Thursday, October 20, 2011

एक गलत नंबर का चश्मा भी नहीं था सही विकल्प



यूं तो सिर्फ वो ही नहीं था

जो अंक गणितीय पूर्णता के साथ

यहाँ आया था

सबसे हरे पत्ते में भी ढूँढा जा सकता था

एक सूक्ष्मदर्शीय पीला चकत्ता

उसैन बोल्ट के फेंफडों में भी पाया जा सकता था

कोई विकार

आइंस्टीन के जीवन का भी कोई वाकया

साबित कर सकता था उसे उस क्षण में

मंद बुद्धि.

पर उसका मामला यूं कुछ अलग भी था

सुबह आँखें खोलते ही दुनिया जिस आक्रामकता के साथ

घुसी चली जाती थी

उसके दृष्टि पटल पर एक विस्फोट के साथ

आवाजों का एक कर्कश हुजूम

त्वरा के साथ गिरता कान के परदे पर

छील जाती थी उसकी त्वचा का आवरण

वो अनिमंत्रित पर अवश्यम्भावी मुलाकात

खिडकी से आती धूप में

नज़र आते थे तैरते

उसकी मृत कोशाओं के छिलके

ये उस रोज़ की दुनिया से

उसका पहला घर्षण होता था.

वो शायद इस योग्य दुनिया

का तगड़ा विकल्प नहीं था.

बेहतरीन से बेहतरीन दर्जी की जींस भी

उसकी देह का आकार नहीं ले पाती थी

उसे उसके स्वाद की चाय और

उसकी पसंद की कलम आज तक

नहीं मिली थी

जैसे उसकी स्वाद-कलिकाओं को

विलक्षण जायकों में से भी सबसे सुलभ का

हकदार भी न माना गया हो.

और न ही इस लायक भी कि वो

लिख सके अपनी जिंदगी के साथ

कोई सम्मानजनक इकरारनामा.

उसकी सोच की हद यहीं तक थी कि

एक गलत नंबर का चश्मा भी

दुनियां को उसके त्रिआयामी यथा रूप से

धकेल नहीं सकता था

मज़बूत से मज़बूत अवरोध भी

रोक नहीं सकता था

कानों में

उस काल भैरवी हुंकार की धमक

और न कोई मलहम दे सकता था

रोशनी के धुंए में उड़ती

निर्जीव कोशिकाओं को चिरंजीविता.

10 comments:

  1. विचारों की नयी सतहों पर ले जाती पंक्तियाँ।

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  2. शायद आइन्स्टीन को मंद बुद्धि कहकर स्कूल से निकला भी गया था ....आदमी के मन को अपना रूप बदलने की इज़ाज़त देकर अब भी प्रय्श्त्चित में है ईश्वर ..

    कविता अपने साथ कई आयाम लेकर चलती है .कही कही विद्रोही तेवर दिखाती है ....

    ..पर एक बात है संजय जी ....विकल्पों की भीड़ में भी एक सही विकल्प की तलाश इस दुनिया को रहेगी शायद कई सदी तक

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  3. उसे उसके स्वाद की चाय और
    उसकी पसंद की कलम आज तक
    नहीं मिली थी
    like that!!!

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  4. सुबह आँखें खोलते ही दुनिया जिस आक्रामकता के साथ घुसी चली जाती थी....

    उस आक्रमण के बाद घायल आत्मा के दर्द को किस मर्म से शब्दों में उतारा है वाह! ....

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  5. बहुत पॉवरफुल है आप की खुर्दबीन.बार बार पढ़ने के लिए खींचती है. संजय भाई , आप की इस कविता पर कुछ लिखना है मुझे कभी .......शायद काफी बाद में . लेकिन इस अकेले पर नहीं. मुझे रिमाईंड कराईएगा प्लीज़.

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  6. @प्रवीण जी,
    शुक्रिया.

    @डाक्साब,
    मैं आपको सिर्फ यहीं क्यों देखूं? मतलब आपके ब्लॉग पर आपकी आमद के ताज़ा चरण चिन्ह अब चाहिए.
    शुक्रिया.

    @वर्षा जी,
    सही बात कहीं न?

    @नीरा जी,
    आपकी टिप्पणी बार बार पढता रहूँगा.और हर बार पसंद करता रहूँगा.

    @अजेय जी,
    रिमाइंड करवाने वाली बात हमेशा याद रखूंगा.आपका यहाँ आना ही इसे सार्थक कर दे रहा है.शुक्रिया.

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  7. आपको सब को शुभ दीपोत्सव.

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  8. Nobody/ Nothing is Perfect. However imperfection is the closest thing which can come to the concept of perfection. So much so that :

    बेहतरीन से बेहतरीन दर्जी की जींस भी उसकी देह का आकार नहीं ले पाती थी.

    Moreover, the irony is that there is Always a contradiction while defining the abonormality of an individual defining it's intensity and consequently leading to it's cure...:
    एक गलत नंबर का चश्मा भी दुनियां को उसके त्रिआयामी यथा रूप से धकेल नहीं सकता था.

    PS: Awesome as always !!

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  9. सुन्दर! यह असंगतता है या अतिपेक्षा? क्या यह दोनों शब्द होते भी हैं?

    संजय, आपको, परिजनों तथा मित्रों सहित दीपावली पर मंगलकामनायें! ईश्वर की कृपा आप पर बनी रहे।

    ********************
    साल की सबसे अंधेरी रात में*
    दीप इक जलता हुआ बस हाथ में
    लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी

    बन्द कर खाते बुरी बातों के हम
    भूल कर के घाव उन घातों के हम
    समझें सभी तकरार को बीती हुई

    कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
    अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
    प्रेम की गढ लें इमारत इक नई
    ********************

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