इन दिनों दो फ़िल्में देखी। सीक्वल।पहली थी ट्वाईलाईट जिसकी डीवीडी मुझे एक सहकर्मी मित्र ने दी जिनका बेटा हाल ही में विदेश से लौटा था। और दूसरी थी न्यू मून जिसे मैंने शहर के सिनेमा हॉल में देखी। मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्में नहीं देखता और हौलीवुड की तो और भी कम पर जब ट्वाईलाईट को देखने का मौका नसीब हो ही गया औरउसके कुछ ही दिन बाद दीवारों पर इसकी सीक्वल 'न्यू मून' के पोस्टर देखे तो मन बना लिया कि इसके लिए हॉल में जाया जाये। कहानी के मूल में प्रेम कथा है पर प्रेमी वैम्पायर है यानी एक पिशाच। इसे कम खौफनाक और गले उतरने लायक बनाने के लिए उसे इंसानी खून से परहेज़ करने वाला बताया गया है और लगभग त्रिकोण बनाता एक वेरवुल्फ भी है जो भेड़िये में कायांतरित हो जाता है। खैर मैं इनकी कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा हूँ पर शायद इतना ज़रूरी था। यहाँ एक लड़की जो नश्वर इंसान है उसे एक पिशाच से प्रेम हो जाता है। इन दोनों फिल्मों का आधार इन्हीं नामों वाली किताबें है जिनकी कथा को लगभग वैसा का वैसा ही इस्तेमाल किया गया है।
इस तरह के पात्रों को लेकर फिल्मे खूब बनी है और बन रही है, पर इन दो फिल्मों के ज़रिये मैं अपने ग्रे मैटर की ताज़ा हलचल को आपके साथ बांटना चाहता हूँ। मामला इन फिल्मों का नहीं प्रेम का है जिसके बारे में इतना पढ़ लिया पर अपनी याद में इसका अक्स शुभ ही बना रहा। पहली बार शायद मनहूसियत के प्रतीकों को इसके साथ जुड़ता देखा है। वैसे तो वैम्पायर को वासना और शाश्वत तृष्णा के 'अशुभंकर' के रूप में लिया गया है पर यहाँ मामला निश्छल प्रेम का है। जिसे हम निर्मल और शुभ मानते आये हैं। इसमें प्रेम सिर्फ प्रेम है किसी चौहद्दी से बंधा नहीं। अपनी सीमाएं खुद बांधता या अपनी सीमाएं खुद लांघता। उन्हें अपने तरीके से विस्तार देता।
पिशाच का लड़की से प्रेम इतना वास्तविक है कि आपका उसके हक़ में बने रहने का मन करता है। वो बेहद सुंदर है जिसने यौवन को अपनी कोशाओं में बाँध लिया है। ११७ साल की उम्र में भी और न जाने कितनी शताब्दियाँ और तलक। वो मृत्यु से परे है या कहें कि अमर होने को अभिशप्त है। और पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके। तमाम क्रिस्तानी नैतिकताएं उसे बाँध नहीं पाती। वो नागर से आरण्यक हो जाना चाहती है। जीवन और मृत्यु दोनों उसे नहीं लुभाते और वो हमेशा असमाप्त प्यास का वरण करती है।
यहीं पर हम फिल्मों और उसमें प्रयुक्त मिथकों को छोड़ते हैं। प्रेम की एनौटमी पर एक रौशनी या अँधेरा फेंकती है ये फिल्म। प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है। ये शुभ-अशुभ से उदासीन है, इनके आड़े नहीं आता। असल में ये इसके क्षेत्र में नहीं आते। ये आदिम है। मौल या खोह कहीं भी पनप सकता है।
रात के अंधकार को गाढ़ा करती चमकती आँखों वाले किसी पशु की तरह इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने मौलिक रूप में इसमें मानवीय जैसा कुछ नहीं। बल्कि अपने चरम रूप में समान पाशविक सुख की कौंध इसमें निहित रहती है।
ये कतई ज़रूरी नहीं कि ये विश्लेषण इन दो फिल्मों को देखने का ही नतीज़ा हो पर इनको देखकर कुछ क्षैतिज चिंतन का अवकाश मिला और परवर्ती मंथन से ऊपर तैर आये झाग में इनकी कहानी गंध रूप में शायद विद्यमान हैं।
