मैं हमेशा उसे राह चलते देखा करता था.वो एक फोटोग्राफर था.मेन रोड पर उसकी दुकान थी.दुकान पर साइड में एक डेस्क के पीछे वो खासी आरामदायक कुर्सी पर बैठा रहता.उसे मैं हमेशा वहीं बैठे देखा करता था.उसे यही मुद्रा सूट करती थी.उसका कद दरम्याना था पर उसमें जो बात ध्यान खींचती थी वो उसका मोटापा था.वो खासा मोटा था.पर उसका मुटल्लापन ठाठदार था.कुछ कुछ कपूर ख़ानदान जैसा.या नुसरत फ़तेह अली ख़ान की तरह. भव्य.
वो अक्सर रेशमी कुरता पहने होता था.ये पूरे भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उस आदमी की तरफ ध्यान खींचने के लिए सिर्फ उसकी देह का प्रसार-भराव ही ज़िम्मेदार था.शायद इसमें कुछ योगदान उन दिनों फोटोग्राफी के ठाठ का भी था.कैमरा थामने वाला हर शख्स कुछ ख़ास ही लगता था और उसके जैसे लोग अपने भरे पूरे शरीर के साथ कैमरे वाले होकर और भी फबते थे.उसकी दुकान के बाहर एक लम्बे पैनल में बहुत सारे रंगीन और श्वेत श्याम फ़ोटोज़ लगे थे जिनमें मुस्कुराते हुए लोग उसके हुनर की गवाही देते लगते थे.उन चित्रों में कई लडकियां भी होतीं थीं और वे किन्हीं दूर देशों से आईं लगतीं थीं.उनका सौन्दर्य गज़ब का था पर वे इतनी अप्राप्य लगतीं कि उन्हें उस भूगोल का होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था.कुछेक फ़ोटोज़ में 'लोकल' लड़के लड़कियां भी दिखाई देते जो दुकान के किसी मुश्किल कोण में बैठे हुए होते,जहां बहुत आसानी से नज़र नहीं जाती.ये देसी छैले और ललनाएं-छलनाएँ वहां 'आउट ऑफ़ प्लेस'लगते थे.उनकी मुस्कान में पीड़ा थी. और उनकी आँखों में हैरत. उनकी ठुड्डीयां बाहर को निकलीं,फ्रेम से बाहर आतीं लगतीं.वे छायाचित्रों की दुनिया के थे ही नहीं.पर डिस्प्ले में लगे बाकी ज़्यादातर फ़ोटोज़ दुकान का कुशल विज्ञापन करते थे.उससे भी ज़्यादा डेस्क के पीछे बैठे महोदर का.हो सकता था और जिसकी ज़्यादा सम्भावना थी कि वे सुंदर पोर्ट्रेट फोटोज़ उस स्थूल-भद्र के कैमरा कौशल का परिणाम थे ही नहीं,शायद वे किसी और ही शहर से ख़रीदे हुए थे,पर उन चित्रों ने वहां लग कर यही जताया था कि यही छविकार इन सब चित्रों का प्रथम और मौलिक छायाकार है.उस आदमी की दुकान एक छोटी सी जुदा सृष्टि महसूस होती.एक ऐसी सृष्टि जिसमें अगली पांत के लोग उस दुनिया को बेहद दिलकश और हसीन बनाते थे. इन सबने उस स्थानीय फोटोग्राफर को लार्जर देन लाइफ इमेज प्रदान कर दी थी.मेरे लिए तो कम से कम वो इन्सान न होकर खुद अपना ही एक बेहतर फोटो था जिसे उस सड़क पर आते जाते हर बार डेस्क के पीछे देखने की इच्छा होती थी.
कई बार उसे कांच के गिलास में चाय पीते देखा करता था.कांच का गिलास उसके हाथ में आते ही क्रिस्टल का कोई भव्य गिलास दिखने लग जाता था.और चाय उसमें चाय न लगकर देवताओं का कोई पेय लगती थी जो हम लोगों के लिए हमेशा अलभ्य थी.मैं कई बार उसकी दुकान में इस तरह उसे देख घर जाकर कांच के गिलास में चाय पीता था, कुछ कुछ उसकी विशिष्ट मुद्रा में ही.बावजूद इसके चाय पीने के मेरे उस अनुभव में किसी भी प्रकार की दिव्यता नहीं महसूस हो पाती थी.मैं भरसक सावधानी बरतता था.कांच का गिलास.उसमें भरी चाय.उतनी ही मात्रा.यानि पूरी भरी होने से ज़रा कम.रंग से कड़क.उसी तरह बांये हाथ में थामने की क्रिया. इन सबके बावजूद सब कुछ पार्थिव ही बना रहता.
