Wednesday, April 3, 2013

प्रासाद

इस इमारत को उसने इस सीध में कभी नहीं देखा था.ये कोई हेरिटेज हवेली थी जिसे अब एक होटल में तब्दील कर दिया गया था.इस वक्त वो एक मॉल की मुख्य द्वार की सीढ़ियों पर बैठा था.शाम का वक्त और छुट्टी का दिन, तो काफी लोग आ जा रहे थे.कुछ दक्षिण भारतीय महिलाएं अपने कभी न सफ़ेद होने वाले, घने काले, कुंचित केशों के साथ अन्दर जा रहीं थीं.अधिकाँश तीस पार स्त्रियां राजपूती पहनावे में थीं   जो उसके गिर्द के परिदृश्य का बहुलांश थीं. जितनी स्त्रियाँ उतने ही पुरुष.पर मर्द अपने पहनावे के लिहाज़ से फीके, बेरंग.तीस पार के पुरुषों को यहाँ कोई शै गलाए जा रही थी जैसे.झुके कंधे,पिलपिली छातियाँ,आँखों में मोतियाबिंद,और भयानक दांत.उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि पुरुष के दांत कमज़ोर होकर गिरने से पहले इतने भयानक क्यों हो जाते है.पुरुषों और स्त्रियों में बराबर के अनुपात के बावजूद मॉल के दरवाज़े वह सिर्फ मह्लिलाओं की उपस्थिति ही चिन्हित कर पा रहा था. पुरुष पूरी तरह आउट ऑफ़ फोकस थे.बच्चे बच्चों की तरह ही थे,यानी जैसे होने चाहिए,खुश.

सीढ़ियों पर से उसकी नज़र बिना किसी कोण का तनाव सहे एक दम सीधी जहां पड़ रही थी वो सामने दिखती एक ऐतिहासिक इमारत थी.सड़क के उस और, ठीक सामने.अनेक बार उस सड़क पर से जाते हुए उसने इस इमारत को देखा था पर उसका देखना हमेशा क्षणिक,अस्थायी और लगभग असरहीन ही होता था.इमारत उसके भीतर कोई भाव नहीं जगा पाई थी.ये ज़रूर था कि उसे ओझल होने में बहुत लम्बा समय लग जाता था.वो अरसे तक पीछा करती रहती थी.उसने जिस किसी से भी इसके बारे में पूछा था तो जवाब मे उसकी जानकारी में कोई गुणात्मक इज़ाफा नहीं हुआ था.

अब ये इमारत उसके ठीक सामने थी.
शाम कुछ और बीत गयी.वो उसे एक टक देखे जा रहा था.उसकी चट्टानी मांसलता में सामने की पथरीली उच्च भूमि और दृढ़ता जोड़ रही थी.वो एक दम सामने थी पर बहुत दूर थी.उसके बड़े नोकदार शिखर भाले की तरह आसमान बींध रहे थे. उन्हीं शिखरों के बीच से एक भारी भरकम चाँद प्रकट हो आया था.कोई मायावी लोक उसके सामने रख दिया गया हो जैसे. अचानक वो डर गया.ऐतिहासिक इमारक की सारी बत्तियां जल उठीं और लगा जैसे वो प्रासाद उनकी रक्तिम आभा में दहक रहा हो.

एक छोटी बच्ची सुबकती हुई मेरे पास सीढ़ियों पर बैठ गयी थी. उसकी पसंद की कोई चीज़ शायद उसकी मां ने ली नहीं थी.मैंने उस बच्ची का शुक्रिया अदा किया जिसने मुझे इंद्रजाल से बाहर खींच लिया था.

8 comments:

  1. ऐसे खूबसूरत इंद्रजाल से बुनी गयी किताब लाजवाब होगी। मुझे इसी साल आपकी किताब का इंतज़ार है।

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  2. शब्दों का इंद्रजाल ...

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  3. इंद्रजाल की गिरफ्त शब्द लोक ले गई और मुक्ति वापस इस लोक ले आई ...इंतज़ार है अगली बार इंद्रजाल में प्रवेश करने का ...

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  4. इन्‍द्रजाल विस्‍तृत होता है। आपने तो इसे 407 शब्‍दों में बान्‍ध दिया बस।

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  5. प्रासादों का अपना इतिहास उन्हें उनके एकान्त में याद आता है।

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  6. आप दरअसल एक फोटोग्राफर है जो "फ्रीज़" कर देते है एक लम्हे को बैकग्रायुंड में कई शै समेटे हुए !

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  7. लाजवाब ! सुन्दर पोस्ट लिखी आपने | पढ़ने पर आनंद की अनुभूति हुई | आभार |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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