भूत बचपन के किस्सों का मुख्य पात्र रहा है पर उसमें मानवीय समाज से बाहर जाने की ताकत नहीं थी और अक्सर वो विदूषक की भूमिका में ही अवशिष्ट रह जाता था। जबकि फिल्मों के ये पात्र महासागरों की प्यास और पृथ्वी निगलने की भूख लिए आते हैं। इन्हें देखकर मनहूसियत तारी होने लगती है। पर प्रेम की ऊतक-संरचना को ये एक अजीब सी बैंगनी चमक प्रदान करते है।
(चित्र विकिपीडिया से साभार)
इस तरह के पात्रों को लेकर फिल्मे खूब बनी है और बन रही है, पर इन दो फिल्मों के ज़रिये मैं अपने ग्रे मैटर की ताज़ा हलचल को आपके साथ बांटना चाहता हूँ। मामला इन फिल्मों का नहीं प्रेम का है जिसके बारे में इतना पढ़ लिया पर अपनी याद में इसका अक्स शुभ ही बना रहा। पहली बार शायद मनहूसियत के प्रतीकों को इसके साथ जुड़ता देखा है। वैसे तो वैम्पायर को वासना और शाश्वत तृष्णा के 'अशुभंकर' के रूप में लिया गया है पर यहाँ मामला निश्छल प्रेम का है। जिसे हम निर्मल और शुभ मानते आये हैं। इसमें प्रेम सिर्फ प्रेम है किसी चौहद्दी से बंधा नहीं। अपनी सीमाएं खुद बांधता या अपनी सीमाएं खुद लांघता। उन्हें अपने तरीके से विस्तार देता।
पिशाच का लड़की से प्रेम इतना वास्तविक है कि आपका उसके हक़ में बने रहने का मन करता है। वो बेहद सुंदर है जिसने यौवन को अपनी कोशाओं में बाँध लिया है। ११७ साल की उम्र में भी और न जाने कितनी शताब्दियाँ और तलक। वो मृत्यु से परे है या कहें कि अमर होने को अभिशप्त है। और पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके। तमाम क्रिस्तानी नैतिकताएं उसे बाँध नहीं पाती। वो नागर से आरण्यक हो जाना चाहती है। जीवन और मृत्यु दोनों उसे नहीं लुभाते और वो हमेशा असमाप्त प्यास का वरण करती है।
यहीं पर हम फिल्मों और उसमें प्रयुक्त मिथकों को छोड़ते हैं। प्रेम की एनौटमी पर एक रौशनी या अँधेरा फेंकती है ये फिल्म। प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है। ये शुभ-अशुभ से उदासीन है, इनके आड़े नहीं आता। असल में ये इसके क्षेत्र में नहीं आते। ये आदिम है। मौल या खोह कहीं भी पनप सकता है।
रात के अंधकार को गाढ़ा करती चमकती आँखों वाले किसी पशु की तरह इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने मौलिक रूप में इसमें मानवीय जैसा कुछ नहीं। बल्कि अपने चरम रूप में समान पाशविक सुख की कौंध इसमें निहित रहती है।
ये कतई ज़रूरी नहीं कि ये विश्लेषण इन दो फिल्मों को देखने का ही नतीज़ा हो पर इनको देखकर कुछ क्षैतिज चिंतन का अवकाश मिला और परवर्ती मंथन से ऊपर तैर आये झाग में इनकी कहानी गंध रूप में शायद विद्यमान हैं।
भूत बचपन के किस्सों का मुख्य पात्र रहा है पर उसमें मानवीय समाज से बाहर जाने की ताकत नहीं थी और अक्सर वो विदूषक की भूमिका में ही अवशिष्ट रह जाता था। जबकि फिल्मों के ये पात्र महासागरों की प्यास और पृथ्वी निगलने की भूख लिए आते हैं। इन्हें देखकर मनहूसियत तारी होने लगती है। पर प्रेम की ऊतक-संरचना को ये एक अजीब सी बैंगनी चमक प्रदान करते है।
(चित्र विकिपीडिया से साभार)
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.... संस्मरणात्मक....
