Wednesday, May 15, 2013

नाच(फिर से)

(इसी शीर्षक की अपनी पहले की पोस्ट में कुछ याद आया तो और जोड़ दिया.अब ये नए रूप में आपके सामने हैं,आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.)


उसका नाच कितना अलग था ! एक बिंदु में आकर जैसे उसकी कमर समाप्त हो जाती थी और फिर देह उसी बिंदु के गुरुत्व केंद्र पर दो हिस्सों में बंटकर घूर्णन करती थी। तेज़, और तेज़, फिर तेज़ ! कटि के नीचे का भाग अलग घूमता लगता और उसके ऊपर का भाग भिन्न वर्तुल में घूमता था.नर्तन दो वृत्त में होता दिखाई पड़ता था.ये दोनों वृत्त अपनी तीव्रता बढ़ाते जाते और फिर उनमें से एक एक और वृत्त निकलता फिर उन सब में से एक और. इस तरह कई सारे वृत्त घूमते जो पहले एक दूसरे से दूर जाते पर नृत्य गति में जैसे जैसे और तीव्र होता जाता ये सारे वृत्त सिमट कर पास आते और अंततः एक हो जाते. लगता जैसे कोई अद्भुत त्वरा से घूम रहा है.  इस नाच की गति में तीव्रता से गोल गोल गोल घूमती आकृति का ही आभास होता था.ये उसके नाच का ही प्रभाव था कि देखने वाले को सिर्फ उसका नाच ही दिखाई पड़ता था और इस तरह अक्सर लोग खुद उसके बारे में भूल जाते थे.बस गोल गोल घूमती किसी आकृति का नाच.


उसका गोल घूमना किसी ज्यामितीय आकार में गणितीय सटीकता से किया हुआ दोहराव हरगिज़ नहीं था.फिर तो वो नाच न रहकर कोई चक्करदार क्रिया भर होती. पर नहीं, उसका नाच नाच था.ये सिर्फ गोल गोल घूमना भर नहीं था.कुछ ऐसा था जो किसी घुमते वृत्त को देखने की अभ्यस्त आँखों को अलग से खटकता था.एक ही आवृति की तरंगों में बार बार कोई व्यवधान सा महसूस होता था,जो उस पूरे रेशमी एकसार में कोई हलकी सी गाँठ सा था. और वो था नाच के वर्तुल में कम्पन की लहरें. जैसे सपाट ज़िन्दगी में दर्द की लहरें हो. पर ये कम्पन इतने बारीक थे, इतने 'सटल' थे कि उन्हें महसूस करने के लिए उसके नाच का पूरा दर्शन समझना पड़ता था. एक विराट झंझा में आलपिन की नोक से पैदा किया गया हस्तक्षेप. बस इतना ही.पर ये बस इतना ही उसके नृत्य को गरिमा प्रदान करता था.उसकी इस कांप से ही नृत्य नृत्य रहता था, किसी भौतिकीय पिंड का आघूर्ण नहीं.उसकी यही झुरझुरी उसकी देह के गोलाकार पथ में भागने से अलग थी.कोई मानवीय सीमा जो उसके नाच को पारलौकिक होने से रोकती थी और ये विश्वास दिलाती थी कि सच में हम किसी का नृत्य देख रहे हैं.हो सकता है उसकी देह की प्रत्यास्थता में कहीं कुछ काष्ठमय हो.हो सकता है उसके रिफ्लेक्सेज़ में कोई अनूठी बात हो या फिर ये, उसकी नाचती देह से अलग, कोई आकुलता  थी जो संभवतः उसके जीवन में घटी किसी घटना से उसे जोडती थी.नाचते नाचते उसे याद आया हो बुखार में तपता अपना बच्चा या बिटिया की कोई महँगी ज़िद.या अपनी कोई व्यक्तिगत पीड़ा जिसका उसकी देह की मांसपेशियों कोई वास्ता न हो.कहीं गहरे किसी कोटर में छुपा दुःख या उसके  अपने बचपन का कोई प्रसंग भी याद आया हो सकता है.नृत्य के यांत्रिक पक्ष से बिलकुल हटकर थे उसके नाच में कम्पन.तमाम भौतिकीय नियमों से परे.किन्हीं चुम्बकीय कम्पनों से भी अलग.एक हलकी सी थरथराहट. किसी निपुण और पेशेवर रक्कासा की लरज़ से बिलकुल अलग जो कृत्रिम सकुचाहट से इन्हें पैदा करतीं है.

