Saturday, May 25, 2013

नील लोक (स्मृतियों में समुद्र)

(अपनी एक और पुरानी पोस्ट को काफी भराव देकर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.



जिस जगह वो रहता आया था वो जगह समंदर से बहुत दूर थी.न घर की छत से न ऊंचे पेड़ से और  न पानी की टंकी से, कहीं से भी समंदर दिखाई नहीं देता था.दक्षिण से बहती हवाओं से भी सागर की नमकीन गंध वहां तक पहुँच नहीं पाती थी.समुद्री घास या शैवालों को भी उसके यहाँ से सूंघना मुमकिन न था.पानी के तालाब जो राजाओं के बनवाये हुए थे उनके पीछे सागर या समंद द्वितीय पद के तौर पर लगा होता था,पर वो जानता था वो महज एक शब्द भर हैं,अतिशयोक्ति की तरह. सागर या समुद्र  महान जल राशि है,उसकी अपनी एक अलग दुनिया है.समुद्र उसके लिए सुदूर जलराशि की तरह था,उसके अपने परिचित भूगोल से बाहर बहुत बाहर.पर कुछ ऐसा था कि समुद्र फिर भी उसकी चेतना में टिमटिमाता रहता था,किसी तारे की तरह.सुदूर पर हमेशा उसके आसपास,जिसे ऊपर देखने भर से पा लिया जा सकता था.

यद्यपि उसने समुद्र को कुछेक बार ही देखा था पर उसके भीतर समुद्री यात्राओं की गाढ़ी स्मृतियाँ थीं.उसने विश्व की कुछ महान यात्राओं के बारे में पढ़ रखा था.और उनमें समुद्र का एक बड़ा, महत्वपूर्ण भाग था.बल्कि वो उन यात्रा विवरणों को अपनी भारी भरकम उपस्थिति से आक्रांत सा करता था.वो उन वृत्तांतों में हर जगह दिखाई देता था.जल जंतुओं की विचित्र दुनिया,उसकी छाती पर चलने वाले जहाज,उसके नीले जल पर नर्तन करतीं सूर्य रश्मियाँ.एक बेहतरीन दृश्य.पर इससे भी ज़्यादा वो एक ऐसा व्यक्तित्व था जिससे वो प्रभावित सा था.उसकी समुद्र को लेकर समझ में किसी गोताखोर या जहाज के कप्तान जैसी समझ कतई नहीं थी और वो समुद्र को उतना समझना भी नहीं चाहता था,एक दुनियां के तौर पर समुद्र अबूझ था,पर तय था कि यात्राओं-किस्सों के पात्र के तौर पर वो बेहद प्रभावित करने वाला था.और इस रूप में उसकी विशेषताओं के कारण ही शायद समुद्र ने उसके मन को गहन कृतज्ञता से भर दिया था. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से किलोल ही करता है, जो कि उसका स्वभाव है,और हम बस किसी तात्कालिक परिणाम से ही  उसके क्रूर या दयालु होने का अनुमान लगातें हैं.मानव के बरक्स उसे खड़ा करके हम उसमें मानवीय गुणों की उपस्थिति की इच्छा नहीं कर सकते.इस महान जल राशि में पलने वाले और मरने वाले तमाम जीव जंतुओं के जीवित बने रहने के खिलाफ पल पल खड़े होने,महान समुद्री यात्राओं पर निकले जहाज़ों को डुबोने,भीतर असंख्य मौत के गड्ढे जमा करने और स्वभावतः कभी तोला कभी माशा होने के बावजूद वो अपने चरित्र में ज़रूरी तरलता बचाए रखता है.उसका पनीला स्वरुप हर किसी में से गुज़र जाता है हर कोई उसमें से गुज़र जाता है.वो जीवन की विविधताओं को सहेजता था.बिना उसकी रूचि या आदतों में हस्तक्षेप किये. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है. समय और दिशाओं के जूनून से मुक्त समुद्र आदमी को उसकी ज़रूरी वैयक्तिकता लौटाता था.इसमें उतरने पर साथ में न वक्त चलता था न दिशाएं.यहाँ अपना समय था या कहें यहाँ समय था ही नहीं.और दिशाएं,वो भी उसकी सतह पर ही थीं,उसकी सतह पर आकर आसमान में टंगे तारों से उनकी उपस्थिति का झीना बोध होता था पर जल में गोता लगाने पर सारी दिशाएं भी उसमें घुल कर एकमेक हो जातीं थी.