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा लिखी आपने ...फिल्म पर आपका विश्लेषण भी प्रभावित करता है
ReplyDeleteसंजय,
ReplyDeleteइस लेख में आपने नागर/वनैला जैसे शब्दों का सटीक प्रयोग कर के खुश कर दिया.
ट्वाईलाईट श्रेणी की फ़िल्में अमरीकी किशोर [खास कर किशोरी] वर्ग में बहुत धूम मचा रही हैं. किताबों की दुकानो पर इस उपन्यास के स्टाल्स के आसपास किशोरियों का जमघट उपस्थित होता है.
वैंपायर विधा की यह किशोर-प्रेम कथा स्त्रैण [नायिका के] दृषिकोण से लिखी गई है जानते हुए इन्हे देखने मे कोई रुचि नही रखी थी.
लेकिन आपकी समीक्षा बहुए संतुलित और सटीक है ऐसी विधा की फ़िल्में भारतीय स्वाद वालों को जमती कम ही हैं किन्तु आपने खुले दिमाग से इन्हे देखा और इनके बारे मे बताया.
बेहतरीन समीक्षा!!
ReplyDeleteसुन्दर रिव्यू. वैसे इस थीम पर जो पिछली फिल्में देखी,उस से मन खराब ही हुआ.लेकिन हमें प्रेम के एक य़ुटोपिअन (नागर)किस्म के स्वप्न से उबरने के लिए शायद ऐसी (आरण्यक)फिल्मों की ज़रूरत पड़ती रहेगी.
ReplyDeleteआप के ये दो शब्द् यहाँ कमाल का प्रभाव छोड़ रहे हैं.
....देखूँगा इन फिल्मो को
फर्क बहुत ज्यादा नहीं है जो लोग तैतीस करोड़ देवी देवताओं पर हंसते हैं उन्होंने इससे भी अधिक राक्षसों की रचना की है. वे अपने शोक से उपजे आर्त्रनाद की अभिव्यक्ति के लिए यही सब करने को शापित हैं. तम्बाकू का असर कम होने लगता है तो फिर धतूरे तक की यात्रा आवश्यक हो जाती है. इन पात्रों का निश्छल प्रेम वस्तुतः यूरिया से बना दूध है जिसे पीना उनकी मजबूरी है. सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों को खो देने के परिणाम में अगर यही सब सोच लेने से काम चल रहा है तो इसे गनीमत समझा जाये.
ReplyDeleteआपकी समीक्षा या फिर निरपेक्ष मत की भाषा प्रभावित करती ही है. दोनों फिल्मों को देखा नहीं है. आपकी पोस्ट से समझने से प्रयास कर रहा हूँ और सोचता हूँ कि कोई फिक्शन लिखने की कोशिश करूं, सुना है कि चीज में दम हो तो बिकता बहुत है क्या पता अंधे के हाथ बटेर लग ही जाये. इन्हीं आशाओं के साथ आज की सुबह का आगाज़ हुआ है.
बैंगनी चमक वाली सोच ले आना आश्चर्यजनक है.. और ये काम सिर्फ आप ही कर सकते है.. फिल्म के माध्यम से काफी गहरी बात कही है आपने..
ReplyDeleteइम्प्रेस्ड! अंग्रेजी फिल्में मुझे समझ नहीं आती (बड़ा सुपर सेट है कि फिल्में मुझे समझ नहीं आतीं!)
