Thursday, October 22, 2009

वे दिन और पहली बार प्रेम जैसा कुछ


वे बेकार पड़े टायरों में उकडू फंस कर
लुढ़कने और दुनिया को
तेज़ गोल घूमते देखने के दिन थे.
किसी दोस्त की एक सक्षम लात से
चोट खाकर लुढ़कता था
किसी ट्रक का बेकार टायर
अपने में कैद एक लड़के को
हर एंगल से दुनिया दिखाता.
और यूँ तय होता था
टीले की ऊंचाई से सम्हालने लायक ढलान का सफ़र

वे खेलने,खेल में अक्सर हारने और
कभी कभी जीतने के दिन थे.
वे दादा टाइप लड़कों से
मार खाने के दिन थे.
सिर्फ एक ही उम्मीद तब बची रहती कि
पराजितों का भी कभी
बेहतर इतिहास ज़रूर लिखा जाएगा.
और एक संतोष इस विचार से मादकता में बदलता कि
ये लोग भी आखिर
खंगार जी,किशन जी या लाल जी माड़साब से
पिटते हैं आये दिन
यहाँ तक कि
शांता बेन्जी भी सख्ती से कान उमेठती है इनके.

वे देर शाम तक
महल्ले में खेलने के सरफिरे दिन थे.
शाम दिया बत्ती के बाद
घर के बंद किवाड़ उन दिनों
बाहर ही रहने का सरल और मज़बूत सन्देश देते
और हमारी विचित्र ढीठता
दीवारें फांद फांद कर हमें घर लौटाती
जेब खर्च के लिए पैसों की
लम्बी जिद भी बेकार नहीं थी
वे दुनिया को दस पैसे में
खरीदने के दिन थे.

वे जटिल और तीव्र संचार से विहीन
किन्तु बेहतर संवाद के दिन थे.
वे गुड़ के,रेडियो के,झडबेरी के,
बड़बोट के,दौड़ने के,सुस्ताने के,
हंसने के,खुश होने के दिन थे.
वे भारत को रेडियो पर
पहला वर्ल्ड चैम्पियन बनते देखने के दिन थे.

और
वे कुछ सरल रेखाओं में
गतिमान लगते समय में
पहली बार गहरे,तेज़ गोल घूमते
और घुमाते
प्यार जैसी तीव्र अनुभूति के वर्तुल में
डूब जाने के दिन थे.
वे ये याद दिलाने के दिन थे कि
बच्चू! हर चीज़ सिर्फ खुश करने वाली नहीं होती.
मिसाल ही समझें इसे कि
ऐसी ही किसी वज़ह से
गुमसुम से घर बैठे होते
जब नज़रें
दूर विस्तार तक छतें लाँघ कर थक चुकी होतीं
और घर वाले सोचते
आज फिर कहीं से
पिट कर आया है.

(photo courtesy-subharnab)

19 comments:

  1. सच क्या दिन थे!
    घुघूती बासूती

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  2. Shubhan Allahजिस तरह डूबकर आपने लिखा है
    हम भी उसमें गोते खाते से लगे

    लगा वे दिन यहीं कहीं आस पास चिपके से हैं

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  3. आज फिर कहीं से
    पिट कर आया है.

    hmmm
    bahut hi shiddat se kavita mein utar kar likha hai.....

    bahut achcha laga padh kar...........

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  4. हां ऐसे ही कुछ दिन थे वे !
    बेहतरीन प्रस्तुति !

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  5. ऐसी ही किसी वज़ह से
    गुमसुम से घर बैठे होते
    जब नज़रें
    दूर विस्तार तक छतें लाँघ कर थक चुकी होतीं
    और घर वाले सोचते
    आज फिर कहीं से
    पिट कर आया है.



    -वाह!!क्या उकेरा है उन दिनों को.बहुत गहरे उतरे...

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  6. लगता है नॉस्टेलजिया फिज़ाओं मे है आजकल :)

    भावपूर्ण...!

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  7. वे जटिल और तीव्र संचार से विहीन
    किन्तु बेहतर संवाद के दिन थे.
    sahi hai waqt ne संवाद ko तीव्र zaroor kiya hai...बेहतर to vah tab hi the.

