चलती रेलगाड़ी का जनरल कोच.
अभी अभी गए स्टेशन के प्लेटफोर्म पर बिकती सब्ज़ियों और तली हुई पूड़ियों की गंध इतनी भारी और ठोस थी कि रेल के डिब्बे में वो अभी तक टंगी हुई थी.अगर किसी को वहाँ से उठकर टॉयलेट भी जाना हो तो गंध के उस दलदल में से कुछ जद्दोजहद करके ही निकला जा सकता था. उसी एक में अहर्निश तले जाने से गाढे और झागदार हो चुके तेल में, जिसकी गंध ही इतनी वज़नी थी, तली गयी पूड़ियों और फिर तेल की ही एक इंच परतवाली तीखी सब्ज़ी से जन्मों की भूख मिटती थी. डब्बे में सब भकोस रहे थे.गाड़ी ने प्लेटफोर्म अब काफी पीछे छोड़ दिया था. मेरा गंतव्य आने वाला था. बस अगला ही स्टेशन. एक गाँव. मेरी तरह जो अपना सामान संभाल रहे थे वे ही उतरेंगे इस गाँव. बाकी लोग ज़र्दा चूना घिस रहे थे.घिसने की ये प्रक्रिया कई सारे सूक्ष्म चरण लिए थी.इसे तय भी ऐसे ही किया जा रहा था जैसे परम तत्व ‘फांकना’ तक पहुँचने के लिए पहले के दैवीय विधिविधान पूरे किये जा रहे थे.
गाड़ी रुकने से पहले पटरियों को खरोंचती चली गयी.जो खड़े थे वे अपना जडत्व संतुलित करने में लग गए.मैं गाड़ी के पूरी थमने के बाद ही उठा और दो चार लोगों की तरह नीचे उतर गया.रात बहुत तो नहीं पसरी थी पर गाँव में अँधेरा भरपूर हो गया था.मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ट्रेन जा चुकी थी. सर्द रात में सामने सिर्फ एकाध जगह रौशनी दिख रही थी.ये गाँव का चौक था. मैं उधर ही चलता गया. गाँव का चौक खम्भे पर टंगे एक बल्ब से कातर भाव में उजास मांग रहा था.पर जीर्ण रोशनी नीचे पहुँचने से पहले ही बिखर रही थी. बल्ब भी बेचारा पूरा ज़ोर लगा रहा था.उसके चेहरे की तमतमाहट इस बात की गवाही दे रही थी.गाँव जैसे इस आलोक को करबद्ध होकर अपेक्षा भरी नज़र से निहार रहा था.चौक पर ही ‘खीमराज भोजनालय’ था जो बंद हो चुका था. भोजनालय जब इस वक्त नहीं खोलना था तो फिर खोला ही क्यों.पर किससे कहता? ढाबे का दरवाज़ा था ही नहीं बस चौखट पर कोलतार के खाली ड्रम ही अवरोध का काम कर रहे थे.हां,पान का एक केबिन ज़रूर लालटेन की हताश रौशनी में खुला था. पानवाला बड़ी फुर्ती से पान पर कत्था चूना लगाए जा रहा था जैसे उसे कोई बड़ा आर्डर मिल चुका था.केबिन में पस्त बैटरी से कैसेट प्लयेर ‘इक तरफ है घरवाली इक तरफ बाहर वाली’ चला रहा था.कैसेट इतनी धीमी रफ़्तार में चल रही थी कि एक यही लाइन पूरी होने में ज़माना बीत रहा था. इस गाँव में कोई विकास पुरुष था ही नहीं और कोई था भी तो उसका पौरुष इतना दूर जा चुका था कि उसे चिल्लाकर भी बुलाया नहीं जा सकता था. पर अपने को क्या? अपने को तो इसी गाँव के रहने वाले एक दोस्त के घर जाना था जहां इस वक्त उसकी ‘रिंग सेरेमनी’ होने वाली थी.
(फोटो सौजन्य- फ्लिकर)
क्या लिखूं?
ReplyDeleteशब्दों का असर दूर तक जाता है, मद्धम और अविराम.
दोस्त के घर तो जाना है, ट्रेनों में चिपकी गंध रोचकता से वर्णित की आपने।
ReplyDeleteकुछ सफर यूं भी हो कि खत्म न हो. वाह..
ReplyDeleteअपने को क्या ?
ReplyDeleteपूरी और सब्जी से मिटती जन्मों की भूख !!
ReplyDeleteयह कौनसा रेगिस्तानी गाँव है !
राजेन्द्र यादव की एक किताब का शीर्षक याद आ गया "अब वे वहां नहीं रहते "
ReplyDeleteरिंग सेरेमनी हो जाये तो फिर लिखियेगा...:)
ReplyDeleteआप सबका शुक्रिया.यहाँ आने का और वक्त बिताने का.
ReplyDeleteअसल में ये दो यात्राओं की स्मृतियाँ थीं. एकदम पृथक.भिन्न भिन्न काल और स्थानों से जुडी.
आलस में एक करके काम चलाया है:)
डिम्पल जी,ये बढ़िया आइडिया दिया है.एक पोस्ट और बन जायेगी:)
शुक्रिया.
अगली पोस्ट का इंतजार कर रहा हूं...
ReplyDeletesundar virtant....aap mere blog par aaye aapka abhar....
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