ReplyDeleteऔर पराकाष्ठा देखें, लड़की जिद करती है कि वो भी उसे वैम्पायर बना दे ताकि उसका प्रेम हमेशा उपलब्ध रह सके।
ReplyDeleteइस वाक्य के साथ परसों रात देखा गया राज पिछले जनम का एपिसोड याद आ गया। उसमें क्या वास्तविकता है क्या नही ये अलग विवाद है, चूँकि मैं व्यक्तिगत रूप से इस मिथक को सच मानती हूँ कि मेरे इस जन्म की घटनाएं कहीं पिछले जन्म से ताअल्लुक रखती हैं। (ये उतना ही भ्रमित विश्वास है जितना मेरी जिंदगी में ईश्वर का अस्तित्व)
खैर विषय ये था कि महाराष्ट्र का एक व्यक्ति जो कहीं भी जाता है कौवे उसके पीछे पड़ जाते हैं और इस बात के कारणों मे जाने के लिये जब वह इस शो में आता है तो बहुत सी औपन्यासिक घटनाएं सामने आती हैं। जिसमें पाया जाता है कि व्यक्ति सन् १२४८ के करीब राजा विक्रमादित्य के काल में मंग्लौर (बंग्लौर) के किसी मंदिर (शायद मंगला देवी जिसके नाम पर मंगलौर शहर का नाम पड़ा) के पुजारी परिवार से संबद्ध था जिसके सामने कौओं की बलि दी जाती है और वो कुछ नही कर पाता। वहीं किसी अछूत कन्या से वो बचपन से प्रेम करता है और पुजारियों को इस बात का पता लगने पर वे उस लड़की की हत्या करने को उस युवक से कहते हैं। युवक के ना करने पर पुजारी स्वयं उसकी हत्या कर देता है और कन्या युवक के हाथों मे उसे यह शाप देते हुए खतम हो जाती है कि कोई स्त्री उस पर किसी जन्म में विश्वास नही करेगी। युवक भी हत्यारे पुजारी को कौवा बन जाने का शाप दे देता है।
हर जन्म में उस कन्या की आत्मा और वो कौवा उसका पीछा करते हैं।
बाद में रिग्रेशन थेरोपी करने वाली महिला जब इस जन्म के डॉ० संजय से उस पुजारी (कौवे) के भय और सुंदरा (अछूत कन्या) को वहीं छोड़ देने को कहती है तो वो डॉ० संजय गयकवाड़ कहते हैं कि धुत (पुजारी) को जाने दो सुंदरा को रहने दो।
और यही बात मुझे अलग तरह से छूती है कि ७०० वर्ष तक किसी के शाप को जीने के बावजूद, उसकी त्रासदियाँ जन्म जन्मातर तक झेलने के बावजूद.. ये मन प्रेम से नही निकलना चाहता और उसे अपनी जिंदगी में रहने देना चाहता है, चाहे वो यंत्रणा बन के ही हो।
फिर कहूँगी कि ये कल्पना भी हो तो भी इस घटना ने मुझे प्रेम पर इस तरह सोचने को मजबूर किया।
आपका विश्लेषण भी इतना ही प्रभावशाली था कि इसने फिल्म की कल्पनाओं पर अलग तरह से सोचने को विवश किया....!
01.संजय भाई वाकई आपकी भाषा बहुत समर्थ और ईर्ष्या से भर देने वाली है.
ReplyDelete02.संजय भाई वाकई आपकी भाषा बहुत समर्थ और ईर्ष्या से भर देने वाली है.
मेरा सलाम.
आपका विश्लेषण फ़िल्म के प्रति रूचि पैदा कर रहा है। कहीं मिल पाई तो जरूर देखूंगा। आपको फ़िल्में देखनी ही नहीं उन पर लिखना भी चाहिए। इंतजार बना रहेगा अब तो।
ReplyDeleteफ़िल्म के बहाने प्रेम पर सुन्दर चिंतन !!!!!
ReplyDeleteपोस्ट बहुत अच्छी लगी ।
पहली फ़िल्म देखी है और अब दूसरी देखने के बारे में सोच रहा हूँ ।
@अजेय जी
ReplyDeleteप्रेम पर जो कुछ पढ़ा है वो किसी नगरीय बुद्धिजीवी के यूटोपिया से अलग नहीं लगता.उसके विशुद्ध अनगढ़पन को भी देखा जाना चाहिए. आभार.
@किशोर जी,अब फिर सुबह है,आप तो फिक्शन लिखिए.दुनिया में अच्छी कहानियों की बड़ी ज़रुरत है.
@कंचन जी,
पुनर्जन्म पर मेरे संदेह वाद को बीच में न लाकर कहूँ तो आपकी प्रतिक्रिया मेरे 'बिखरे-बिखरे'से कथन में महत्वपूर्ण घटक की तरह जुड़ती है.
शुक्रिया.
