Wednesday, January 11, 2012

बुखार में और उससे बाहर


नाक में घूमता है तमतमाई भीतरी झिल्ली से रिसता श्लेष्मा का गरम पानी. किसी नामालूम द्रव से भरी आँखों की झील उफनती है. मस्तिष्क गाढे लावे सा बहता है धमनियों में. चाहता हूँ कि इस धधकती देह से निष्कासित कर दिया जाकर हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की मानिंद ऊपर छत से टिका रहूँ.

सपने एक बहुत तेज़ भागती रील हो गयी है जिनके चित्रों को किसी मसखरे ने बेतरतीब जोड़ रखा है.एक बहुत ऊंचा शिखर दिखाई देता है.नोकदार. जिसके दूसरी ओर सिर्फ जानलेवा ढलानें हैं.पृथ्वी अपनी कील पर लट्टू सी घूमती है.लगता है उसका भी घूर्णन काल गडबडा गया है, एक डर सा लगता है,कहीं कील से ये फिरकनी दूर न जा गिरे.खगोलीय नियमों की गणितीय सटीकता एक भ्रम लगने लगती है.पूरे ब्रह्माण्ड की यांत्रिक गडबड़ी की शुरुआत यहीं से हुई महसूस होती है. कितनी देर विभ्रम बना रहता है कुछ पता नहीं.कितना समय इस बीच निकल जाता है बिना चिन्हित हुए, याद नहीं.

फिर..कहीं एक जद्दोजहद चलती है शरीर के भीतर.बिगड़ी हुई हार्मनी को किसी तरह उसकी रोज़ाना की लय पर लाने की कोशिशें चलतीं हैं. शरीर खुद जैसे लय में आना चाहता है. ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता इतना सब कुछ अनियंत्रित, नियमों से बाहर.चरम पर पहुंचे तनाव के बाद शैथिल्य की ओर ही लौटना है इस बार भी शायद...

हां लगता है..अब लौटने का रास्ता यहीं कहीं था.

अब तक देह से निरपेक्ष रही चेतना धीरे धीरे भारी होकर नीचे बैठती है. कोई दौड़ खत्म होने के बाद की हांफ, जिसमें अब तक तीक्ष्ण नोक पर टिके रहे प्राण पसरना शुरू होते हैं, भरने लगतें हैं धीरे धीरे.देह के भीतर ताप सिकुड रहा है.विश्रान्ति लाती छोटी छोटी तन्द्राएं आने लगती हैं. छाती में भारी हो चुके कफ की आवाज़ में अब गुरुता है. आँखें बाहर देखती है.पेड़ों का झूलना, लोगोंका चलना, पक्षियों का उड़ना, भागना कुत्तों का,सब धीरे होता जा रहा है,लगातार.परिदृश्य मानो किसी चिपचिपे द्रव में डूबा है जो लगातार और ज्यादा गाढा होता जा रहा है.क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया में जैसे अंततः एक बिंदु पर आकर सब कुछ किरचों में बिखर जाएगा और तैरने लग जाएगा बाहर स्फूर्त हवा में.

1 comment:

  1. आपकी कविता पर कुछ लिखना चाहा..मगर वहाँ कमेंट फॉर्म नहीं दिखा...
    कहना क्या चाहा...निशब्द हूँ...

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