Wednesday, November 16, 2011

बातूनी






तुमसे बात करते समय फोन पर मैं ढूँढता हूँ याद में बातपोशों के उस गाँव को जिसका रास्ता भी एक महान किस्सागो की बात में ही था जिसकी कस्बे में अलाव के धुंए के साथ चढती आकाशगामी लंबी सर्पिल बात की निरंतरता को दूर देस से आती रात दो बजे की रेल की सीटी तोड़ती थी,जो इतनी ठोस और धारदार होती थी कि अलाव के गिर्द ठिठुरन से जमा क्षीण धूम्र-पट किरचों में बिखर जाता.और उस महान किस्सागो के होठ हठात कह उठते- “ओह, कराची की गाड़ी भी आ गयी.चलो रात बहुत हो गयी.तो बातपोशों के गाँव में से जिसकी इस वक्त भौगोलिक स्थिति मेरी स्मृतियों के किसी खोखल में है, मैं तलाशता हूँ बात पेश करने का हुनर जिससे तुम्हारे सामने दे सकूँ सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति.उस वक्त मैं अपने मौलिक संकोच को कहीं छोड़ता अपनी बात अपने स्वर यंत्र से नहीं कई योजन दूर की स्मृतियों से निकालता हूँ तुम्हारे किसी अवश्यम्भावी वाह की प्रतीक्षा में.कि तुम सुनती रहो और बात मेरी टूटे देर रात की किसी गाड़ी के सीटी देने से.

2 comments:

  1. रात की गहराई में ट्रेन की सीटी का आवाज अनुनाद करती है

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