समीक्षा धाँसू लगी.फिलिम देखनी है...अगली बार सीडी तैयार रखना...जोधपुर आऊंगा तब ले जाऊँगा.
ReplyDeleteफिल्मे मेरा शौक है ....आपको मानवीय संवेदनाओं से भरी फिल्मे देखनी हो तो इरानियन फिल्मे देखिये .हौल में नहीं जाना चाहते तो वर्ल्ड मूवी में देखिये ....बहुत कुछ मिल जाएगा ...सच में ......
ReplyDeleteअब बात इस फिल्म की इसके रिवियु पढ़ रहा था ...एकदो जगह...प्यार बड़ी जालिम शै है .हरेक आदमी अपनी व्याख्या अलग तरह से देता है ...गोन विद दी विंड .लव स्टोरी (एरिक सहगल )...लेकिन "टाइटेनिक" का आखिरी सीन मुझे बेहद प्रभावित करता है .यानी जब जीवन दांव पे हो तो तो आपके प्यार की कसौटी जुदा होती है ....ऐसे ही हिंदी फिल्मो में ."अनुपमा "का आखिरी सीन जहाँ पिता पुत्री के बीच नफरत प्यार का एक अजीब सा रिश्ता है ..प्यार उसे अलग तरह से डिफाइन करता है ....अमानुष .का नफरत प्यार का रिश्ता......"अमर -प्रेम "का वेश्या ओर उसके एक ग्राहक का रिश्ता .जिसमे एक बच्चा भी प्रेम का प्रतीक है ... बरसो पहले एक पुरानी फिल्म थी .उसकी सी दी आज तक ढूंढ रहा हूं .बलराज सहनी ओर लीला नायडू के फिल्म अनुराधा ...जिसमे बलराज सहनी एक डॉ है ...वक़्त के साथ उनके प्यार में एक ठहराव आता है ओर कैसे एक प्रतिभावान अभिनेत्री ..द्वन्द में फंसती है ......सुभाष घई की ताल भी मुझे बेहद पसंद है ..जिसमे लड़के का स्वाभिमान भी है ...हठ नहीं...विश्वास है ....इसके विपरीत" रहना तेरा दिल में" का लड़का . अग्रेसिव है...प्यार को छोड़ना नहीं चाहता ......
ओह .बहुत साड़ी मूवी है संजय...होलीवुड की तो.....फिलहाल एक मूवी देखना .."नोटिंग्स हिलस "जूलिया रोबर्ट्स की है .....
you love this man......
दो दिन पहले टिप्पणी कर जाता तो शायद फिर से नहीं आता और डा अनुराग का कमेन्ट मिस कर देता..
ReplyDeleteबहुत अच्छा विश्लेषण किया आपने.. और लगता है की ये प्यार धर्मवीर भारती के "गुनाहों के देवता' से भी दो कदम आगे है...
achhi post lekin pictures me ruchi nahi....
ReplyDeleteबहुत देर से आया। किशोर या संजय के लेखों पर देर से ही आना चाहिए - मेरी यह मान्यता सी बन रही है।
ReplyDeleteफिल्में देखी नहीं और समीक्षाएँ पढ़ी नहीं तो कुछ कहूँ कैसे? लेकिन फिल्मों से इतर बहुत कुछ इस पोस्ट और टिप्पणियों में है। बस सोच रहा हूँ कि चेतना के जाने कितने आयाम हो सकते हैं। ...वासना तो सृष्टि कर्म का मानस मंत्र है, उसके ऐसे पहलू भी हो सकते हैं!
__________
किशोर जी! फिक्शन कब लिख रहे हैं ?मैं तो ये फरमाइश संजय जी से करता रहा हूँ - विराट कैनवस, विराट गाथा। कब तक अतीत के मील पत्थरों पर घूम घूम के आते रहेंगे हम? कुछ अपने पत्थर लगाइए न !
ट्वाईलाईट की रौशनी में प्रेम की चकाचौंध!
ReplyDeleteबैंगनी चमक देखने के लिए आजकल फुर्सत भी है, मौसम भी ..
सुझाने के लिए शुक्रिया ...
मेरे पास कहने को कुछ नहीं है... बस यहाँ जुटे दिग्गजों से कुछ सुन रहा हूँ जो की आत्मसात करने की जरुरत है...
