Tuesday, September 2, 2014

गोलगप्पे

उसे मुंह में सुबह से ही कुछ फीका फीका सा महसूस हो रहा था.ज़बान पर एक बेस्वादी सी परत चढ़ी थी.वो जीभ को मुंह में घुमाता,गालों की अंदरूनी दीवारों पर,मसूड़ों पर, नीचे, सब जगह. पर कहीं कोई ज़ायके का अणु नहीं था.यहाँ तक कि तालू पर से भी मिठास ग़ायब थी.उसकी इच्छा हुई कि सिगरेट पी जाय.वो पीता नहीं था.बस कभी कभार ही उसने दोस्तों के साथ  छल्ले उड़ाए थे और हर बार उसे सिगरेट पसंद नहीं आई थी.देर तक सांस के साथ तमाखू की गंध लदी रहती.आज उसके मुंह के इस अजीब से फीकेपन ने ही उसे अन्यथा नापसंद सिगरेट के जैसे विकल्प की ओर सोचने को मजबूर कर दिया था.वो सिगरेट के धुंए से इस फीकेपन को जला देना चाहता था.सिगरेट के ज़रिये ही उसे अपनी स्वादहीनता से लड़ना था, बस इसी वजह से कुछ हिचक सी बाकी थी.ये झिझक कुछ देर और बनी रही और इसका परिणाम ये हुआ कि निर्णय पर पहुँचने से पहले ही उसने इस विकल्प को खारिज कर दिया.उसे लगा इससे शायद बात नहीं बनेगी.वो एक अजीब सा मिक्स बन जाएगा.फीकास में जैसा जला हुआ कोयला रगड़ दिया हो.वो बहुत उत्साहित नहीं हो पाया था और उसने ये विचार छोड़ दिया.

वो चलता जा रहा था.शहर में बिना नक्शा देखे वो कहीं से भी घर पहुँच सकता था. और घर से कहीं भी जा सकता था.शहर उसका देखाभाला था.आज,पर वो शहर में जहां चल रहा था वो उसे जानी पहचानी सड़क नहीं लग रही थी.उसे इसका कारण समझ में नहीं आया.ऐसा उसकी साथ देती याददाश्त में कभी हुआ नहीं था.पर फिलहाल उसका ध्यान इसका विश्लेषण करने पर बिलकुल नहीं था.इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि शहर में वो किस जगह या गली मोहल्ले में चल रहा है.वो कहीं से भी, कभी भी घर पहुँच सकता था.उसे फिलहाल मुंह के बिगड़े जायके से परेशानी थी.ज़बान को जैसे लकवा मार गया था.उसके सारे ऊद्दीपन ख़त्म हो गए थे.

किनारे पर थोड़ी दूर उसे गोलगप्पे का ठेला दिखाई दिया.गोलगप्पों का वो कोई फैन नहीं था.बल्कि कई बार वो इन्हें ओवररेटेड कमोडिटी कहता था.क्या था इनमें?खट्टा-नमकीन द्रव और उसे थामती एक कमज़ोर सी भित्ति.इस तीखे से पानी को स्वादिष्ट तो कैसे कहा जा सकता है?और इसके पतले खोल को भी चबा जाने के पीछे का कारण स्वाद से जुड़ा नहीं हो सकता.बल्कि इसे खाया जा सकता था इसलिए खा लिया जाता था.अगर ये रबर या प्लास्टिक का बना होता तो शायद च्युइंग गम की तरह थूक दिया जाता.
क्यों लोग फिर भी गोलगप्पों के पीछे भागते थे?वो इस तरह के सवाल इसीलिए सोच पा रहा था क्योंकि अगर उसका मुंह इस तरह फीका नहीं होता तो वो गोलगप्पे खाने के बारे में सोचता भी नहीं.गोलगप्पों को लेकर इस हालत में भी उसके मन में द्वंद्व ही था जिसकी परिणति उसके मन में इस तरह के सवालों के रूप में हो रही थी.

वो सोचता जा रहा था कि क्या वजह हो सकती है कि लोग ख़ूब तादाद में 'पानी -पतासों' के पीछे लगे रहते थे और कई बार तो ठेले वाले के आगे पहले दिए जाने को लेकर चिरौरिया तक की जातीं थीं.बहुत वाजिब और ठोस तर्क तो उसके पास नहीं था पर उसका कुल मिलाकर यही सोचना था कि गोलगप्पा मुंह में जाकर एक दम से फूट जाता था और एक तीखा सा हमलावर किस्म का स्वाद सहसा मुंह में छा जाता था.खाने वाला इसी घटना के फिर होने की स्थितिया पैदा करने के लिए एक और खाने की ओर प्रेरित होता होगा.उसके बाद फिर एकऔर.यूँ एक और एक और की स्थितियां बनती रहतीं होंगीं.ये सब स्वाद से ज़्यादा एक खेल का असर छोड़ता था.जैसे ये स्वाद के साथ एक तरह का खेला गया खेल था.

