Sunday, June 1, 2014

किताब का जादू

वो एक लम्बे अरसे से इस किताब को पढ़ रहा था।किताब जैसे उसके व्यक्तित्व का हिस्सा हो गयी थी। किताब उस आदमी में कुछ भी अतिरिक्त जोड़ती न थी। न कम ही करती थी। पर इस गणित से वो बेपरवाह था। किताब उसके पास रहती थी। ऐसा नहीं था कि किताब उससे किसी अदृश्य अस्थि-जोड़ से बंधी थी और वो उससे उदासीन हो गया था,बल्कि कई बार तो वो उसमें खोया रहता था। शायद उसने कई बार इसे पढ़ लिया था।पर तब भी कई बार वो एक ही शब्द या पंक्ति में दिन भर अटका रहता। इसमें किसी तरह की झुंझलाहट उसे नहीं होती थी।बल्कि ये एक किस्म का सम्मोहन था। वो उस एक शब्द या लाइन के बारे में सोचता रहता। फिर सोचने से हट कर उसके ख़ुमार में आ जाता।

वो किताब के जादू से बिंधा था।

किताब पढ़ते पढ़ते ऐसा अक्सर होता कि वो बुकमार्क डालकर उसे बंद कर देता। इस तरह वो हमारी दुनिया में लौट आता। फिर कुछ देर बाद वो फिर किताब के ज़रिये एक और ही दुनिया में चला जाता।किताब उसके लिए वो दरवाज़ा बन गयी थी जिसके ज़रिये वो दो मुख़्तलिफ़ दुनियाओं में आ जा सकता था।

किताब लिखने वाले की दुनिया से कुछ अलग होती थी वो दुनिया जिसमें वो किताब के ज़रिये प्रवेश करता था।असल में वो उसकी अपनी दुनिया होती थी भले ही जिसका आकार,किनारे,लम्बाई चौड़ाई वगैरह किताब में पहले से ही तय की हुई थी। पर उसके रंग, उसकी चमक और इस तरह की कई चीज़ें उसकी अपनी थीं जिनमें परिवर्तन का अधिकार उसके पास था।इस अलग और बहुत हद तक उसकी अपनी दुनिया के समंदर की नीलाभा कुछ अलग चमक लिए होती थी। उसकी नदियों के घाट कुछ अलग रंग के पत्थरों के बने होते थे और उनसे नदी में उतरती सीढ़ियां मोहक घुमाव लिए होतीं थीं। ऐसा भी होता था कि  वो अपनी इस दुनिया के रंग बदलता रहता था,उसके उभार बनाता बिगाड़ता रहता था और इस तरह किताब के दरवाज़े से जब भी वो अंदर की दुनिया में आता वो पिछली कई दुनियाओं से अलग होती थीं।

किताब के पास नाम थे,वो उन नामों को चेहरे देता। कई बार उन चेहरे के पीछे के लोग उसके बिलकुल पास के होते। महल्ले के। प्रेम करने वाली लड़की उसके कॉलेज की ही होती जिसे वो बरसों पहले,कॉलेज के आखरी दिन आखरी बार मिला था।ये बहुत मज़ेदार भी था। किताब  में आये जर्मन नाम वाली लड़की उसके महल्ले में ही रहती थी और बार का मालिक उसके पिछवाड़े में रहता सनकी अधेड़ होता था। उसमें आया क़िला उसकी नज़र के ठीक सामने दीखता मध्यकालीन जर्जर दुर्ग था पर किताब का चर्च उसकी देखी सत्तर के दशक की किसी फिल्म के गिरजे से से मिलता जुलता था। असल में उसने चर्च कभी देखा नहीं था। मतलब इस दुनिया में। फिल्मों में ज़रूर पुर्तगालियों के बनाए कुछ चर्च उसने देखे थे जिनमें से एक को उसने अपनी और किताब की दुनिया में जगह दे दी थी।

किताब और उसकी मिली जुली दुनिया जीवन से इतनी भरी थी कि एक बार बेहद ऊंचे पहाड़ी क़स्बे पर जब उसे सांस लेने में दिक्कत हुई थी और वो हांफने लगा था तो उसने किताब के पन्नों से ढेर सारी ऑक्सीजन खींच ली थी।  

10 comments:

  1. वि कु शु याद आ गए। वेलकम।

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  2. थैंक्स सागर भाई.विनोद कुमार शुक्ल की याद इन पंक्तियों के ज़रिये आई,मैं इसे कॉम्प्लीमेंट मानता हूँ.बड़ा वाला.
    शुक्रिया.

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  3. :) एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है।

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    1. सही है अनुराग जी।

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  4. पुस्‍तक जीवन की सांस तो होती ही है। बड़े दिनों के बाद पधारे हैं, इसलिए पूछना अपेक्षित है कि स्‍वस्‍थ तो हैं?

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    1. शुक्रिया विकेश जी। आपकी इस ब्लॉग के प्रति निरंतरता का आभारी हूँ। इस प्रेम का शुक्रिया। आज ब्लॉग की याद आई। घर वापसी जैसा लगा।बाकी सब कुशल मंगल है।

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  5. आपकी लेखनी भी वैसा ही जादू बुनती है। अच्‍छा लगा इतने दिनों बाद आपको पढ़ना।

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  6. बिल्कुल हैरी पॅाटर के जैसे

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