ReplyDeletemarvelous....ya! i've already heard about "twilight"....but after readin' ur post i'm eager to watch it as soon as possible...
ReplyDelete"प्रेम के जिस्म का बड़ा हिस्सा वासना का है। ये वनैला है।"
ReplyDeleteइस क्रूर सत्य को कितनी सहजता से कह गये आप कि हम प्रेमी-मन चाह कर भी विद्रोह नहीं कर पा रहे हैं। ट्विलाइट देख चुका हूँ, न्यू मून देखना बाकि है।
आपके विश्लेषण से याद आया कि विख्यात पैशाचिक-कथा "ड्रैकुला" भी वास्तव में एक प्रेम-कहानी ही तो है।
हम भारतीय निश्छल-वासनाहीन प्रेम का पोर्ट्रायल हर दूसरी मूवी में सस्ते तरीके से देखते देखते ऊब चुके हैं, जबकि अमेरिकी दर्शकवर्ग छिछोर प्रेम का नग्न-अर्धनग्न चित्रण देखकर अघा चुका है..
ReplyDeleteजाहिर है, हमें इस पिक्चर की फैंटेसी पसंद आती है(यदि आती है तो) तो पाश्चात्य दर्शकवर्ग प्रतिदान की आकांक्षा से रहित प्यार देखकर फ़ैनिया जाता है।
दो फ़िल्मों के बहाने प्रेम जैसी मानवीय भावनाओं पर टार्च फ़ेंकने वाली यह पोस्ट अच्छी लगी..
ReplyDeleteट्विलाइट तो मैने देखी है मगर सीक्वेल अभी तक चांस पे नही आया है..
वैसे देखें तो वैम्पायर से प्रेम के बहाने प्रेम के कुछ अनयुजुअल, डार्क और जटिल रंगों को उभारने के प्रयास मे यह फ़िल्म फ़ार्मुलाबद्ध कथ्य पर ज्यादा जोर देने के प्रयास मे भटकती सी है और एक सीमा से बाहर नही निकल पाती है..मगर अपनी इंटेंसिटी के कारण बांधे रखती है..
और एक चीज जिसने मुझे प्रभावित किया कि एक गैरपारंपरिक और अर्धव्यक्त से प्रेम ही है जो कहीं तो ऎड्वार्ड के अंदर के वैम्पायर को बांधे रखता है..तो कहीं पर यही प्रेम उसके अंदर की अतिमानवीयता को बाहर निकलने पर विवश कर देता है..सच कहें तो यही रहस्य है इस भावना का कि कैसे कोई वनैला पशु इस कच्चे सूत के बंधन मे बंध कर विवश हो जाता है..और कभी इसी के टूटने पर पहले से भी ज्यादा आक्रामक भी हो जाता है..
वैसे वैम्पायर्स की जटिल लवस्टोरी पर ही बनी एक अन्य बहुचर्चित स्वीडिश फ़िल्म सजेस्ट करना चाहूँगा ’लेट द राइट वन इन’
बेहद कच्ची उम्र के इस स्नेहसंबंधों जैसी कुछ चीजों पर बनी इस फ़िल्म मे लड़की बेहद सामान्य मगर बेतरह अकेली और उपेक्षित सी होती है...जिसमे आम लड़कियों से कोई भिन्नता नही है, सिवाय इस भयावह एकाकीपन के, और ब्लडथर्स्ट के..और उसे रोशनी की किरण मिलती है एक दब्बू और इंट्रोवर्ट छोटे लड़के में जो उससे जितना डरता है उतना ही चाहता भी है उसे...इस कहानी मे भले ही ट्विलाइट जैसा ग्लैमर न हो मगर भावनाओं की इस जटिलता के कथानक का कोई जोड़ नही...
@अपूर्व
ReplyDeleteये दोनों फ़िल्में इन दिनों में देखी थी और इनके ज़रिये प्रेम को एक भिन्न तरीके से देखा जा सकता है यही कुछ कहना चाह रहा था. प्रेम की छवि बहुत हद तक उदात्त,कोमल,मानवीय और आध्यात्मिक तत्वों को लेकर बुनी हुई है,एक और वैकल्पिक पाठ भी इसकी बनावट का हो सकता है जो अधिकांशतः 'इंस्टिंक्ट' से बना है ऐसा संकेत करना चाहता हूँ.