गोलगप्पों का ठेला थोडा हटकर था.ट्रैफिक से हटकर.ठेले के पास खड़े होकर ट्रैफिक को खासी दूरी से ही आवाजाही करते देखा जा सकता था.शाम का वक्त था और अँधेरा ख़ूब जमा हो गया था इसलिए वो गाड़ियों को लाल पीली धारियों में खिंचते या कभी रोशन बिन्दुओं में विखंडित होते देख रहा था.इसमें उसकी दिलचस्पी जल्द ही ख़त्म हो गयी.वो ठेले के आसपास केन्द्रित हो गया.ऊपर पीपल की झुकी हुई डालियाँ थीं.पत्तों पर कहीं से कृत्रिम प्रकाश गिर रहा था.उसने पत्तों में कुछ असामान्य देखा.ये उन पर गिर रही रौशनी की वजह से तो नहीं था.पत्तों से जैसे रंग छूट रहा था.वे जगह जगह से बेरंग हो गए थे.पत्तों पर जैसे अमूर्त सी आकृतियाँ बनी हुई थी.कुल मिलकर ये सब इतना असुंदर था कि उस तरफ देखने का मन ही नहीं करता था.आसपास कहीं भी पीपल का तना नहीं दिख रहा था.शायद पेड़ पास की पुरानी दीवार से सिर्फ टहनियों जितना ही निकला था.दौड़ते भागते हांफते शहर के पास ये जगह कितनी चुप-सी थी?ऊपर से पीपल के पत्तों से झरता सन्नाटा.पुरानी दीवार की दरारों से झांकता बियावान.ठेले वाले की मटकी प्राचीन मृदभांड की ओर इशारा कर रही थी.उसे लगा वो किसी निर्जन ढूह पर खड़ा है.दूर किसी और समय में कोई शहर अपने दिन को ख़त्म कर घर की ओर भाग रहा था.उसके पास भी कम से कम एक आदमी तो और खड़ा ही था.और ये भी कोई कम तसल्लीबख्श नहीं था.


4 comments:

  1. वाकई सिगरेट पीना कभी-कभी भाता है पर इसका कसैला और सिगरेटी स्‍वाद मन को सिगरेट नहीं पीने के लिए ही मनाता है। गोलगप्‍पों का आकर्षण उस बच्‍चे से पूछिए, जो तीन-चार साल का होने पर चीजों को पहचानना शुरू करता है। उसकी दृष्टि में गोलगप्‍पे निश्‍चय ही किसी स्‍वर्गिक चीज की भान्ति ही हाेते हैंं। बहुत सुन्‍दर संस्‍मरण।

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  2. सिगरेट के बारे में बिना अपने अनुभव के कुछ भी कहना मुमकिन नहीं. एक लम्बी पोस्ट लिखी थी कुछ समय पहले इसी स्मोकिंग को लेकर कि कैसे एक घनघोर स्मोकर फैमिली में होते हुए भी और सिगरेट पीने को किसी के स्मार्ट्नेस कोशियेण्ट का एक बड़ा हिस्सा मानते हुए भी, कभी अपनी स्मार्टनेस का हिस्सा नहीं बनने दिया!

    गोलगप्पा मानव की अपार शक्ति की दमित इच्छाओं का सिम्बल लगता है. एक पेट फूले हुये, न जाने कितने सारे विस्फोटकों से भरपूर (खट्टा-नमकीन द्रव विद लॉट्स ऑफ स्पाइस) एक छोटा सा दानव... चुटकी मसल देने या कच्चा चबा जाने की तर्ज़ पर उसे पूरा का पूरा मुँह में डालकर मज़ा लेते हुए उदरस्थ करना. (मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं शायद इसलिये इतनी विकृत व्याख्या कर रहा हूँ)!
    आख़िर में जो मंज़र आपने दिखाया वो तो ख़ैर आपका पसन्दीदा पोर्ट्रेट है!

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    1. क्या बात है सलिल जी। गोलगप्पे पर बढ़िया लघु चिंतन आया है टिप्पणी में। थैंक्स।

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