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  8. .
    .
    वे दुनिया को दस पैसे में
    खरीदने के दिन थे.
    .
    .
    स्तब्ध हूँ। अभिभूत। नतमस्तक।
    .
    .
    आप जैसे से पिटना पड़े तो भी आनन्द है :)

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  9. वो भी क्या दिन थे जब हर चीज़ से
    बिना बात ही प्यार हो जाया करता था
    घूम घूम कर लौटते थे और
    और लौट कर फिर घूम आया करता था

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  10. विलक्षण विम्ब विधान है भाई, लेकिन हम पहाड़ वालों के लिए बडा घातक... टायर के भीतर उकड़ूँ हो कर लुढ़कना... तौबा!

    डर लगता है यह कविता पढ़्ते हुए.पहले मुझे इस ढलान से उतर कर किसी समतल जगह पहुँच जाने दीजिए.

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  11. प्यार जैसी तीव्र अनुभूति के वर्तुल में
    डूब जाने के दिन थे.
    ----
    क्या अनुभूति है! क्या बिम्ब है!
    बहुत ही खूबसूरत रचना

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  12. कविता सुंदर है, कुछ समय बाद उपस्थित हो पाउँगा इसका पूर्ण आनंद लेने और कुछ कहने के लिए.

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  13. अरे अतीत तुम कहाँ थे? .. मुलाकात कराने के लिए शुक्रिया...

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  14. सिर्फ एक ही उम्मीद तब बची रहती कि
    पराजितों का भी कभी
    बेहतर इतिहास ज़रूर लिखा जाएगा.

    वे दुनिया को दस पैसे में
    खरीदने के दिन थे.

    ऐसी ही किसी वज़ह से
    गुमसुम से घर बैठे होते
    जब नज़रें
    दूर विस्तार तक छतें लाँघ कर थक चुकी होतीं
    और घर वाले सोचते
    आज फिर कहीं से
    पिट कर आया है.

    ----------

    बहुत सुन्दर चित्रण...एक एक लाइन चित्र उभार रहा है

    मेरे लिए उन दिनों में शुमार थे
    स्कूल से कभी कभी बंक मार के
    अमिताभ की फिल्में देखने के

    और
    स्कूल से घर लौटते हुए
    मदारी के खेल देखने के भी...

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  15. आपने समय की शिला पर एक पूरे कालखंड का चित्र खींच दिया है व्यासजी ! बहुत सुन्दर !!
    मन कहीं पीछे लौट गया था... याद आये अमरख, फालसा, शहतूत के दरख्त और देर रात आम की डालियों पर चढ़कर आम चुराने के दिन--दरबान हनीफ से डरते हुए ! याद आये वे लड़के जो मेरी ददागिरि मे मुझसे पिटे ! भाई ! आपने तो इस कविता से जाने क्या-क्या याद दिला दिया... अनूठी रचना !! साधुवाद !!
    --आ.

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  16. सिर्फ एक ही उम्मीद तब बची रहती कि
    पराजितों का भी कभी
    बेहतर इतिहास ज़रूर लिखा जाएगा.
    गहराई अभिभूत कर देने वाली है....

    लम्बी जिद भी बेकार नहीं थी
    वे दुनिया को दस पैसे में
    खरीदने के दिन थे.
    विचारों का मुक्ताकाश ...!

    जब नज़रें
    दूर विस्तार तक छतें लाँघ कर थक चुकी होतीं
    और घर वाले सोचते
    आज फिर कहीं से
    पिट कर आया है.

    भाव मदहोश कर देने वाले है...
    आपकी कवितायेँ अपने स्तर में श्रेष्ठता समाहित किये है..
    बधाई!

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  17. बेहतरीन भावाभिव्यक्ति..... साधुवाद....

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  18. कविता समय का एक सांचा है. जिसमे सिर्फ बचपन के उद्दात आवेग और अवर्णनीय किस्से मात्र नहीं हैं, ये कविता निरपेक्ष नहीं रहने देती और अपने दिनों के साम्य को तलाशने के लिए प्रेरित करने लगती है. कविता को पढ़ के कुछ भी याद आना और उसका वक्तिगत चित्रण ही इसकी सार्थकता है. बधाई !

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