इस पंक्ति के बाद से एक वादे की पवित्रता भंग होती है.
उसने कहा था कि तुम खुद से भी कभी ज़िक्र मत करना
उन पलों का
जो साझा हैं हमारे बीच
पल जो हिसाब की किसी बही में दर्ज़ नहीं
दिन रात के दरम्यां कहीं नहीं
नहीं आते जो
घड़ी के किसी भी कांटे के
रास्ते में .
इनकी बनावट संभवतः
समय की मांस मज्जा से न होकर
किसी नितांत आदिम से है
अजानी, इस लोक के किसी भी ज्ञात सन्दर्भ से.
एक दिव्य पारितोषिक की तरह मिले हैं
साझा मिल्कियत के ये पल
देशज पाठ में कहें तो
नाप के बाद दूधिये से मिले
दूध के कुछ अतिरिक्त मुफ्त छलकाव.
तय हुआ था
कि जो कुछ भी है
संयुक्त अधिकार में
जिसमें इस अधिकार का ज्ञान भी शामिल है
उसके सूक्ष्मांश को भी किसी से
बांटा नहीं जायेगा
और यहाँ मैं सिर्फ इतना कहकर भी
तोड़ रहा हूँ वो अहद जैसा कुछ
कि
बहुत हसीन हैं गोपनीयता के ये द्वीप
बनते जिन्हें देख नहीं पायी
झपकी लेते ईश्वर तक की उनींदी आँखें
जो अब तक इस दुनिया के
बेहतरीन नक़्शे में भी चिन्हित नहीं किये जा सके
और जिन्हें अकेले देख पाना
खुद मेरे लिए
किसी परम विकट भूलभुलैया में
हाइड एंड सीक खेलने जैसा है.
ऐसे ही कैटाकौम्स में फंसा मैं
रास्तों की पहचान कुछ नाकाफी सूत्रों से करने की
कोशिश करता हूँ
जैसे इस किताब के कवर पर
देखता हूँ किसी मुलात्तो लड़की का
अधूरा छपा चित्र
जिसमें
आधे ही दिखते चेहरे में
चुनौती देती है उसकी आँख
(दूसरी चित्र में दिखती नहीं)
और आग के फूल की तरह रखे
हैं तप्त होंठ
जिनके आगे मैं भूल जाता हूँ
अपने प्रिय लेखक के नाम में विन्यस्त
बड़े बड़े अक्षर.
मैं किसी बीते साथ की
अलाव सी आंच महसूस करता हूँ
ऐसे ही हर अपूर्ण के
रह गए किसी बाकी में
ढूँढता हूँ मैं
उसे
और उस साझा
सम्पदा को.
जैसे फुसफुसाहटों के ज़रिये
पीछे छूट गए वाक्यों को
इशारों में मूक रह गयी कामनाओं को
और झूठ में गठरी बने बैठे हां को.
(image courtesy- jeffb123)