Friday, January 6, 2012

सुबहें


पीपल के पत्तों से झर कर आती सुबह बहुत उजली लग रही थी.एक दम साफ़ झक.शफ्फाक.बिलकुल सुबह जैसी सुबह.न कोहरे में लिपटी न धूल से सनी.और अगर वक्त की बात की जाय तो समझिए सूरज क्षितिज से अब कभी भी नमूदार होकर पीला रंग फेंक सकता था.मंदिर में भगवान को जगाया जा चुका था पर उनकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं.आस्थावानों का अभी जमघट नहीं लगा था बस इक्का दुक्का ही मंदिर में आ रहे थे जिसका अंदाज़ अच्छे खासे अंतरालों में बजती घंटियों से लगता था.

ये बरसों पहले की बात है जब हममें काफी बचपन बाकी था. और दिखने मैं तो सच में ही बच्चे थे. इस सुबह के तो खैर ठाठ कुछ निराले ही थे.मैं अपने घर की छत पर एक कोने में पानी वाली डायन किताब हाथ में लिए था.घर की छतें भी छोटा मोटा अजायबघर होती हैं.कहीं मटकी में डलियों वाला नमक है तो किसी में पिछली दीवाली पर की गयी सफेदी का बचा हुआ चूने का पानी है.पतंग और चरखी भी इसी छत पर हैं.पर सबसे बड़ी चीज़ है, छत पर रखा रहता है वो दुर्लभ एकांत जिसमें सुरक्षित है वह इंतज़ार जो सामने की किसी छत पर आने वाली प्रेयसी के लिए किया जाता है.

इन दिनों चूँकि गर्मियों के दिन थे तो पड़ौस की छतों पर कई अघोरी अभी भी सोये पड़े थे.वैसे अभी सोये जा सकने जैसा समय भी था.पर हां औरतें घरों के कामों में लग चुकी थी.

कुल मिलाकर मैं इस अनूठी और जादुई सुबह में छत पर, दुनिया की अभी अभी शुरू हुई गहमा गहमी से दस फुट ऊपर किताब पढ़ने के सच्चे आनंद को नितांत अकेला भोग रहा था.कुछ कुछ वैसा ही जब घर में आपके अलावा और कोई न हो और आपके हाथ मां का छिपाया मिठाई का डिब्बा लग जाय.हां यह किसी गोपन सुख का ही आनंद था जो बिना किसी की जानकारी में आये मेरे सामने प्रकट था. और बड़ी बात ये भी थी कि कम से कम इस वक्त तो पास में कोई ईर्ष्या करने वाला भी नहीं था.

किताब में पुखराज की चट्टानें,भीमकाय दोस्त,बौने दुश्मन,जलपरी, नदियाँ सब थे.और उस उम्र का ये विश्वास भी कि फंतासी घटने से सिर्फ थोड़ी ही दूर होती है.

ऐसे ही कुछ यादगार सुबहें अपने पूरे आकार प्रकार में, लगभग भौतिक रूप में हमारे भीतर बनी रहतीं है. अगर आपको बताऊँ तो ऐसी ही एक सुबह कुछ साल पहले की है जब ऑस्ट्रेलिया में भारत क्रिकेट सीरीज खेल रहा था.यहाँ मैच सुबह के पांच बजे के आसपास टीवी पर आते थे.भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच एक अलग रोमांच लिए होता था और उसे घटते हुए देखना,वो भी सुबह जब घर के लोग किसी और कमरे में सो रहे हो और आपके हाथ में चाय का कप और सामने लाइव मैच हो तो वो आनंद अवर्णनीय सा होता है....और सुबह एकदम से यादगार वाली.

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नए साल पर आप सबके मन में ऐसे बहुत सी सुबहें हों,और हर आने वाली सुबह ऐसी ही सुबह बनकर आये यही कामना करता हूँ.

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ब्लॉगर एक ऐसा रेडियोधर्मी पदार्थ होता है जिसकी अर्ध आयु काफी लंबी होती है.वो रचनात्मक रूप से हमेशा विकिरित होता रहता है.हां जब उसका फील्ड बदल जाए तो उसे भूतकालिक ब्लॉगर कहा जा सकता है.ऐसे ही भूतकाल के ब्लॉगर और हमारे परम मित्र, जिगरी प्रकाश पाखी के लिखे राजस्थानी भजनों का अल्बम अर्पण मार्केट में आया है.प्रकाश को बहुत बहुत बधाई.इसमें से एक रचना बहता पाणी इस समय आपको सुनवा रहा हूँ.इसमें एक अलग ही कशिश है.और सबसे गज़ब बात है कि इसके ज़रिये प्रकाश ने बोलियों के बीच जो संत-फकीराना किस्म की आवाजाही की है, बिलकुल रमता जोगी अंदाज़ में, वो अद्भुत है. तो मज़ा लीजिए आप भी इसका.


(photo courtesy- cowgirl111)

7 comments:

  1. इस साल से नाउम्मीदी ही है मगर कल सुबह अप्रत्याशित रूप से एक दोस्त का फोन आया. दोपहर में अचानक छोटे भाई का आना हुआ, दिन में पत्नी का स्कूटर ओवरफ्लो हो गया तो उसने भी बुलाया, शाम को मैं खुद को और खुद मुझे समझाता रहा कि सब खैरियत से हैं ज्यादा सोचो मत... इस तरह लगने लगा कि जरुरी नहीं कि पिछले साल अंत खराब हुआ तो ये साल भी ऐसा ही जाये...

    आज आपकी इस पोस्ट ने मुझे और यकीन दिलाया कि वाकई साल बेहतर हो सकता है. आपको सिर्फ थेंक यूं कहना चाहता हूँ.

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  2. हर सुबह नव पल्लव की आशा से प्रकाशित होती है , नया साल भी उसी क्रम मे बंध कर आता है ..रोचक सुबह के साथ नए साल की आशा बांधता लेख पढ़ कर अच्छा लगा ,नए साल की बधाई आपको भी ।

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  3. वो सुबहें अब शब्दों मे ही रह गईं.... आह! संजय भाई इस दुनिया मे कोई तो गाँव बचा होगा ऐसा.... जैसा हमारे मन बचा रह गया है .....

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  4. मन बड़ी अजीब चीज़ है ...बस कंप्यूटर ने इसे जैसे हाथ में कागज थमा दिया है ...जो दिखाना चाहता है लिख डाल......साल दर साल बीतते जाते है हमारे भीतर यादे अपनी जगह बनाती है कुछ नया स्पेस कुछ पुराणी धुंधली ..हमारा अवचेतन मन भी उन्ही यादो को लेकर चलता है जिन्हें वो साथ लेकर चलना चाहता है ......किसी ने कहा है नोस्टेल्जिया का सही अनुपात जिंदगी के लिए जरूरी है ......आपको पढ़कर हमेशा सकूं मिलता है

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  5. सुबहें शाम तक याद आती हैं..

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  6. छत पर रखी निर्जीव चीज़ें भी अपना वजूद दर्ज करवा रहीं हैं यहाँ...

    "छत पर रखा रहता है वो दुर्लभ एकांत जिसमें सुरक्षित है वह इंतज़ार जो सामने की किसी छत पर आने वाली प्रेयसी के लिए किया जाता है" love this ! :)

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  7. आज सुबह मैं भी ऐसी ही किसी सुबह को खोजने निकली थी. यहाँ देख कर अच्छा लगा...
    ऐसी सुबहें यूँ ही सकेर के रख देनी चाहिए...आप जानते भी नहीं हो कि किस रात में इनका उजास खुशबू की तरह बिखरेगा.

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