मैं अगर सड़क के दूसरी ओर होता तो उसकी दुकान दूसरी ओर लगभग पचास फीट दूर होती थी.और वापसी में मैं सड़क के दूसरी ओर से आ रहा होता तो उसकी दुकान के ठीक पास से तमाम फोटुओं को देखता गुज़रता था.उस वक्त मेरी चाल धीमे हो जाती थी पर उस आदमी को एकदम नज़दीक से देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था.मुझे पास से चलते वक्त भी यही लगता था कि वो आदमी अपने काले चश्मे से मुझे घूर रहा है और शायद उसे मेरा इस तरह दुकान को या उसे देखना पसंद नहीं है.मैं इसी झिझक के साथ धीरे धीरे चलता रहता और बिना सीधे उसकी ओर देखे अलग अलग पलों में अलग अलग खूबसूरत लड़कियों के फोटो देखता रहता.वे फोटो अपने चटख रंगों के साथ मुझे लुभाने लगते.साथ ही उनमें कुछ ऐसा भी था कि लगता ये किन्हीं वास्तविक लड़कियों के फोटो नहीं है.उनकी सुन्दरता में कुछ ऐसा था जो विलायती ही नहीं विजातीय भी था.वे मुझे किसी गैर इंसानी शै के चित्र लगने लग जाते.और तब मुझे वो स्टूडियो का मालिक जादूगर लगने लगता.भले ही मैं अपने को समझाता कि ये फोटो इस आदमी ने शायद खींचे ही नहीं है पर दुसरे ही पल मैं सोचता कि ये मेरा अंदाज़ा ग़लत भी हो सकता है.फोटो उसके खींचे भी हो सकते है.हो सकता है पहले वो किसी और शहर में रहता हो या उसकी दुकान किसी और जगह रही हो जहां उसने ये फोटो लिए होंगे.और ये बात दिमाग में आते ही वो फिर जादूगर लगने लगता.जादूगर भी हाथ की सफाई से मजमा लगाने वाला नहीं.सच का.और उस दुनिया का जिसमें राजकुमारियां और तोते वगैरा होते है.इन सब ख्यालों के आते ही मैं कुछ कुछ घबराता जल्दी से आगे बढ़ जाने की कोशिश करता.जैसे वो आदमी अभी मुझे पल भर में किसी बड़े चौकोर साइज़ के फोटो में बदल देगा.हालांकि ये ख़याल भी अपने आप में कम आकर्षक नहीं था.
कैमरे की दुकान पर बैठे व्यक्ति को किताबों का बचपन से शौक़ था...कभी रद्दीवाले के यहाँ से तो कभी अखबार की दुकानों पर अक्सर किताबें उलटता पलटता रहता. किताब के अन्दर के पन्नों से कहीं ज्यादा उसका ध्यान लेखकों के फोटोग्राफ्स में रहता. काली-सफ़ेद तस्वीरों वाले अनगिन लेखकों की तसवीरें जैसे उसके दिमाग में छपी हुयी हैं...मंटो की तस्वीर जिसमें गोल गोल सा चश्मा है और एक लट जरा बेखयाली से बिखरी हुयी या कि मोटरसाइकिल डायरीज पर चे गुवेवारा की फोटो...अक्सर सोचता कि तस्वीर खींचते वक़्त फोटोग्राफर क्या सोच रहा होगा...क्या लेखक की मनोदशा को पकड़ पाया होगा...क्या लेखक की तस्वीर उसके शब्दों के साथ न्याय कर पाती होगी. उसकी ये आदत तब तक भी बरक़रार रही जबकि लोगों की तसवीरें उतारना उसका पेशा नहीं बन गया. इसी तरह एक रोज शहर के बुकस्टोर से गुजर रहा था तो उसने एक नयी किताब आले में लगी देखी, 'टिम टिम रास्तों के अक्स'...आदत के मुताबिक, उसने किताब पलट कर देखी तो पीछे एक मुस्कुराते शख्स की तस्वीर थी जिसे देख कर लगता कि इसे कहीं तो देखा है. दो दिन त्यौहार की छुट्टियों में वो उस लेखक के बारे में अक्सरहां सोचता रहा.
ReplyDeleteअगली रोज वो अपनी तस्वीरों की दुनिया में बैठा हुआ उसी लेखक के बारे में सोच रहा था. शीशे के ग्लास में चाय की पहली चुस्की ही ली थी कि अचानक उसे लगा कि वही लेखक उसके सामने से गुजरा है...मगर उसके सामने से अनगिन लोग गुजरते थे...ये उसके मन का वहम भी हो सकता था. अगली रोज फिर वही चाय का ग्लास था...पहली चुस्की थी और उसे लगा कि वही काले-सफ़ेद बुक कवर के पीछे की तस्वीर जैसा कोई जीता जागता शख्स गुजरा है...मगर ऐसा सोच कर उसे हंसी आई...उसे लगा कि लेखक मायावी दुनिया के लोग होते हैं...किसी क्रिस्टल के भव्य ग्लास में चाय पीते होंगे...वो उनकी लिखी काली सफ़ेद दुनिया में विचरने लगा...जहाँ सब कुछ मुमकिन हुआ करता था. उसकी ख्वाहिशों में एक ये ख्वाहिश भी थी कि कभी एक लेखक की ऐसी तस्वीर उतारे जो किसी किताब के कवर के पीछे छपे.
दो किस्से समानांतर.या एक क़िस्सा मुकम्मल.थ्री डी में पढने जैसा अहसास.
Deleteबढ़िया.
एक जीवन का संवेदनात्मक स्केच, जो बहुत से जीवनियों का अहसास भी है।
ReplyDeleteविकेश जी पुनः आभार.हमेशा आभार.
Deleteअचानक से महसूस हुआ कि स्टीफेन लीकॉक की रचना "विद द फ़ोटोग्राफ़र" जैसी कोई रचना मिलेगी... लेकिन एक साँस में पूरा पढ गया... कमाल का स्केच है यह एक फ़ोटोग्राफर का उसके स्टूडियो में आपकी नज़र से!!
ReplyDeleteशुक्रिया आपका.स्टीफन लीकॉक को इस रचना को मैं भी पढने की कोशिश करूँगा.बताने के लिए भी आभार.
Deleteएक याद की तीली, बस एक रगड़ से, कितनों के मन में, कितनी यादों की चिंगारियाँ सुलगा जाती है ...
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