Wednesday, November 23, 2011

एक यात्रा की उड़ती धूल


चलती रेलगाड़ी का जनरल कोच.

अभी अभी गए स्टेशन के प्लेटफोर्म पर बिकती सब्ज़ियों और तली हुई पूड़ियों की गंध इतनी भारी और ठोस थी कि रेल के डिब्बे में वो अभी तक टंगी हुई थी.अगर किसी को वहाँ से उठकर टॉयलेट भी जाना हो तो गंध के उस दलदल में से कुछ जद्दोजहद करके ही निकला जा सकता था. उसी एक में अहर्निश तले जाने से गाढे और झागदार हो चुके तेल में, जिसकी गंध ही इतनी वज़नी थी, तली गयी पूड़ियों और फिर तेल की ही एक इंच परतवाली तीखी सब्ज़ी से जन्मों की भूख मिटती थी. डब्बे में सब भकोस रहे थे.गाड़ी ने प्लेटफोर्म अब काफी पीछे छोड़ दिया था. मेरा गंतव्य आने वाला था. बस अगला ही स्टेशन. एक गाँव. मेरी तरह जो अपना सामान संभाल रहे थे वे ही उतरेंगे इस गाँव. बाकी लोग ज़र्दा चूना घिस रहे थे.घिसने की ये प्रक्रिया कई सारे सूक्ष्म चरण लिए थी.इसे तय भी ऐसे ही किया जा रहा था जैसे परम तत्व फांकना तक पहुँचने के लिए पहले के दैवीय विधिविधान पूरे किये जा रहे थे.

गाड़ी रुकने से पहले पटरियों को खरोंचती चली गयी.जो खड़े थे वे अपना जडत्व संतुलित करने में लग गए.मैं गाड़ी के पूरी थमने के बाद ही उठा और दो चार लोगों की तरह नीचे उतर गया.रात बहुत तो नहीं पसरी थी पर गाँव में अँधेरा भरपूर हो गया था.मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ट्रेन जा चुकी थी. सर्द रात में सामने सिर्फ एकाध जगह रौशनी दिख रही थी.ये गाँव का चौक था. मैं उधर ही चलता गया. गाँव का चौक खम्भे पर टंगे एक बल्ब से कातर भाव में उजास मांग रहा था.पर जीर्ण रोशनी नीचे पहुँचने से पहले ही बिखर रही थी. बल्ब भी बेचारा पूरा ज़ोर लगा रहा था.उसके चेहरे की तमतमाहट इस बात की गवाही दे रही थी.गाँव जैसे इस आलोक को करबद्ध होकर अपेक्षा भरी नज़र से निहार रहा था.चौक पर ही खीमराज भोजनालय था जो बंद हो चुका था. भोजनालय जब इस वक्त नहीं खोलना था तो फिर खोला ही क्यों.पर किससे कहता? ढाबे का दरवाज़ा था ही नहीं बस चौखट पर कोलतार के खाली ड्रम ही अवरोध का काम कर रहे थे.हां,पान का एक केबिन ज़रूर लालटेन की हताश रौशनी में खुला था. पानवाला बड़ी फुर्ती से पान पर कत्था चूना लगाए जा रहा था जैसे उसे कोई बड़ा आर्डर मिल चुका था.केबिन में पस्त बैटरी से कैसेट प्लयेर इक तरफ है घरवाली इक तरफ बाहर वाली चला रहा था.कैसेट इतनी धीमी रफ़्तार में चल रही थी कि एक यही लाइन पूरी होने में ज़माना बीत रहा था. इस गाँव में कोई विकास पुरुष था ही नहीं और कोई था भी तो उसका पौरुष इतना दूर जा चुका था कि उसे चिल्लाकर भी बुलाया नहीं जा सकता था. पर अपने को क्या? अपने को तो इसी गाँव के रहने वाले एक दोस्त के घर जाना था जहां इस वक्त उसकी रिंग सेरेमनी होने वाली थी.


(फोटो सौजन्य- फ्लिकर)

Wednesday, November 16, 2011

बातूनी






तुमसे बात करते समय फोन पर मैं ढूँढता हूँ याद में बातपोशों के उस गाँव को जिसका रास्ता भी एक महान किस्सागो की बात में ही था जिसकी कस्बे में अलाव के धुंए के साथ चढती आकाशगामी लंबी सर्पिल बात की निरंतरता को दूर देस से आती रात दो बजे की रेल की सीटी तोड़ती थी,जो इतनी ठोस और धारदार होती थी कि अलाव के गिर्द ठिठुरन से जमा क्षीण धूम्र-पट किरचों में बिखर जाता.और उस महान किस्सागो के होठ हठात कह उठते- “ओह, कराची की गाड़ी भी आ गयी.चलो रात बहुत हो गयी.तो बातपोशों के गाँव में से जिसकी इस वक्त भौगोलिक स्थिति मेरी स्मृतियों के किसी खोखल में है, मैं तलाशता हूँ बात पेश करने का हुनर जिससे तुम्हारे सामने दे सकूँ सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति.उस वक्त मैं अपने मौलिक संकोच को कहीं छोड़ता अपनी बात अपने स्वर यंत्र से नहीं कई योजन दूर की स्मृतियों से निकालता हूँ तुम्हारे किसी अवश्यम्भावी वाह की प्रतीक्षा में.कि तुम सुनती रहो और बात मेरी टूटे देर रात की किसी गाड़ी के सीटी देने से.