ़ाती है :-)

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  19. कबाड़खाना पर आपके बस का सफर पढ़ कर यहां आया. बना रहे सिलसिला आपके इस सफर का.

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