एक कुशल नृत्यांगना की तरह वो भी नाच की निरंतरता में कई अवकाश ढूंढ लेती थी. अपनी घूमती देह को एक संतुलन पर टिका कर उससे हट जाती थी और उपलब्ध अंतरालों में अपनी स्मृतियों को खेलने का मौका देती थी.उन स्मृतियों का नृत्य वो अकेली देखती थी.दर्शक उसका नाच देखते थे और वो अपने विगत को.

घूमती देह खुद रुकना भूल जाती.देह स्वयं उसके ही सम्मोहन में होती.उसका सम्मोहन अपने आप नहीं टूटता.वो फिर लौटती थी नाच में.

नाच उसके गिरने पर ही समाप्त होता था. और ये नाच के दौरान रचे गए स्वाभाविक में सबसे असहज था. सृष्टि की गति के यकायक खो जाने जैसा. लय के टूटने की पीड़ा उपजाता. सब कुछ नष्ट करने के भाव से शुरू होता था नर्तन. पर धीरे धीरे किसी आदिम लय से एकाकार होता यूँ रंग में आता कि देखने वाला उसके कभी समाप्त होने की प्रार्थना में कातरता से बैठ जाता. पर उसका कोई तार्किक समापन हो नहीं सकता था.इस नर्तन की कारा से बाहर आने के लिए कांच की भित्ति को तोडना ही होता. यूँ चटखकर ख़त्म होता था नाच.असल में ख़त्म नहीं टूटता था नाच.और लगता कि इसके टूटते ही जैसे बचेगा नहीं कुछ. दुनिया जैसे उसके नाच पर ही टिक गयी थी. उसके वर्तुल में सृष्टि का पूरा वृत्त समा गया था.
नाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं. अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर.देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए. दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखती. हर बार. कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया. और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था. देह का ही गान. उसी का उत्सव.
पता नहीं ये जगह कौनसी थी. हाँ ये पता था कि ये जगह कौनसी नहीं थी. ये घर,बाज़ार, टाउन हाल, होटल,समारोह-स्थल,मंदिर या ऐसा कुछ नहीं था. ये किसी फिल्म का सेट भी नहीं था. देखने वालों को इससे मतलब नहीं था कि ये कहाँ हो रहा था. वो अपना भूगोल खुद बनाती थी. और यूँ ये कहीं भी हो सकता था.
उसे आप सिर्फ एक नर्तकी नहीं कह सकते.

3 comments:

  1. उपलब्ध अंतरालों में अपनी स्मृतियों को खेलने का मौका देती थी.उन स्मृतियों का नृत्य वो अकेली देखती थी.दर्शक उसका नाच देखते थे और वो अपने विगत को............नर्तकी के भावों में अच्‍छी तरह रच बस गए आप। बढ़िया, सुन्‍दर।

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  2. सच में इसे टूटना ही था.... हर सम्मोहन टूटता है ।

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  3. पढ़ते-पढ़ते कई जगहों पर लगा कि बस अब हुई शुरू कोई कहानी। कई मोड़ों पर तो मन मेँ कहानी स्वरूप ग्रहण भी करने लगी। पर पूरा शब्द-चित्र एक केनवास और कलर-प्लेट बन गए। जिसे जैसा चित्र बनाना हो बनाले।

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