कई यात्राओं की प्रगाढ़ स्मृतियों के साथ, भले ही उनमें से कोई भी उसने नहीं की थी, पर जिनके बारे में महान वृत्तान्तकारों के बताए सूक्ष्म विवरण उसके सामने जीवंत थे, वो अपनी पहले समुद्री यात्रा के लिए निकला और कई दिन के बाद अब वो बीच समंदर में एक जहाज़ पर था. हवाएं खारेपन से लदी थी. दूर दूर तक सिर्फ समुद्र ही था. ऐसा लगता था कि जैसे ज़मीन सिर्फ एक कल्पना थी जो दूर कहीं थी. ठोस कुछ भी नहीं था. जितना तरल बाहर था उतना ही भीतर.समंदर का लवणीय जल कुछ भी ठोस रहने नहीं देता था,सब कुछ सख्त, जिद्दी गल जाता था. प्रेम को लेकर भी द्वंद्व का सख्त ढांचा टूट गया था. अब सिर्फ निर्द्वन्द्व प्रेम ही रह गया था. डेक पर उसने दो प्रेमियों को देखा जो समुद्र के आह्वान पर आये थे और कुछ ही देर में खारी हवाएं उनके बीच के सारे संकोच, आग्रह, झिझक, मर्यादा वगैरह को घोल चुकी थी. अब उनके बीच का सब कुछ पारदर्शी था. बिलकुल भीतर के मन तक.


तमाम सरलता का वास यहीं समुद्र में था. ये तो विकास-क्रम में कुछ जीवों की महत्वाकांक्षा थी जो उन्हें ज़मीन पर ले आयी थी.एक लिप्सा आगे बढ़ने की,किसी दूसरे की कीमत पर. यूँ समंदर भी मौत के खेल में पीछे नहीं था बल्कि पल पल यहाँ यही कुछ होता आया है पर इस जल-मैदान के कुछ सरल कायदों का सम्मान करने मात्र से आपके निजी अवकाश को पूरा सम्मान मिलता है. यहाँ सब कुछ सीमाहीन है पर यूँ अपनी अपनी सीमाएं जो निजता का सुख भोगने के लिए ज़रूरी है.

शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.धीरे धीरे आसमान में सागर के प्रतिबिम्ब या सागर में आसमान के बिम्ब की चमक अब फीकी हो रही थी,उसमें अक्स मिटकर गहरा रंग भरते जा रहे थे.कुछ ही देर में आसमान तारों से भर गया.कोई तारा ज़्यादा चमक रहा था,कोई कम.कहीं कोई तारा टूट कर लम्बी प्रकाश रेखा में विलीन हो रहा था.उसे लगा आसमान के मंच पर कुछ अनूठे करतब सिर्फ बीच समंदर ही देखे जा सकतें हैं.ये अद्भुत था पर उसे लौटना था और कल उसके लौटने का दिन था.समुद्र से लगातार दूर जाकर अंततः वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा.उसके कपड़ों से लिपटी खारी हवा की सीलन कई दिनों तक समुद्र के अंश के तौर पर उसके साथ रहेगी और उसकी स्मृतियों में खुद समंदर हमेशा प्रतिबिम्ब के तौर पर झलकता रहेगा.

2 comments:

  1. सागर की स्मृतियाँ नील स्वप्नों को उभार देती हैं, वही उभार आज शब्दों से मिला।

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  2. सागर के बीच विचरते हुए अनुभव की यह गहराई अविस्‍मरणीय है। अत्‍यन्‍त मनमोहक वर्णन। इस हेतु बधाई।

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