ट्वाईलाईट को लेकर ये कहूँगा कि ये एक वैम्पायर स्टोरी होने के बावजूद साफ़ सुथरी लगती है.कई ऐसी ही फिल्मों की तरह इसमें बैक ग्राउंड नीले अँधेरे में मनहूसियत से भरा नहीं दिखता.'मोर्बिड' सा अहसास इसमें नहीं है.
इस टिपण्णी के लिए शुक्रिया अपूर्व.ये मेरे लिखे को विस्तार देती है उसके गैप भरती है उसे और समृद्ध करती है.'लेट द राईट वन इन'ज़रूर देखने की इच्छा हो गयी है पर कैसे देख पाऊंगा नहीं जानता.उसका अंग्रेजी संस्करण शायद अभी नहीं आया है.
... dekhanaa padegaa, prastuti prabhaavashaali hai !!!
ReplyDeleteapki post kitni achhi thi ye commnt btate hai.unko jodh ke post ki ahmiyat or bhi badh jati hai.prem ko janna etna bhi asaan nahi.har koee apni tarah se samjhta hai par koee bhi prem se achhuta nahi hai.वैम्पायर bhi premi ho sakta hai.uske prem ko nazar andaz nahi kiya ja sakta.prem wastwik ho to apka uske haq me bne rahne ko man karta hai.sabka dekhne ka dhang alag alag hai.
ReplyDeletedo or do ka jodh hmesha char kaha hota hai.
apki har post na bhulne wali hoti hai. hmesha.
इससे ही मिलती जुलती एक मूवी देख चुकी हु "अंडर वर्ल्ड" जिसमे पिसाच और भेडिये की जंग की कहानी है और साथ ही साथ एक लव स्टोरी भी चलती है जो गले से उतरी तो ये movies देखने की हिम्मत जुटा नहीं पाई
ReplyDeleteबहुत ही सटीक और अच्छी समीक्षा आप को तो सेंसर बोर्ड में होना चाहिए :)
अच्छा विश्लेषण है. मनुष्यों का "मृत्योर्मामृतं गमय" का लोभ तो कभी छूटने वाला नहीं. जैसा इ-स्वामी ने कहा, इस श्रंखला की किताबें और फ़िल्में किशोरवय के दर्शकों में धूम मचा चुकी हैं. यहाँ के किशोरों को परोसी जा रही फिल्मों में वास्तविकता कम, जादू, मृत्योपरांत जीवन, परीकथाएँ आदि का मसाला कुछ ज़्यादा ही है.
ReplyDeleteनव वर्ष की अशेष कामनाएँ।
ReplyDeleteआपके सभी बिगड़े काम बन जाएँ।
आपके घर में हो इतना रूपया-पैसा,
रखने की जगह कम पड़े और हमारे घर आएँ।
--------
2009 के ब्लागर्स सम्मान हेतु ऑनलाइन नामांकन
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरस्कार घोषित।
नववर्ष की मंगलमय कामनाये !
ReplyDeleteफिर से एक बार पढने आया हूँ . बहुत आभार .
ReplyDeleteरिगार्ड्स
मनोज खत्री
अपने 10 th के स्टुडेंट्स को मैंने Twilight पढ़ने दी थी summer vacation में.. और देने के पहले लगभग यही बात कही थी दूसरे शब्दों में ( अंग्रेजी में ) कि यहाँ सवाल एक भूत कथा का नहीं है.. ये प्रेम का मामला है ..तुम्हें गहरे जाना होगा ..
ReplyDeleteइसे पढ़वाने के लिए आभार संजयजी
अपने 10 th के स्टुडेंट्स को मैंने Twilight पढ़ने दी थी summer vacation में.. और देने के पहले लगभग यही बात कही थी दूसरे शब्दों में ( अंग्रेजी में ) कि यहाँ सवाल एक भूत कथा का नहीं है.. ये प्रेम का मामला है ..तुम्हें गहरे जाना होगा ..
ReplyDeleteइसे पढ़वाने के लिए आभार संजयजी